Tuesday, May 19, 2020

उत्खनन में मिला भारत का प्राचीन मापक सर्वेक्षण यंत्र

1976 - 77 की पुरातत्व विभाग के इस विवरण के अनुसार गुजरात की खीरसरा हडप्पन साईट से गढ वाली वडी स्थान से एक सर्वेक्षण उपकरण मिला है जो कि आधुनिक प्रिज्मेटिक कम्पास की तरह है..
यहीं कारण है कि हमारे पूर्वजों के पास ऐसे ऐसे मापक - सर्वेक्षण उपकरण थे जिनकी सहायता से सटीक माप की सडकें, किले, शस्त्र, रथ, भवन और मंदिरों का निर्माण सम्भव हो सका था..

Thursday, May 14, 2020

ईरान के संस्कृत अपभ्रंश नाम वाले पर्वत

ईरान की प्राचीनकाल में संस्कृत से निकटता इसी बात से सिद्ध है कि वहां पारसी मत का आरम्भ हुआ तथा जिसका मुख्य ग्रंथ अवेस्ता तथा उसकी भाषा संस्कृत जैसी है तथा पारसियों के व्यवहार, कर्मकांडों की समानता वैदिक क्रियाकलापों से देखी जा सकती है। एक तरह से पारसी मत को वैदिक धर्म का हिस्सा कह सकते हैं जैसे कि भारत के अनेकों मत हैं। अत: प्राचीनकाल में ईरान के अनेकों स्थानों के नाम भी संस्कृत आधारित होने चाहिए। ये बात अलग है कि ईस्लामीकरण ने क ई चीजों के नाम के साथ - साथ ईरान का प्राचीन इतिहास- संस्कृति भी बदली होगी किंतु फिर भी कुछ नाम ऐसे मिलते हैं या उनके पुराने नाम ऐसे मिलते हैं कि उसकी संस्कृत से निष्पत्ति दिख ही जाती है -
ऐसे ही ईरान के तीन पर्वतों के नाम देते हैं, जिसमें से दो नाम कृष्णानंद जी ने सुझाये थे -
1) कुबेर कोह - ये पर्वत शिखर ईरान में केस्पियन सागर से नीचे कहीं दायीं ओर है, इसकी हमें गूगल मेप पर कोई लोकेशन प्राप्त नहीं हुई किंतु 18 शताब्दी में कैथ जोनशन द्वारा बनाये गये, वर्ल्ड एटलस में परसिया के नक्शे में है। जिसे चित्र में दर्शाया गया है, वहां कुबेर कोह देख सकते हैं। यहां कोह का अर्थ शिखर जो कि परसियन है तथा कुबेर को आप सब जानते ही होगें अत: कुबेर कोह का अर्थ है - कुबेर शिखर 
सम्भवतः अब इसका कुछ अन्य नाम हो गया हो किंतु 18 वीं शताब्दी के जेग्रोफिकल एटलस पर इस नाम का स्थान अवश्य है। 
2) पर्वत धामावंत - यह गूगल मेप पर देखा जा सकता है, यह एक ज्वालामुखी पर्वत है। इसका संस्कृत तत्सम् रुप इस प्रकार है - धामावंत - धूमवंत पर्वत.. ये ज्वालामुखी है तो उठते धूएं के कारण इसका नाम धूमवंत से धामाव़त होना सिद्ध है.. 
3) कर्कश पर्वत - ये संस्कृत के कर्क से निष्पन्न लगता है..


Monday, May 11, 2020

बेबीलोन में मोर कैसे पहुंचा?



बेबीलोन में बाबुली साम्राज्य का उदय हुआ तब वहां के लोग मोर से परिचित नहीं थे.. मोर का परिचय वहां प्रथम बार भारतीय व्यापारियों द्वारा करवाया गया था... इस सम्बन्ध में एक प्राचीन कथा का संकलन बौद्ध जातक कथा "बावुरी जातक" में मिलता है.. The journal of the Royal Asiatic socity of great Britain and Ireland के 1898 April संस्करण में बावुरी की पहचान बेबीलोन देश के रुप में Rayis davids के जातक अनुवाद से दर्शायी है। 
जातक कथाओं में इस देश की प्राचीन कथायें और ऐतिहासिक विवरण बुद्ध द्वारा अपने पुनर्भव के रुप में दर्शायी गयी हैं जो कि बुद्ध द्वारा लोगों को उपदेश देने के लिए एक मसाला मात्र है। इन्हीं में से एक जातक बावुरी जातक है जिसमें बुद्ध ने मोर को स्वयं का पुनर्भव और कौऐ को निग्रंथनाथ पुत्त ( जैन गणधर) का पुनर्भव बताया है ( बुद्ध मोर की तरह श्रेष्ठ और जैन गणधर कौऐ की तरह निंदनीय).. 
इस जातक कथा के अनुसार प्राचीन काल में वाराणसी के कुछ व्यापारी भारत में कौआ लेकर गये थे, जिसे पहले कभी बावुर साम्राज्य के लोगों ने नहीं देखा था.. भारतीयों ने वो कौआ उन्हें बैच दिया। फिर दूसरी बार भारतीय वहां मोर ले गये, उसे उन्होंने और मंहगा बैचा। पूरी कथा चित्र में पढें.. 
चाहे ये कथा बुद्ध द्वारा पुनर्भव रुप में हो किंतु ये जरुर बताती है की मोर बेबीलोन भारतीय व्यापारियों द्वारा पहुंचा था। जातक कथाओं में ऐतिहासिक और लोक कथाओं को बुद्ध के पुनर्भव के रुप में इसलिए दर्शाया गया है कि बुद्ध की श्रेष्ठता के साथ - साथ मसाला लगाकर लोगों में बुद्धोपदेश के प्रति रुचि लायी जा सके। 
बाबुली - बावुरी ( ब - व, ली - री €य, र, ल)

Wednesday, April 29, 2020

ईस्लाम पूर्व अरब में कैसा जाहिलियत युग था?

क ई मुस्लिमो को आपने कहते हुए सुना होगा कि ईस्लाम से पूर्व अरब में महिलाओं की स्थिति बहुत खराब थी.. उन्हें अधिकार नहीं थे वो जाहिलियाना युग था आदि आदि.. 
किंतु हमें ईसापूर्व लगभग 600 वर्ष में अरब में एक महिला शासिका का प्रमाण असूर बनीपाल के असीरिया से प्राप्त प्राचीन अभिलेखों में मिलता है.. असूर बनीपाल ने 600 ईसापूर्व अपने विजय अभियानों और आक्रमणों को अभिलेख बद्ध किया था.. उन्ही अभिलेखों में से एक अभिलेख में उसका अरब आक्रमण का विवरण है जिसके अनुसार अरब के किसी प्रदेश पर महिला शासिका थी जिसका नाम आदिया था.. उसके साथ क ई सैनिक थे.. असूर बनीपाल ने आक्रमण करके उस अरब रानी के शिविरों को जला दिया और उस रानी तथा उसके सैनिकों के प्राणों को अपने हाथों में कब्जा कर लिया अर्थात् रानी को हरा दिया और अरब के उस प्रदेश की अटूट सम्पत्ति को लूटकर असीरिया पहुंचा दिया... 
इस 600 ईसापूर्व अभिलेख से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि अरब में मुस्लिम पूर्व महिलाओं को शासिका बनने तक का अधिकार था वो सैन्य नैतृत्व भी करती थी... और जाहिलियाना युग एक कल्पना मात्र है जिसका उद्देश्य ईस्लाम की श्रेष्ठता दर्शाना तथा ईस्लाम पूर्व अरब सभ्यता को नीचा दिखाना मात्र था..

असीरिया का दंड विधान (code of Hammurabi)



दंड विधान चाहे आज हो या कल अथवा इस देश का हो वा अन्य देश का.. दंड विधानों में क ई कारणों से पक्षपात दृष्टिगत हो ही जाता है.. जैसे - दंड विधान में प्रक्षेप के कारण, दंड विधान कर्ता का जातीय, पारिवारिक कुंठित होने के कारण, अधिकारियों और न्यायाधीशों के घूसखोर होने के कारण.. आदि ऐसे अनेकों कारण हैं जिससे दंड विधानों में भेदभाव पक्षपात आ जाता है..
हमारे एक मात्र विद्वान कौम नवभौंदुओं का कहना है कि दूनिया में सबसे पक्षपात युक्त कानून मनु ने बनाया था किंतु उसी मनुस्मृति मे अनेकों जगह ब्राह्मणों को ज्यादा दंड और ज्यादा प्रायश्चित भी है.. किंतु वो सब उन्हें नहीं दिखेगा.. नवभौंदुओं के अनुसार मनुस्मृति कम से कम शुंग कालीन है जिसे डा. अम्बेडकर ने दूनिया का सबसे खराब विधान कहकर जलाया था किंतु प्राचीन काल में अन्य भी दंडविधान थे जो क्रूरता और पक्षपात में हद पार कर गये थे.. इनमें से ऐसा ही एक दंड विधान है असीरिया का दंड विधान जिसका लेखन वहां के शिला पट्टों पर है जिनका काल लगभग 1700 ईसापूर्व माना गया हैं जिसे Code of Hammurabi भी कहतें हैं ये दंड विधान कीलाक्षर लिपि में लिखे गयें हैं जिनका अंग्रेजी अनुवाद हो चुका है...
इन दंड विधानों में किस तरह का पक्षपात है, उसकी एक झलक देखिये -
The code of Hammurabi 209 - 214 में भेदभाव देखें -
1) यदि किसी मनुष्य (असीरिया का प्रतिष्ठित) की बेटी को कोई दूसरा मनुष्य (प्रतिष्ठित) चोट पहुंचाये तो वह 10 शल चांदी जुर्माना देगा...
2) यदि लडकी मर जाती है तो बदले में दंड देने वाले उसकी (मारने वाले) की बेटी को मृत्यु में डाल देगें..
यहां अपराध किसी और ने किया है लेकिन सजा किसी और को मिल रही है.. भला मारने वाले की बेटी का क्या दोष जो उसे उसके पिता की गलती के बदले मारा जा रहा है...
3) यदि मनुष्य किसी साधारण व्यक्ति की पुत्री को चोट पहुंचाये तो उससे 5 शेकल चांदी दंड स्वरुप ली जाये..
4) यदि साधारण व्यक्ति की महिला मर जाये तो दंड आधा मन (मन भारतीय प्रणाली के तौल में भी है) चांदी दंड होगा..
5) अगर ये आघात दासी महिला या सेविका महिला पर हो तो दंड 2 शकल चांदी..
6) अगर महिला मर जावें तो दंड 1/3 मन चांदी..
यहां दंड में प्रतिष्ठित स्त्री, सामान्य मुक्त स्त्री और दासी(सेविका) को देखकर बहुत बडा भेदभाव किया गया है...
Code 203 - 205 में है -
1) अगर दो मनुष्य राज्य में समान पद पर हों तो.. एक मनुष्य यदि दूसरे को चोट पहुंचाता है तो वह एक मन चांदी दंड स्वरुप देगा...
2) यदि एक सामान्य मनुष्य किसी दूसरे सामान्य मनुष्य को चोट पहुंचाये तो उससे 10 शकल चांदी दंड है..
3) अगर कोई दास या सेवक किसी मनुष्य (प्रतिष्ठित) के पुत्र को मारे या चोट पहुंचाये तो नौकर अथवा दास का कान काट लिया जायेगा..
यहां भी दंड विधान में पछपात है... तथा हर जगह की तरह दास को ही कठोर शारिरिक दंड लिखा है...
Code 196 - 199 में लिखा है -
1) आंखे बदले आंख ली जाये..
2) हड्डी तोडने पर हड्डी तोडी जाये.
3) अगर सामान्य या मुक्त व्यक्ति की आंख और हड्डी है तो एक मन चांदी दंड..
4) अगर दास की आंख और हड्डी है तो दंड आधा हो जायेगा...
इस प्रकार पक्षपात युक्त और क्रूरतम दंड विधान हम्मूराबी ने बनाया था जिसमें महिलाओं को स्तन काटने जैसे क्रूरतम दंड विधान भी थे वो भी छोटी - छोटी गलतियों पर.

यही नहीं नवभौंदू के मीम भाईयों के शरीयत कानून में भी ऐसा ही है जिसमें खलीफाओं, शेखों के मजे रहे हैं.. आज का sc - st act और महिला एक्ट आदि भी ऐसे ही कानून है जो पक्षपात युक्त तो है किंतु झूठे आरोपों में इनमें लूट और मोटी रकम भी हडपी जाती है....

महाभारत में राजा को श्रेष्ठ राज्य का उपदेश

महाभारत सभापर्व में नारद जी द्वारा युद्धिष्ठिर को जो उपदेश दिये थे वे आज भी कितने प्रासंगिक है, ये बात हमें जाननी चाहिए...
राज्य के लिए कृषि और अन्नदाता कृषक कितने महत्वपूर्ण हैं, इसका वर्णन महाभारत में किया है -
1) कृषक दु:खी न हो..
2) राज्य की कृषि केवल वर्षा जल पर ही आश्रित न हो बल्कि किसानों को जलापूर्ति मिलती रहे.. इसके लिए राजा तरह तरह के प्रबंध करे... (एक बार अरुण लावनिया जी सर से बातचीत के दौरान उन्होनें यही बताया कि किसानों को बस जल उपलब्ध करवा दे सरकार तो शेष खेती और फसल उन्नति वो खुद कर सकते हैं, उन्हें सिखाने के लिए कृषि वैज्ञानिक या किसी की कोई आवश्यकता नहीं है..)
3) किसानों के लिए ऋण योजना जारी हो..
4) किसान और उसके बीज नष्ट तो नहीं हो रहे.. कहीं किसान आत्महत्या तो नहीं कर रहे..
आदि जो बातें महाभारत में राजा के लिए श्रेष्ठ राष्ट्र स्थापना के उद्देश्य से कही गयी है, वही बात आज भी कितनी प्रासंगिक है..
इस तरह की अनेकों बातें हमारे शास्त्रों में है.. कितना अच्छा होता कि हमारे ही शास्त्रों से ऐसे ऐसे उत्तम उत्तम प्रकरण लेकर संविधान आदि भी लिखा जाता... उसमें बौद्ध, जेन और सिख आदि भारतीय मतों के ग्रंथों की भी राष्ट्र के लिए उत्तम बातों का संग्रह भी हो जाता तथा हमारा अपने ही लोगों से लिया गया संविधान होता,, विदेशियों का कापी पेस्ट नहीं...

Saturday, April 25, 2020

रसियन का मूल संस्कृत





 ये बात हम या कोई भारतीय नहीं कह रहे हैं बल्कि अमेरिका में रसियन सिखाने वाली ये पुस्तक Russian for dummies का पहला अध्याय ही कह रहा है.. इस पुस्तक के सभी लेखक अमेरिका में सेल्विक भाषाओं के प्रोफेसर है.. अर्थात् भारत से बहार अमेरिका आदि की पुस्तकों में भी पढाया जाता है कि उनकी भाषा की जननी संस्कृत भाषा है.. पुस्तक के कुछ चित्रों के स्क्रीन शॉट भी दिये हैं जिनमें रसियन गिनती है जो काफी संस्कृत से मिलती है.. 
साभार - सौरभ अग्रवाल जी..

लैटिन भाषा का मूल संस्कृत

संस्कृत का मनुष्य, लेटिन में मनुस manus(श्) और अंग्रेजी में man हो गया... 
मनुष्य - मनुस - manus - man

पारसी राजा महाराज डेरियस - ग्रीक, धारयद्वसु: - संस्कृत(धार्यवहु - मूल पारसी) की वंशावली...

महाराज डेरियस ने लगभग 500 ईसापूर्व अपने अभिलेख Persepois
Βιston आदि अनेकों जगह प्राचीन पारसी भाषा में कीलाक्षर लिपि में लिखवाये थे.. इन अभिलेखों की भाषा जिसे प्राचीन पारसी या गाथिक (अवेस्तन) कहते हैं वो संस्कृत भाषा के अत्यंत निकट है.. ये संस्कृत, प्राकृत, पारसी एक ही भाषा परिवार है... इन अभिलेखों में दो अभिलेखों के मूल रोमन रुप और संस्कृत अनुवाद के चित्र हमने नीचे दिये हैं.. इनसे स्पष्ट है कि महाराज डेरियस का शासन विश्व के सभी महान राष्ट्रों के क्षेत्रों में था... उनके Persepois अभिलेख में उन्होनें लिखा है -
असुरमेधसं यजे: ऋतानि च ब्रह्माणि (संस्कृत लिप्यन्तरण) जो कि वेदों के निम्न उपदेश का ही भावार्थ है - ऋतस्य पन्था: || (ऋग्वेद, ८.३१.१३)
दोनो जगह ईश्वर और सत्य के लिए - ऋत और ब्रह्म का प्रयोग देखा जा सकता है...
अपने Βιston अभिलेख में डेरियस ने अपनी वंशावली का विवरण इस प्रकार दिया है -
(यहां हम केवल संस्कृत रुपांतरण लिख रहे हैं)
साखामनीष: (हाखामनीष)
|
चसिश्वि
|
अर्यारम्न:
|
ऋषामस्य
|
विष्टाश्व:
|
धारयद्वसु (धार्यवहु) (Darius - Greek)








Monday, March 30, 2020

प्राचीन ग्रीस का तकनीकी विज्ञान


प्राचीन काल में विदेशों (ग्रीकों) की तकनीकी उच्च योग्यता -
प्रायः कुछ अति स्वदेशवादी कहते हैं कि विदेशी प्राचीन काल में नंगे घुमा करते थे और भारतीय क ई सारी तकनीक विकसित कर चुके थे और विमान में उडा करते थे.. विदेशियों ने भारत से तकनीक लगभग 17 वीं शताब्दी के आसपास चुराई.. किंतु ये बात पूर्णतः सत्य नहीं है.. विदेशियों विशेषकर ग्रीकों के पास प्राचीन काल से ही उच्च तकनीकी विज्ञान रहा है जिसके प्रमाण संस्कृत वाङ्मय में भी मिलते हैं... वे लोग भी प्राचीन काल में अनेकों यंत्र बना चुके थे तथा उनसे अनेकों विद्याओं को भारतीयों ने ग्रहण किया और अनेको उन्होनें भारतीयों से ग्रहण किया था... 
ज्योतिष में रोमक और पोलश सिद्धांत भारत में प्राचीन काल से ही प्रसिद्ध हो गये थे.. जिनका प्रचार लाटदेव और श्रीषेण द्वारा किया गया था.. 
पंचसिद्धान्तिका में भी आया है - पुलिस रोमक वसिष्ठ..... व्याख्यातौ लाटदेव 1.3-4 
इससे रोमक निवासियों का ज्योतिष विज्ञान की प्राचीनता दृष्टिगोचर होती है... 
इसी तरह इन लोगों के पास प्राचीन काल में विमान की भी तकनीक थी जिसका प्रमाण हर्षचरित में इस प्रकार है -
आश्चर्य कूतुहल च... नभस्तलयांत्रिक ... काकवर्ण शेशुनागिश्च निस्त्रिशेन - हर्षचरित षष्ठं उच्छवास 
अर्थात् शिशुनाग के पुत्र काकवर्ण को बंधी बनाये हुए यवनों ने कौतुहल प्रदर्शन के बहाने किसी यंत्र चालित आकाशगामी विमान में बैठाकर किसी शहर के समीप लाकर गला रेंतकर मार दिया था... 
इस तरह उनकी तकनीक का भी ज्ञान होता है.. अत: विमान का दावा केवल भारत में ही नहीं अन्य देशों में भी होता है.. 
ग्रीक में प्राचीन मंदिरों के साथ यज्ञ वेदी भी बनती थी.. जिसमें द्रव्य और पशु आहुति दी जाती थी.. चित्र में एक मंदिर और उसके सामने हवन वेदी देख सकते हैं.. हवन करने के लिए ग्रीक में संस्कृत समान ही ΘΥ थू धातु भी है.. इन यज्ञवेदियों के साथ प्रसिद्ध ग्रीक तकनीकीकार और गणितज्ञ हीरोन (लगभग 15 ईस्वी) ने ऐसी व्यवस्था की थी कि हवन के लिए अग्नि प्रजवल्लित करने पर सामने स्थित मंदिर का दरवाजा अपने आप खुल जाता था.. इसके लिए उन्होने हवन कुंड और जमीन के भीतर ऐसी व्यवस्था की थी कि हवन की अग्नि से होने वाली ताप वृद्धि से नीचे स्थित पात्रों का जल गर्म होकर दूसरे पात्र में जाता तथा ये जल दूसरे पात्र का वजन बढा देता था जिससे दरवाजे के साथ नीचे स्थित घिरनी या दंडे गति करते और दरवाजा अपने आप खुल जाता था.. इस तरह ओटोमेटिक दरवाजा खुलने की तकनीक ग्रीक मंदिरों में प्रथम ईस्वी के समय हो गयी थी (इसका मूल चित्र नीचे है) .. इतना ही नहीं हिरोन ने उस समय स्टीम इंजन, स्वचालित कठपुतलियां, ज्योतिष यंत्र, जल को आगे बढाने वाली मशीन, पवन चक्की, विमान आदि का वर्णन कर दिया था.. उनके प्रयोग ग्रीक भाषा की ओटोमेटा और Gli Artiartificiosi में है... 
इस तरह प्राचीनकाल में विदेशियों के भी पास उच्च विज्ञान व तकनीक सिद्ध होती है...

संस्कृत और यूनानी का सम्बन्ध

संस्कृत की धाव् धातु युनानी में θευ (थऎव - थाव्) होता है। 
इसी तरह ग्रीक में प्राचीन मंदिरों में हवन भी होता था उसकी धातु भी संस्कृत व पालि की "हु" (जुहोति) धातु है जिसका ग्रीक रुप - θυ (थ उ - थु) धातु है। 
इसी तरह संस्कृत की जन् धातु का ग्रीक रुप ΓΕΝ (गऍन) है। तथा दा धातु (देने अर्थ में) का ग्रीक रुप Δο (दऒ - दो) है। 
धाव् - थाव् 
हु - थु
जन् - गेन्
दा - दो
काल व देशांतर से उच्चारण में परिवर्तन हुआ किंतु अर्थ व प्रयोग में परिवर्तन नहीं हुआ।
संस्कृत व ग्रीक की समानता देखकर कुछ नवभौंदू संस्कृत को विदेशी या ग्रीक से उपजी बता सकते हैं किंतु ग्रीक भाषा प्राकृत या पालि से भी मिलती है जैसे -
हृस्व ए, ओ दोनो संस्कृत में नही है किंतु पालि में है जिनके लिए ग्रीक में ο ऒ तथा ε ऍ का संकेत या ध्वनि प्रयुक्त होती है। इस आधार पर पालि या प्राकृत के अक्षरों का मूल ग्रीक मानना चाहिए, जबकि आधुनिक भाषा विज्ञान की दृष्टि से भी देखे तो भी संस्कृत, ग्रीक, प्राकृत एक ही परिवार की भाषायें है। हमारे मत में ये समानता इनकी वैदिक भाषा से निष्पत्ति दर्शाती है।

Sunday, March 29, 2020

चट्टानों को काटने - तोडने की प्राचीन रासायनिक तकनीक

आज अनेकों यंत्रों द्वारा चट्टानों को काटकर या तोडकर सुरंगों, रास्तों, बोरिंग हो जाती है। किंतु जब हम प्राचीन काल के गुफाओं जैसे अजन्ता, ऐलोरा, मंदिरों और कुओं को देखते हैं तो आश्चर्य होता है कि आखिर कैसे विशाल शिलाओं को खंड - खंड करके इनका निर्माण किया गया होगा? क्योंकि आज अगर जमीन से पानी निकालना होतो विशाल शिला को बोरिंग मशीन द्वारा खंडित कर दिया जाता है। यदि गुफा बनानी हो या सुरंग बनानी हो तो पाषाण को काटने के लिए अनेकों अत्याधुनिक मशीने हैं किंतु प्राचीन काल में लोग कौनसी तकनीक से शिलाओं को तोडकर मंदिर, मुर्ति, कुआं व गुफा बनाते थे? क्या वे ये काम हाथों और कुछ हथोडी, छैनी, कुदाल आदि से करते थे? यदि केवल कुदाल आदि छोटे यंत्रों से ये काम देखें तो विशाल शिलाओं और पर्वतों को काटना या खंडित करना लगभग असम्भव व समय साध्य है।
अत: कोई ऐसी तकनीक अवश्य ही होगी जिनसे शिलाओं को तोड लिया जाता होगा और फिर उससे गुफा और कैलाश जैसे विशाल मंदिरों का निर्माण किया जाता था।
वो तकनीक थी कुछ ऐसे पदार्थों का प्रयोग करना जो कि रासायनिक गुणों द्वारा किसी भी शिला को चटका या तोड सकती थी। जिससे आसानी से मंदिर, गुफा और कुओं का निर्माण हो जाता था। इन रासायनिक तकनीकों का वर्णन हमें वाराहमिहिर कृत वृहत्संहिता में मिलता है -
शिला तोड़ने का उपाय कथन
भेदं यदा नैति शिला तदानीं पलाशकाष्ठैः सह तिन्दुकानाम् ।
प्रज्वालयित्वानलमग्निवर्णा सुधाम्बुसिक्ता प्रविदारमेति ॥११२॥

- कुँआ खोदते समय शक्तिशाली पत्थर या शिला आवे और परिश्रमपूर्वक भी टूटे नहीं, तो पलाश (ढाक) की लकड़ी तथा तिन्दु (तेन्दुआ ) पेड़ की लकड़ी उस शिला या पत्थर के ऊपर रखकर सुलगाना चाहिये। जब पत्थर या शिला लाल
रंग के जैसी दिखने लगे तो उस पर चूने के पानी का छींटा मारने से तथा हिलाने से शिला टूट जायेगी। बहुत शक्तिशाली शिला हो, तो दो से सात वार उपरोक्त विधि अनुसार लकड़ी जला कर चूने के पानी का छींटा देने से शिला निश्चय ही टूट
जायेगी ॥११२॥
पुनः शिला तोड़ने की विधि कथन -
तोयं श्रितं मोक्षकभस्मना वा यत्सप्तकृत्वः परिषेचनं तत् ।
कार्यं शरक्षारयुतं शिलायाः प्रस्फोटनं वह्निवितापितायाः ॥११३|॥
उपरोक्त पलाश एवं तिन्दु की लकड़ियाँ सुलगा कर शिला के लाल होने के बाद उस पर चिता भस्म घोल कर गर्म शिला पर डालने से या सात बार छींटा मारने से वह पत्थर या शिला टूट जाती है, उक्त श्लोक का इस प्रकार भी
अर्थ हो सकता है-
मोक्षक ( काली पाढ़रि ) वृक्ष की लकड़ी का भस्म मिलाकर पानी को खूब गर्म करना चाहिए, फिर उसमें शर वृक्ष का भस्म मिलाना चाहिए, उसके बाद पूर्ववत् तपायी गईं शिला पर उस घोल का सात बार छिड़काव करने से वह शिला टूट या फूट जाती है ॥११३॥
पुनः शिला तोड़ने के उपाय कथन
तक्रकाञ्जिकसुराः सकुलत्था योजितानि बदराणि च तस्मिन् ।
सप्तरात्रमुषितान्यभितप्तां दारयन्ति हि शिलां परिषेकैः ॥११४|॥
-तक्रकांजिकसुरा एक पात्र में तीन मात्रा लेकर, उसमें कत्था तथा बादराणि की लकड़ी डालकर सात दिन सड़ने दें । तत्पश्चात् कुँए में पूर्वोक्त लकड़ी सुलगाकर पत्थर लाल कर देवें । उस शिला पर उस सड़े सुरा के जल का छीटा
मारने से शिला टूट जायेगी । शिला की शक्ति के अनुसार अधिक से अधिक सात बार ऐसा करना होगा।
‌कृति-तक्रकांजिक सुरा एवं आसव चार-चार मन एक कोठली में भरे एक मन कत्था, एक मन बदरी लकड़ी डाल सात दिन तक ढककर रखें, उसे सड़़ने दें, फिर उसका उपयोग करे इस प्रकार भी उपरोक्त श्लोक का अर्थ सम्भव है-
तक्र = छाछ; कॉजी,सुरा= मद्य और कुलथी, इन सबों को मिलाकर एक बर्तन में सात रात तक रखना चाहिए । बाद में अग्नि से तपाई हुईं शिला पर उसेबार-बार छिड़कने से शिला टूट जाती है॥११४॥
पुनः शिला तोड़ने के उपाय कथन
नैम्बं पत्रं त्वक्च नालं तिलानां
सापामार्गं तिन्दुकं स्याद् गुडूची ।
गोमूत्रेण स्तनावितः क्षार एषां
षट्कृत्वोऽतस्तापितो भिद्यतेऽश्मा ॥११५॥
माया-नींबू का पत्ता, छाल, तलसरा, अपामार्ग, तिन्दुक की लकड़ी, गुडुची आदि को गोमूत्र में रखकर क्षार बनावें तत्पश्चात् कुँआ के पत्थर को सुलगा केर लाल कर दें, एवं उसका (क्षारका) छींटा नौं बार मारें, तो वज्र जैसी शीला भी टूट जायेगी।
कृति-नींबू का पत्ता आदि छ: वस्तुएँ एक-एक मन लेकर मिलावें । उसमें छः मन गोमूत्र मिलाकर क्षार तैयार करें। एवं तपी शिला पर इसका छींटा मारे । श्लोक का अर्थ इस प्रकार भी कर सकते हैं-
नींब के पत्ते, उसकी छाल, तिलों का नाल, अपामार्ग, तेन्दुफल , गिलोय आदि
की भस्म को गोमूत्र में मिलाकर, उसे तपाई हुई शिला पर छःबार छिड़काव करने से शिला फूट जाती है ॥११५॥

- वृहत्संहिता, दकार्गलनिरूपणम्-५४
यहां कुछ ऐसे ही प्रयोग दिये हैं जो इस और संकेत करते हैं कि प्राचीन काल में एलोरा जैसे मंदिर बनाने या कुआं खोदने, गुफा बनाने के लिए चट्टानों को खंडित करने के लिए, इसी प्रकार के पदार्थों का प्रयोग किया जाता था जिससे चट्टानें रासायनिक प्रतिक्रियाओं द्वारा चटक जाती थी।

Thursday, February 27, 2020

वराहमिहिर का काल

वराहमिहिर को आजकल वामपंथी इतिहासकारों ने 500 ईस्वी के आसपास रखा है। जबकि वराहमिहिर संवत प्रवर्तक विक्रमादित्य के नवरत्न थे। अतः इनका काल 50 ईस्वी पूर्व के आसपास ही होना चाहिए। इसके लिए इन लोगों ने राजा विक्रमादित्य को ही काल्पनिक बता दिया जबकि इस राजा के संवत का प्रयोग 274,287,314 ईस्वी के क ई सारे यूप स्तम्भों पर है। उज्जैन में विक्रमादित्य नाम से ब्राह्मी लिपि का अभिलेख और मुद्रायें तक मिल चुकी है। ऐसे में राजा विक्रमादित्य को कल्पित कहना इतिहास के साथ छेड़छाड़ है। जब ईसापूर्व राजा विक्रमादित्य थे तो उनके नवरत्नों में वराहमिहिर भी उन्हीं के समकालीन है। किंतु पाश्चात्य विद्वान वराहमिहिर को ईस्वी बाद सिद्ध करने के लिए यह प्रमाण देते हैं कि वराहमिहिर ने अनेकों जगह शक सम्वंत का प्रयोग किया है जो कि ईसा से 78 वर्ष बाद है। इस आधार पर बराहमिहिर को ईसा बाद रख दिया जाता है। जबकि ध्यान देना चाहिए कि शकों का भारत आने का सिलसिला ईसापूर्व से ही हो गया था। युग पुराण में भी अम्लाट नाम के शक का उल्लेख है। राजा विक्रमादित्य ने भी शकों को भगा कर ही शकारि उपाधि ग्रहण की थी। अतः वराहमिहिर द्वारा प्रयोग किये जाने वाला शक सम्वंत ईस्वी बाद 78 वाला ही शक सम्वंत है ऐसा मानना नितांत भ्रम है। 
अपने काल के शक सम्वंत के बारे में वराहमिहिर स्वयं ही स्पष्ट कर देते हैं - 
आसनमंचासु मुनय: शासति पृथ्वी युद्धिष्ठिरे नृपतौ। 
षडद्विकपंचद्वियुत शककाल: तस्य राजश्च।। - बृहत्संहिता 13/3 
अर्थात् युद्धिष्ठिर के राज्य करने के 2526 वर्ष पश्चात् शक काल आरम्भ हुआ। महाभारत युद्ध समाप्ति और युद्धिष्ठिर का राज आरम्भ को विद्वानों ने अभिलेखों, पुराणों के आधार पर लगभग 3100 ईसापूर्व के आसपास माना है। इसमें से 2526 घटाये तो - 3100-2526 = 574 ई. पू. वराहमिहिर द्वारा उल्लेखित शक काल आता है। 
इस शक काल को प्रचलित शक काल मानकर वराहमिहिर को ईस्वी बाद 500 के आसपास रखा है। हमने वराहमिहिर के शक काल को 570 ई. पू. सिद्ध किया है अगर हम इस गणना में से वराहमिहिर की पाश्चात्य और वामपंथियों द्वारा मानी गयी गणना को घटा दें 570 - 500 = 70 ई. पू. वराहमिहिर का काल आ जाता है जो कि संवंत प्रवृत्तक राजा विक्रमादित्य 57 ई. पू. के समकालीन बैठता है। 
हमने मोटी गणना की है जो कि और सटीक प्रयासों द्वारा हो सकती है।

Wednesday, February 26, 2020

खारवेल का समय!





वाङ्मय और पुरातत्व के संतुलित अध्ययन से ही इतिहास के उचित निष्कर्ष तक पहुंचा जा सकता है। इनमें से किसी एक की भी पूरी तरह अवहेलना करने पर जो गुड गोबर होता है, उसकी एक झलक इस लेख में दिखलाते हैं। और वे लोग जो साहित्य को किनारे करके केवल पुरातत्व और शिलालेख से ही इतिहास निर्णय करते हैं वे किस प्रकार सही निष्कर्ष तक नहीं पहुंच पाते इसका एक उदाहरण देखिये - 
खारवेल नरेश ने अपने शिलालेख में मगध के जिस राजा को अपने पैरों में गिरवाया था वो राजा बृहस्पति मित्र वास्तव में कौन था? 
खारवेल के शिलालेख की 13 वीं पंक्ति में बृहस्पति मित्र का मगध राजा के रुप में उल्लेख आता है - 
मगधानं च विषुलं
भयं जनेते हथी सुगंगीय [] ल
पाययति [।] मागधं च राजानं
वहसतिमितं पादे वंदापयति
[] नंदराज-नीतं च कारलिंग-
जिनं संनिवेसं..........गह-रतनान
पडिहारेहि अंगमागध-वसु च
नेयाति [1]
- शिलालेख पंक्ति 13 
इस मगध राजा को इतिहासकार अपनी तुक्क बंदी में अग्निमित्र, पुष्यमित्र या अन्य शुंग वंश से जोडते हैं किंतु ये बात कल्पना मात्र है। मित्र नाम देखकर केवल पुष्यमित्र से जोडना हास्यास्पद ही है। अब देखें ये तुक्का किस प्रकार गलत है और बृहस्पति मित्र कौन है? इस पर हम विचार रखते हैं - 
खारवेल अपने ही शिलालेख की 8 वीं पंक्ति में एक यवनराजा दिमित्र का उल्लेख करता है जिसे उसने मथुरा से मारकर भगाया था। 
घातापयिता राजगहं
उप-
पीडापयति [।] एतिनं च कंमाप-
दान-संनादेन संवित-सेन-बाहनो
विपमुंचितु मधुरं अपयाते यवन-
राज डिमित....
[ मो ? ] यछति [वि]........ 
पंक्ति 8
इस शिलालेख की 8 वीं पंक्ति में यवनराजा का नाम दिमित्र है जिसे युनानी में Demetrious कहा गया है। अतः खारवेल और बृहस्पतिमित्र के समय यवन आक्रमणकारी यवनराजा दिमित्र था। जबकि पुष्यमित्र और अग्निमित्र के समय मिलिंद्र था। इसलिए किसी भी तरह से बृहस्पतिमित्र का अर्थ शुंग राजा या पुष्यमित्र लगाना उचित नहीं है। 
अब हम जानते हैं कि दिमित्र का आक्रमण किस मगध शासक के काल में हुआ था। इससे हम बृहस्पतिमित्र कौन था? ये भी जान जायेगें। 
इसके लिए हमें वाङ्मयों की ही तरफ आना पडेगा क्योंकि कितना ही शिलालेखों पर सर फोड लो, बृहस्पतिमित्र का निष्कर्ष प्राप्त नहीं होता है। 
दिमित्र को ही संस्कृत साहित्य में धर्ममीत लिखा है। इसने साकेत, मथुरा सहित अनेक क्षेत्रों पर आक्रमण किया था। युग पुराण में इस यवन राजा का नाम और इसके आक्रमण का उल्लेख है। 
युग पुराण में आया है - 
धर्ममीतमता वृद्धा जन भोक्षंति निर्भंया! / ५५
ततः साकेतमाक्रम्य पंचाला माथुरास्तथा ।
यवना युद्धविक्रांताः प्राप्स्यंति कुसुमध्वजं ॥ ४७ ॥
इसके आक्रमण के समय मगध पर जो राजा था उसका नाम भी युग पुराण में दिया है। वो राजा शालिशुक मौर्य था। 
युग पुराण में उसे भीरु, राष्ट्र और धर्मद्रोही बताया है। 
तस्विन्युषपुरे रम्ये जनराजाशताकुले ।
कततः कर्मसुतः शालिशूको भविष्यति ॥ ४४ ॥
स्वराष्ट्रमरदनो घोरे धर्मवादी अधा्मिकः ॥ ४५ ॥
अतः दिमित्र (धर्ममीत) और खारवेल के समय मगध पर शालिशुक मौर्य नामक राजा था। यदि हम शिलालेख, युग पुराण की आपस में तुलना करें तो बृहस्पतिमित्र कोई और नहीं बल्कि शालिशुक मौर्य ही सिद्ध होता है। क्योंकि दिमित्र का मथुरा पर कब्जा और उसे खारवेल द्वारा मथुरा से भगाना उसी समय मगध पर बृहस्पतिमित्र का होना जिसका खारवेल के पैरों में गिरना और युग पुराण में दिमित्र के समय शालिशुक मौर्य का होना आदि। समानाधिकरण से शालिशुक को ही बृहस्पतिमित्र सिद्ध करते हैं। 
इसमें एक सबसे बडा प्रमाण भगवद् दत्त जी की वृहद भारत का इतिहास के भाग दो से मिलता है, इस ग्रंथ में पुराण और दिव्यवदान की तुलना से मौर्य राजाओं की एक वंशावली बनाई है। जिसे चित्र में देख सकते हैं। पुराण में संप्रति का पुत्र शालिशुक मोर्य लिखा है वहीं दिव्यवदान में संप्रति का पुत्र बृहस्पतिमित्र लिखा है। यहां यदि समानता देखी जाये तो शालिशुक का ही अपरनाम बृहस्पतिमित्र सिद्ध होता है। 
राजा खारवेल ने जैन अरिहंतों के साथ साथ ब्राह्मणों को भी दान दिये थे। जिसमें सोना, रथ, घर और अग्नि होत्र गृह थे। अपने शिलालेख में लिखा है - 
कपरुखे
हय-गज -रध-सह- यंते
सवघरावास-परिवसने स-अगिण-
ठिया [I] सव-गहनं च कारयितु
बम्हणानं जाति परिहार ददाति
10 पंक्ति
अतः पालि का बामण और ब्राह्मण एक ही है और मौर्यकाल में भी अग्निहोत्री ब्राह्मण थे। ये इससे सिद्ध होता है। 
अतः पुरातत्व, वाङ्मय के संतुलित निर्णय से ही इतिहास के सही निष्कर्ष तक पहुंचा जा सकता है। 
मथुरा से प्राप्त संस्कृत का यवनराज नाम से उल्लेखित शिलालेख यवनराजा दिमित्र के 116 वें वर्ष का है जिसे चित्र में देख सकते हैं। 
संदर्भित ग्रंथ एवं पुस्तकें - 
1) युग पुराण
2) भारतवर्ष का वृहद इतिहास
3) खारवेल का अभिलेख
4) यवनराज शिलालेख मथुरा संग्राहलय

भारत में 200 ईसापूर्व भी था मानव पिरामिड का खेल।



भर्हुत के स्तूप में शुंग कालीन एक मानवीय पिरामिड की रचना मिलती है जिसमें क ई लोग मिलकर एक के ऊपर एक चढकर पिरामिड बना रहे हैं। आजकल कृष्ण जन्माष्टमी पर मटकी फोड पिरामिड बनाकर होता है।
बहुत से स्कूलों में या स्वतंत्रता दिवस आदि कार्यक्रमों में आकर्षण के लिए मानवीय पिरामिड बनाये जाते हैं।

देवाधिदेव महादेव का काल

रुद्र, शिव नाम से अनेकों महापुरुष विभिन्न कालों में हो चुके हैं जिनमें से एक का नाम स्वामी दयानंद सरस्वती जी ने पुना प्रवचन में भी लिया है वो आशुतोष शिव आदि कालीन है किंतु हम यहां उन शिव की बात कर रहे हैं जिनकी पत्नि पार्वती थी तथा पुत्र कार्तिकेय था। जिनका शिष्य नन्दी था (देखे कामसूत्र) तथा जो अनेकों शास्त्रों के ज्ञाता व योगी थे। 
इनके बारे में युद्धिष्ठिर मीमांसक जी ने अपनी पुस्तक संस्कृत व्याकरण शास्त्र के इतिहास 1 भाग में बताया है कि - 
ब्रह्माण्ड पुराणानुसार इनके पिता का नाम कश्यप तथा माता का नाम सुरभि था। ये 11 भाई थे जो एकादश रुद्र कहलाये। 
शतपथ ब्राह्मण 1.7.3.8 के अनुसार प्राच्यदेश वासी इन्हें शर्व नाम से बुलाते थे। 
ब्रह्माण्ड पुराण के अनुसार "पुत्रत्वे कल्पयामास महादेवस्तदा भृगुम्"- ब्रा.पु. 2/3/1/38 अर्थात् महादेव ने भृगु को पुत्र माना या गोद लिया। 
छंदशास्त्र के यादव प्रकाश भाष्य के अनुसार नन्दी के अलावा बृहस्पति और गुह भी इनके शिष्य थे। 
संस्कृत व्याकरण शास्त्र के इतिहास में इनका काल सतयुग का चतुर्थ चरण अर्थात लगभग 11000 वर्ष पूर्व माना है। किंतु ब्रह्माण्ड पुराण में जो शिव सम्बंधित घटनाये है वो जबकि है तब चाक्षुष मन्वन्तर खत्म हो गया था और वैवस्वत का आरम्भ हुआ था। 
चाक्षुषेस्यांतरे अतीते वैवस्वते पुन: - ब्रह्माण्ड 2/3/1/8 
अर्थात् चाक्षुष मन्वन्तर का अंत और वैवस्वत का प्रारम्भ हुआ था। 
इसी मन्वन्तर के प्रजापतियों में विवस्वान के साथ साथ शिव पुत्र कार्तिकेय का भी नाम है - 
बहुपुत्र: कुमारश्च: विवस्वानन्स शुचिव्रत...... ब्रा.पु. 2/3/1/54
अत: शिव भी चाक्षुष के अंत और विवस्वान के आरम्भ में होने चाहिए। 
वैवस्वत मन्वन्तर की 28 चतुर्युगी बीत चुकी है अर्थात् वैवस्वत का आरम्भ आज से 28 चतुर्युगी पूर्व हुआ था। और यही काल चाक्षुष की समाप्ति का माना जा सकता है। इसी काल में शिव विद्यमान थे। अतः ब्रह्माण्ड पुराणानुसार शिव का काल 28 चतुर्युगी पूर्व हुआ। 
1 चतुर्युगी = 4320000
28 चतुर्युगी = 28×4320000= 120,960,000
अत: शिव का काल आज से 120960000 वर्ष प्राचीन है।

सम्राट अशोक - लगभग 1100 ईसापूर्व

सम्राट अशोक का जो काल निर्णय आजकल किया जाता है उसका आधार है सम्राट अशोक के शाहबाजगढी आदि शिलालेखों में आये कुछ नाम, इन नामों में आये शब्द योनराज और अतियोक को एंटियोकस नामक सीरिया का राजा माना है तथा जिसका काल लगभग 300 ईसापूर्व के आसपास माना गया है। इसी आधार पर सम्राट अशोक का काल भी लगभग 300 ईसापूर्व माना है। अशोक के शाहबाजगढी और गिरनार के लेख चित्र में देख सकते हैं इन चित्रों में आये नाम निम्न है - चोल, केरलपुत्त, कम्बोज, यवन, अतियोक, पंड्या, अलिक सुंदर आदि।
किंतु आपको ये जानकर आश्चर्य होगा कि ये किसी राजाओं के नाम न होकर स्थान वाची नाम है।
इन नामों के स्थान वाची होने में निम्न है तु है -
1) शिलालेखों में योजनशतादि दूरी का उल्लेख है ये दूरी वाची संज्ञा किसी देश विशेष के साथ ही सार्थक है राजा के नाम के साथ नहीं।
2) शिलालेखों में राजनि या रजॶ पाठ पठित है जो कि राज्ये का सप्तमी प्रयोग है अतः अगर यहां किसी राजा का नाम अभिप्रेत होता तो राज्ञि शब्द होता।
3) पुराणों में यवन, पंड्या, चोल ये सब स्थानों के नाम आये है। जिन्हें हरिवंश आदि में देख सकते हैं -
यवना पारदार्चैव काम्बोजा पह्लवाः शका ।
एतेह्यपि गणा पच्च हैहयार्थे पराक्रमन् ।।
- हरि 1.13.14
जब यवन, कम्बोज स्थान वाची है तो अतियोक व अलक सुंदर भी स्थान के नाम है।
ये सब स्थान के नाम है इसकी पुष्टि ब्रह्माण्ड पुराण के 1/2/16/46-56 तक के श्लोक से होती है। जिन्हें चित्र में भी अंकित किया है। 

इनमें यवन, काल अतोयक (अतियोंक) कंबोज, पंड्या, केरल, चोल आदि नाम स्थान वाची देखे जा सकते हैं। अतः ये नाम राजाओं के न होकर स्थानो के ही है। अतोयक नामक स्थान को न समझकर उससे एंटियोकस राजा लेना पूरी तरह से अशुद्ध है अतः अशोक के काल को एंटियोकस के आधार पर तय करना बिल्कुल अनुचित है।
हमें आवश्यकता है कि हम अपने इतिहास को भारतीय साहित्य संदर्भों के आधार पर बडी सावधानी पूर्वक शुद्ध करने का प्रयास करें।
ये सब स्थानो या राज्यों के नाम है ये रहस्य अकेले शिलालेखों से कभी नही खुल सकता है अतः शिलालेखों, पुरातत्व के साथ साथ भारतीय ग्रंथ(हिंदू, जेन, बौद्ध, नाटक आदि) का भी सावधानी पूर्वक अध्ययन अपेक्षित है अतः अशोक को केवल ईसापूर्व 300 में न समेटकर ईसापूर्व 1100 के आसपास मानना चाहिए।