Wednesday, February 10, 2016

जामवन्त कोई भालू / रीछ नहीं थे, बल्कि वो मनुष्य थे,


जामवंत जी के पिता का नाम गदगदा था, और इनकी माता का नाम अभी तक तो मुझे खोजने पर नहीं मिला है, परन्तु जल्दी ही आप सबके समक्ष जामवंत जी की माता का नाम भी खोज कर प्रस्तुत करूँगा। जो जामवंत जी के पिता जी का नाम ज्ञात होता है वह युद्ध काण्ड को ध्यानपूर्वक पढ़ने से प्राप्त हो जाता है, क्योंकि जब रावण अपने गुप्तचर शार्दूल को श्रीराम की सेना की गुप्त जानकारी प्राप्त करने का आदेश देता है, तब शार्दूल पूरी चतुरता से श्रीराम की सेना की सभी गुप्त जानकारिया रावण को उपलब्ध करवाता है, तब सेना नायको के बारे में भी बताता जाता है, तब वह कहता है की :
अथ ऋक्ष रजसः पुत्रो युधि राजन् सुदुर्जयः |
गद्गदस्य अथ पुत्रो अत्र जाम्बवान् इति विश्रुतः ||
(वाल्मीकि रामायण ६-३०-२०)
"निश्चित तौर पर राजा सुग्रीव, जो ऋक्षराज के पुत्र हैं उनके रहते युद्धक्षेत्र में विजय प्राप्त करना बेहद मुश्किल है, अर्थात सुग्रीव महाराज बहुत बड़े योद्धा है, और चतुर सेनापति भी, इसके साथ ही शार्दूल गुप्तचर रावण को बताता है की श्रीराम की सेना में गदगदा का पुत्र भी है जो जामवंत के नाम से विख्यात है।"
अतः यहाँ हमें उनके पिता का नाम ज्ञात हो गया की उनके पिता का नाम गदगदा था, अब भी यदि कोई भाई ऐसी शंका करे की, वो भालू / रीछ ही थे, तो जरा इस बात को ध्यानपूर्वक समझिए,
देखो ऋक्ष का अर्थ भालू के अतिरिक्त तारा (स्टार) तथा नक्षत्र भी होता है और एक अर्थ "संरक्षक" भी होता है, यही बात वाल्मीकि रामायण में "ऋक्षराज जामवंत" के लिए कही है, क्योंकि वो ऋक्ष थे, जैसे वानर प्रजाति मनुष्य होती है वैसे ही वानरों में "ऋक्ष" थे जामवंत यानी वानर प्रजाति के संरक्षक, इसलिए उन्हें ऋक्षराज कहा गया, क्योंकि उन्होंने सुग्रीव का संरक्षण बाली से किया था, इसलिए वो ऋक्षराज कहलाये। इसको दूसरे तरीके से भी समझिए, देखिये :
सुग्रीव जो एक वानर प्रजाति के मनुष्य ही थे, भले ही पौराणिक बंधू उन्हें वानर का अर्थ बंदर से लेते हो, मगर एक बात उन्हें माननी पड़ेगी की महाराज सुग्रीव के पिता जी का नाम भी ऋक्षराज था, जैसा की गुप्तचर शार्दूल ने रावण को गुप्त सुचना के तहत जानकारी दी, तो क्या पौराणिक बंधू अभी भी यही कहेंगे की ऋक्ष का अर्थ भालू तो यानी की सुग्रीव महाराज एक वानर (बन्दर) और उनके पिता एक ऋक्ष (भालू), क्या ये तर्क अथवा कपोल कल्पना आपके मस्तिष्क के भीतर जगह बना सकती है ?
अतः यहाँ दो बाते सिद्ध होती हैं, पहली वानर ये कोई पशु से सम्बंधित नाम नहीं हैं, ये एक प्रजाति है, और ऋक्ष का अर्थ यहाँ संरक्षक ही मानना पड़ेगा, क्योंकि यहाँ ऋक्ष का अर्थ संरक्षक, एक प्रजाति के संरक्षण से है, इस राम रावण युद्ध में हनुमान जी के पिता जी ने भी अपनी वानर सेना श्रीराम की सहायता हेतु भेजी थी, क्योंकि वे भी वानर प्रजाति से ही थे, और इस युद्ध में सुग्रीव की सहायता करना उनका धर्म भी था, और श्रीराम के प्रति उनका श्रद्धाभाव भी।
क्या कोई बन्दर एक मनुष्य की सहायता हेतु अपनी बन्दर सेना को भेजने का विचार सोच सकता है ? नहीं, ये कार्य नीतिनिपुण, बुद्धिमान और श्रेष्ठ आचरण वाले मनुष्य के हो सकते हैं किसी पशु के नहीं।
एक बात और, तिब्बत के राजा इंद्र की सहायता भी एक बार जामवंत जी ने की थी, तब वे युवा अवस्था में थे, लेकिन जब माता सीता को लंका पार खोजने का विषय रामायण में आता है तब ये ज्ञात होता है की जामवंत जी उस समय वृद्धावस्था में थे, क्योंकि उन्होंने स्वयं हनुमान जी से कहा था :
"मैं अब युवा तो नहीं रहा, वह युवाशक्ति जो इन्द्र (तिब्बत का राजा) को युद्ध में सहायता प्रदान की थी, यदि मैं युवा होता तो ये समुद्र पार कर लंका जाकर वापस आ जाता, लेकिन अभी में वृद्ध हो गया हु, सागर पार कर लंका जाने की क्षमता तो मुझमे है, मगर वापस आने में सक्षम नहीं, अतः हे हनुमान, तुम लंका पार करके जाओ और सीता माता का स्थान ज्ञात करो"
अतः यहाँ जब वो वृद्ध अवस्था में थे तब भी उन्होंने सुग्रीव की बाली से रक्षा हेतु एक प्रण किया था, इसलिए भी उन्हें ऋक्ष अर्थात वानर प्रजाति के संरक्षक कहा गया, क्योंकि उन्होंने सुग्रीव का संरक्षण बाली से किया था, इसलिए वो ऋक्षराज कहलाये।
फिर भी यदि जिद्द और पूर्वाग्रह ही रखो तो जरा इस पर विचार करो :
यदि वो रीछ ही थे, तो जो एक पुराण कहता है की ऋक्षराज जामवंत ने अपनी पुत्री जाम्वन्ति का विवाह कृष्ण से किया, हालांकि ये कथा प्रक्षेप है, तथापि क्या भालू की बेटी का विवाह कृष्ण (मनुष्य) से संभव है ?
ये इसलिए भी अहम है क्योंकि वो पुराण की कथा बताती है की कृष्ण और जाम्वन्ति के मिलन से एक पुत्र भी उतपन्न हुआ, जो बलशाली था, और उसने महाभारत युद्ध में भूमिका भी निभाई, अब क्या भूमिका निभाई, ये तो कुछ ज्ञात अभी तक नहीं हो पाया है, क्योंकि जहाँ तक मैं जानता हु, कृष्ण का केवल एक विवाह हुआ, और उनका केवल एक पुत्र था "प्रद्युम्न" वो भी बारह वर्षो की अखंडित ब्रह्मचर्य प्रतिज्ञा उपरांत उत्पन्न हुआ।
अतः उपरोक्त लेख से पूरी तरह ये कपोल कल्पना खंडित हो जाती है की ऋक्षराज जामवंत इसलिए भालू कहे जाए क्योंकि वो ऋक्ष थे, ये निराधार तथ्य साबित हुआ, यदि फिर भी ऋक्ष होने से जामवंत को भालू संज्ञा देते हो, तो जो सुग्रीव महाराज के पिता का नाम ऋक्षराज ही था, तो उन्हें भी भालू मानो, और उन भालू पिता की संतान एक वानर (बन्दर) सुग्रीव उत्पन्न कैसे हुआ ये सिद्ध करिये। वैसे आप सभी जिन्होंने भी वाल्मीकि रामायण को ध्यान से पढ़ा है, तो जान लेवे की इसी रामायण में अनेको स्थान पर जामवंत जी को वानर शब्द से ही सम्बोधन किया है। अतः हठ, द्वेष, पूर्वाग्रही और दुराग्रही मानसिकता को त्याग कर, सत्यान्वेषी होकर, सत्य को ग्रहण करे और असत्य का त्याग करे।
हम सबको अपने उन महापुरुषों का सम्मान करना चाहिए, और उन महान पूर्वजो को उनके शौर्य और महान कार्यो के प्रति श्रद्धा और आदर भाव से सदैव स्मरण करना चाहिए, न की उन्हें पशुतुल्य बताकर जग हंसाई करवाने का माध्यम बनाना चाहिए।
आइये लौटिए वेदो की और।
नोट : अभी इनकी वंशावली पर खोज चल रही है, कुछ दिन प्रतीक्षा करे, इनकी वंशावली भी सप्रमाण उपलब्ध करवाऊंगा।
नमस्ते
साभार - रजनीश बंसल जी 

Friday, January 22, 2016

क्या राम नाम से पत्थर तैरने लगे थे ?


आज भी लोगो में यह भ्रम है कि रामसेतु बनाते समय हनुमान जी ने पत्थरों पर राम लिखा था जिससे पत्थर समुद्र पर तैरने लगे थे | टीवी पर आई रामायण में भी राम नाम लिख पत्थर तैराने लगे थे | रामसेतु का विज्ञान इस चमत्कार की कथा के पीछे छिप सा गया | रामसेतु का दृष्टांत हमारे पूर्वजो के महान शिल्पविज्ञान , वास्तु शास्त्र , और यांत्रिक विज्ञान का प्रकाश कराता है लेकिन झूटे चमत्कारिक वर्णन से जन सामान्य इनसे विमुख हो गया | हालाकि आज कई लोग यह बात मान चुके है कि वो पत्थर अंदर से पोला होने के कारण तैरने लगा था | तथापि कई जगह अभी तक यह भ्रम है | एक गाना भी चला था पत्थर भी तैरने लगे थे बड़ी महिमा राम नाम की " आदि ऐसे गाने ,सीरियल अंधविश्वास को बढ़ावा देने वाले और रामायण ,महाभारत को मात्र काल्पनिक कथा सिद्ध करने वाले है इनके प्रभाव से बच हमे यथायोग्य प्रक्षेप ज्ञान कर वाल्मिक रामायण का स्वाध्याय करना चाहिए ताकि इस तरह के भ्रम हटे |
क्या राम नाम से पत्थर तेरे थे इसे जानने के लिए हमने वाल्मिक रामायण ,तुलसी रामचरित्रमानस का अध्ययन करा लेकिन इन दोनों ग्रंथो में राम नाम लिख पत्थर तैराने वाली बात नही थी | हालाकि तुलसी कृत मानस के निम्न चौपाये श्री राम जी के चमत्कारिक शक्तियों का उलेख तो करती है लेकिन इसमें भी राम नाम पत्थर तैरने लगे थे ऐसा कुछ नही है | इसमें राम जी की चमत्कारिकता का वर्णन का कारण उस समय मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम को ईश्वर अवतार मानना था इसलिए अवतारवाद के कारण तुलसी दास जी ने इसे इस तरह वर्णन करा जिससे राम जी विष्णु के अवतार है इस बात को और बल मिले | तुलसी निम्न चौपायो से यह वर्णन करते है -


बाँधा सेतु नील नल नागर। राम कृपाँ जसु भयउ उजागर॥

बूड़हिं आनहि बोरहिं जेई। भए उपल बोहित सम तेई॥4

भावार्थ:- चतुर नल और नील ने सेतु बाँधा। श्री रामजी की कृपा से उनका यह (उज्ज्वलयश सर्वत्र फैल गया। जो पत्थर आप डूबते हैं और दूसरों को डुबा देते हैंवे ही जहाज के समान (स्वयं तैरने वाले और दूसरों को पार ले जाने वालेहो गए॥4

महिमा यह न जलधि कइ बरनी। पाहन गुन न कपिन्ह कइ करनी॥5

भावार्थ:- यह न तो समुद्र की महिमा वर्णन की गई हैन पत्थरों का गुण है और न वानरों की ही कोई करामात है॥5

दोहा :
श्री रघुबीर प्रताप ते सिंधु तरे पाषान।
ते मतिमंद जे राम तजि भजहिं जाइ प्रभु आन॥3

भावार्थ:- श्री रघुवीर के प्रताप से पत्थर भी समुद्र पर तैर गए। ऐसे श्री रामजी को छोड़कर जो किसी दूसरे स्वामी को जाकर भजते हैं वे (निश्चय हीमंदबुद्धि हैं॥3
तुलसी दास के इस वर्णन में श्री राम के चमत्कारिक रूप को दर्शाया अवश्य गया है | यह उस समय के अवतारवाद के प्रभाव के कारण था ,लेकिन इसमें भी राम नाम से पत्थर तैराने के वर्णन नही है | तुलसी ने अवतारवाद के कारण यह कल्पना वाल्मिक मुनि से पृथक करी | अब हम वाल्मिक रामायण के वर्णन से पुल बाँधने का विज्ञानं जानेंगे -                         
वाल्मिक रामायण का सेतु वर्णन पढने पर हमे उस काल के उन्नत विज्ञान और वास्तुशास्त्र का दर्शन होता है - इसे वाल्मिक रामायण के युद्ध काण्ड के २२ वे सर्ग में पढिये - 
ते नगान् नग सम्काशाः शाखा मृग गण ऋषभाः || २-२२-५३
बभन्जुर् वानरास् तत्र प्रचकर्षुः च सागरम् |
अर्थात वे वानर युयपति पर्वतशिखरों और वृक्षों को उखाड़ उखाड़ कर समुद्र तट पर ला ला कर ढेर लगाने लगे ||
ते सालैः च अश्व कर्णैः च धवैर् वंशैः च वानराः || २-२२-५४
कुटजैर् अर्जुनैस् तालैस् तिकलैस् तिमिशैर् अपि |
बिल्वकैः सप्तपर्णैश्च कर्णिकारैश्च पुष्पितैः || २-२२-५५
चूतैः च अशोक वृक्षैः च सागरम् समपूरयन् |
अर्थात -उन लोगो ने साखू ,अश्वकर्ण ,धब ,बांस ,कौरेया ,अर्जुन ,ताल ,तिलक ,तिमिश .बैल ,सप्तवर्णा ,फुले हुए कुनैर ,आम और अशोक के पदों से समुद्र को पाट दिया |
तालान् दाडिमगुल्मांश्च नारिकेलविभीतकान् || २-२२-५७
करीरान् बकुलान्निम्बान् समाजह्रुरितस्ततः |
अर्थात - वे ताड़ ,अनार ,नारियल ,कत्था ,बेहडा ,मोलसिटी ,खदिर और नीम के पेड़ो को इधर उधर से लाकर वहा डालने लगे | 
हस्तिमात्रान् महाकायाः पाषाणांश्च महाबलाः || २-२२-५८
पर्वतांश्च समुत्पाट्य यन्त्रैः परिवहन्ति च |
अर्थात - हाथी के समान ,शक्तिशाली , दीर्घकाय यंत्र से  बड़े बड़े पर्वतों से पत्थरों को को  उखाड़ कर वहा पहुचाने लगे | 
प्रक्षिप्यमाणैर् अचलैः सहसा जलम् उद्धतम् || २-२२-५९
समुत्पतितम् आकाशम् अपासर्पत् ततस् ततः |
अर्थात -उन पत्थरों के बड़े बड़े टुकड़े को जल में डालने पर जल आकाश की तरफ उछलता और फिर नीचे गिर जाता |
समुद्रम् क्षोभयामासुर्निपतन्तः समन्ततः || २-२२-६०
सूत्राण्यन्ये प्रगृह्णन्ति ह्यायतम् शतयोजनम् |
अर्थात - इस प्रकार चारो तरफ से पत्थर ,लकड़ी गिरा गिरा कर वानरों ने समुद्र जल को खलबला दिया ,वहा कितने ही वानर १०० योजन लम्बे सूत से पुल की सिधाई को ठीक करते थे |
नलः चक्रे महासेतुम् मध्ये नद नदी पतेः || २-२२-६१
स तदा क्रियते सेतुर्वानरै र्घोरकर्मभिः |
अर्थात -इस प्रकार नल के घोरकरमा वानरों की साहयता से समुद्र के ऊपर पुल बाँधा गया | 

यहा स्पष्ट देखा जा सकता है कि कही भी राम नाम लिख पत्थर तैराने का उलेख नही है ,बल्कि वास्तुशास्त्र और यंत्रो की मदद से पुल बनाने का उलेख मिलता है | श्लोक ५८ में स्पष्ट यंत्र का उलेख है यह यंत्र पत्थरों को उखाड़ने और लाने ले जाने का कार्य कर रहा है जो कि आज की जेसीबी मशीन जेसा लगता है अर्थात उस काल में ऋषियों ने इतने बड़े यंत्रो का आविष्कार कर लिया था जो पर्वतों से पत्थर उखाड़ ले जाने का कार्य करते थे | इससे हमे उस काल के विज्ञान मशीन तकनीक के दर्शन होते है | श्लोक ६० में लिखा है की सूत से नाप पुल की सिधाई करते थे | इस श्लोक से स्पष्ट पता चल रहा है कि पुल को वास्तु विज्ञान और ज्यामितीय गणित के अनुसार नाप कर बनाया गया था | अर्थात उस काल के ज्यामितीय गणित और आर्क्तेचरिग की उन्नत विद्या का वर्णन मिलता है | इन दोनों और अन्य श्लोको से स्पष्ट है कि नल नील ने पुल का निर्माण उच्च वास्तु विज्ञानं और तकनीकी यंत्रो से करा था | नल नील दोनों बड़े आर्क्तेचर (वास्तुशास्त्री ) थे | 
यहा हमने देखा कि किस तरह राम नाम के झूटे प्रपंच रूपी कहानी ने भारत के बड़े वास्तु विज्ञान और यंत्र विज्ञानं के रहस्य पर पर्दा सा डाल दिया था | लेकिन यह कहानी आखिर चली कहा से इस प्रश्न का उत्तर खोजने पर जब विभिन्न राज्यों की विभिन्न राम कथाओं में से जब तेलगु की रंगनाथ रामायण को देखा तो उसमे सेतु सम्बन्धी दो निम्न बाते मिली -
(१) पहले प्रसंग के अनुसार सेतु निर्माण में एक गिलहरी का जोड़ा भी योगदान दे रहा था। यह रेत के दाने लाकर पुल बनाने वाले स्थान पर डाल रहा था। इस ग्लेहरी पर श्री राम जी ने हाथ फैर दिया तबसे गिलहरियों के शरीर पर धारिया बन गयी |
(२) दुसरे प्रसंग अनुसार जब राम-राम लिखने पर पत्थर तैर तो रहे थे परंतु इधर-उधर बह रहे थे। इनको जोड़ने हेतु हनुमानजी ने एक एक पत्थर पर "रा" तो दूसरे पर "म" लिखा। इससे पत्थर जुड़ने लगे व सेतु का काम आसान हो गया।
इस रंगनाथ रामायण के उलेख से पता चलता है कि इस तेलगु रामायण ने राम नाम लिख पत्थर को नदी में डालने की कल्पना करी जो कि वाल्मिक और तुलसी दोनों के विरुद्ध थी ,इसी कल्पना को गानों और टीवी प्रोग्रामो में लिया गया| इससे यह भ्रम लोगो में फैला की राम नाम के चमत्कार से पत्थर तैरने लगे थे | और सेतु के पीछे के विज्ञानं ,सेतु बनाने में पोल पत्थरों के आलावा लकड़ी ,वृक्षों का उपयोग ,सेतु को नाप कर बनाना आदि रहस्य की बातो से जनसामान्य वंचित रह गया | हमे किसी भी बात पर विशवास करने से पूर्व उसका तथ्यात्मक अध्धयन कर सत्य जानना चाहिए ताकि अंधविश्वास और चमत्कार की आड़ में प्राचीन विज्ञानं न छिप जाए | 
पुरे लेख के प्रमाणों से सिद्ध है कि राम नाम से पत्थर तैरने की कल्पना तेलगु रामायण से चली है तुलसी और ऋषि वाल्मिक की रामायण इस कल्पना का कोई समर्थन नही करती है | सेतु का निर्माण भारत का उच्च ज्यामिती ,यांत्रिक ,वास्तु विज्ञान दर्शाता है |  

Saturday, January 16, 2016

पूर्वकाल में ब्रह्मचर्य भंग का प्रायश्चित


पूर्व काल में विद्यार्थी जीवन में ब्रह्मचर्य का बड़ा महत्व हुआ करता था | अपने अध्ययन काल तक विद्यार्थी ब्रह्मचर्य करते थे | जो १२ से ४८ वर्ष तक होता था | जिसके प्रमाण
" षटत्रिशदाब्दिक चर्य्य गुरौ त्रवैदिक व्रतं | 
तदर्धिक पादिक वा ग्रहणान्तिकमेव वा || -मनु 
और छान्दोग्योपनिषद् आदि है |
तथापि इतने कठोर नियम और गुरु की देख रेख के बावजूद भी उस समय कई बालक काम के वशीभूत हो ब्रह्मचर्य भंग कर देते थे ,हालकी उस समय ऐसे बालको की संख्या कम ही थी या नगण्य ही थी लेकिन आज कल विद्यार्थी जीवन में मर्यादा से पालन करने वाले छात्र और छात्रा नगण्य मात्र ही है अधिकाँश छात्र छात्रा पाश्चात्य संस्क्रती से आये गर्ल फ्रेंड र बॉय फ्रेंड के फेशन में ब्रह्मचर्य का काफी पहले ही नाश कर लेते है | इनमे अधिकाँश बाते पता चल जाती है लेकिन उनको रोकने वाला कोई नही होता न ही कोई दंड देने वाला होता है | कई जगह तो परिवार जन भी आपसी साथ देते नजर आते है | लेकिन पूराकल्प में जब किसी विद्यार्थी द्वारा विवाह पूर्व ब्रह्मचर्य नाश कर लिया जाता था तो उसे ऐसा प्रायश्चित करने का विधान था जो वह हमेशा याद रख आगे ब्रह्मचर्य नाश को सोच भी नही सकता था | यह प्रायश्चित उसे उसकी भूल की याद के साथ साथ उसका अपमान भी करवाता था | इस प्रायश्चित विधि को पारस्कर ग्रहसूत्र की १२ कंडिका में अवकीर्णीप्रायश्चित नाम से कहा गया है | यह विधि कुछ प्रक्षेप सहित कात्यायन श्रोत सूत्र १/१/१३-१७ में है |
यहा ब्रह्मचर्य भंग में दंड अथवा प्रायश्चित स्वरूप पारस्कर मुनि द्वारा दी गयी विधि का वर्णन करते है -
" १ अथातोsवकीर्णीप्रायश्चितम || - पारस्कर ३/१२/१ 
अर्थ - अब यहा से ब्रह्मचर्य भंग किये ब्रह्मचारी के प्रायश्चित का उलेख करते है |
२ - अमावस्याया चतुष्पथे गर्दभ पशुमालभते - ३/१२/२ 
अर्थ - अमावस्या के दिन चौराहे पर पतित व्यक्ति गधे नामक पशु का स्पर्श करे |
यहा आलभते का अर्थ स्पर्श लेना वेद और पाणिनि व्याकरण अनुसार सही ही है | कुछ लोग यहा मारना अर्थ लेते है जबकि ग्रहसूत्रों में उपनयन में हृदयमालभते आदि शब्दों से स्पर्श अर्थ ही लिया गया है हिंसा नही | 
गधे को स्पर्श का कारण यही है कि गधे को मुर्खता का प्रतीक माना है .लोक में भी देखा जाता है कि किसी चोर ,व्यभिचारी का अपमान उसका मुह काला कर गधे पर सवारी निकाल करते है | उस समय पतित व्यक्ति गधे का स्पर्श कर दिखाता है कि मैंने अपनी मुर्खता से अपने व्रत को भंग कर लिया |
३ निऋति पाकयज्ञेन यजेत - ३/१२/३ 
पाक यज्ञ से वह निऋति देवता के निमित यज्ञ करे |
पाक यज्ञ इसलिए कि ब्रह्मचर्य भंग व्यक्ति श्रोत यज्ञ नही कर सकता है |
४ अप्स्ववदानहोम : -३/१२/४ 
ब्रह्मचर्य व्रत भंग के प्रायश्चितार्थ पुरोडॉश को जल में छोड़ देवे |
५ भुमो पशुपुरोडाशश्रपणम - ३/१२/५ 
पशु सम्बन्धित पुरोडाश का पकाना भूमि पर करे |
(पुरोडोश - जौ .धान आदि )
६ - ता छवि परिदधीत -३/१२/६ 
उस गधे के समान आचरण को धारण करे ,अर्थात सादा जीवन ,कम खा कर अधिक परिश्रम ,भूमि पर सोना आदि |
कुछ लोग यहा गधे को मार उसकी छाल पहन सोने का अनर्थ करते है जबकि यह अर्थ वेद विरुद्ध है और न ही पूर्व प्रकरण में गधे को मारना लिखा है | व्यास जी के इन वचनों से भी हमारे अर्थ की पुष्टि होती है - 
" आपदा कथित: पन्था इन्द्रियाणामसंयम: |
तज्ज्य: सम्पदा मार्गो येनेष्ट तेन गम्यताम || - महाभारत 
अर्थात इन्द्रियों पर संयम न रखना ,आपदा तथा इन्द्रियजय सम्पति का मार्ग है ,जिससे चाहे चलो ,जो इन्द्रिय संयम न रख पाए वे गधे की भाति जीवन बिताये ,कम खाए ,ज्यादा करे ,दिन में न सोये |
आदि प्रमाणों से गधे के समान जीवन जीना ही अर्थ अभीष्ट प्रतीत होता है |
७ - " उर्ध्वबालामित्येके - ३/१२/७ 
कुछ आचार्यो के अनुसार यह आचरण ऐसा हो कि पतित व्यक्ति का परिधान भी गधे के शरीर के समान धुल भरा हो अर्थात उसे पहनने को नये साफ़ कपड़े न दिए जाए वह पुराने वस्त्रो में ही गुजारा करे |
८ - सम्वत्सर भिक्षाचर्य चरेत्स्वकर्म परीकीर्तयन -३/१२/८ 
अर्थ - एक वर्ष तक अपने ब्रह्मचर्य भंगरूपी कर्म को प्रकट करते हुए भिक्षा मांगकर खाए |
९ - अथापरमाज्याहुती जुहोति | कामावकीर्णीsस्म्यवकी रणोंsस्म कामकामाय स्वाहा | कामाभिद्रुगधोस्स्यमभिदृग्धोsस्मि कामकामाय स्वाहेति ||- ३/१२/९ 
अर्थ - स्वकर्म बताने के अतिरिक्त इन डॉ वाक्यों को बोल आज्याआहुति दे- 
है काम ! मै पतित हु ,पतित हु ,काम की कामना की आहुति देता हु | है ईश्वर मै शास्त्र द्रोही हु .शास्त्र द्रोही हु | मै काम की इच्छा को मन से दूर करने का संकल्प लेता हु | 
१० -" अथोपतिष्ठे - स मा सिंच्न्तु मरुत: समिन्द्र: सबृहस्पति:| स मायग्नि: सिंच्न्तु प्रजया च धनेन चेति - ३/१२/१० 
पुन स मा मन्त्र बोलकर उपस्थान करता हुआ जाप करे |
मंत्रार्थ - विद्वान् गण मुझे ज्ञान से सीचे .ऐश्वर्यवां भी मुझे ब्रह्मचर्य की शिक्षा दे | मुझे ऐसा उत्तम आचार मार्ग बताये जिससे मै ब्रह्मचर्य पालन कर उत्तम सन्तान प्राप्त करने वाला होऊ |
११ - एतदेव प्रायश्चितम - ३/१२/११ 
यही ब्रह्मचर्य भंग करने वाले का प्रायश्चित है |
................................................ इति पारस्कर ग्रहसूत्र अवकीर्णीप्रायश्चित विधान समाप्त .............................................................................................................................................................................. 
यहा स्पष्ट पता चलता है कि पूर्व काल में ब्रह्मचर्य का बड़ा महत्व था अनजाने में ब्रह्मचर्य पतित होना बड़ा दोष माना जाता था | पजिसका इस तरह का प्रायश्चित था| प्रायशिच्त का अर्थ है तप कर यह संकल्प लेना कि जो हमने गलती पूर्व में करी है वो आगे नही करेंगे | इसमें किये गये कर्मकाण्ड इस निमित है ताकि व्यक्ति को वह हमेशा याद रहे और आगे गलती करने की भूल न करे | 
" प्रायो नाम तप: प्रोक्त चित निश्चय उच्यते | 
तपो निश्चययुग्वृत प्रायश्चितमितीरितं ||
आज भले ही यह सब लुप्त हो गया हो मेकाले शिक्षा प्रभाव और सहशिक्षा पद्धति में छात्रो के बीच ब्रह्मचर्य का महत्व और पालन समाप्त हो गया हो लेकिन तथापि हमे अपनी पुरानी परम्पराओं को नही भूलना चाहिए | उन्हें पुन स्थापित करने का प्रयास करना चाहिए |