Saturday, March 29, 2014

क्या महात्मा बुध्द वैदिक यज्ञ विरोधी थे ?

मित्रो नमस्ते हमारे इसी पेज पर हमने बुध्द से सम्बन्धित कुछ पोस्ट की थी जैसे-
बुध्द ओर वैदिक वर्णव्यवस्था     
 बुध्द ओर वेद 
 बुध्द ओर मासाहार     
 गौतम बुद्ध ने गायों के महत्व और उपयोगिता की शिक्षा दी   
अब इसी कडी मे है महात्मा बुध्द क्या वैदिक यज्ञ विरोधी थे। हम ये पहले सिध्द कर चुके है कि भगवान बुध्द वेद विरोधी नही थे बल्कि वेदो का नाम ले कर हिंसा,पशु बलि देने वालो के विरोधी थे उन्होने जन्मजात वर्ण व्यवस्था ओर यज्ञ मे जीव हत्या का विरोध किया जिसकी उन्हे इतनी बडी कीमत चुकानी पडी कि उस समय के धर्म के ठेकेदारो ने नास्तिक घोषित कर दिया। आज भी कई नास्तिक वादी,अम्बेडकर वादी इसी बात का फ़ायदा उठाकर सनातन धर्म का अपमान कर रहे है।
कई लोगो का मानना है कि बुध्द यज्ञ के घौर विरोधी थे। लेकिन वास्तव मे ऐसा नही है। बुध्द ने अपने चार सत्य ओर आठ अष्टांगिक मार्गो के साथ वैदिक शब्द आर्य का प्रयोग किया है। ओर आर्यो के बतलाए मार्ग पर चलने का उपदेश दिया है । जिस की पुष्टि धम्मपद के इस वाक्य से होती है-
       बुध्द ने आर्य का अर्थ वैदो की तरह श्रेष्ट लिया है।   अब आते है बुध्द के यज्ञ विरोध पर तो आप लोग कुटद्न्त सुत्त को देखे इस मे एक कुटदन्त नाम का एक ब्राह्मण यज्ञ करने के उद्देश्य से महात्मा बुध्द के पास जाता है। इस पर महात्मा बुध्द उसे अपने पूर्व जन्म की एक कथा सुनाते है जिसमे बुध्द ने पुरोहित बनकर महाविजित नाम के एक राजा का यज्ञ किया था। साथ मे बुध्द ने यज्ञ करने वाले पुरोहित के चार गुण बताए -सुजात,त्रेवैद्य(वेद विद्या मे निपुण),शीलवान ओर मैधावी, हो उसी से यज्ञ कार्य करवाने चाहिए।
 साथ ही बुध्द ने यज्ञ मे पशु हत्या न करने को कहा ओर कहा कि प्राचिन काल मे यज्ञ मे पशु हत्या नही होती थी।बल्कि घी,तेल,मख्खन,दही,अनाज,मधु,खांड से यज्ञ होते थे।
 साथ ही यज्ञ समबन्धित अन्य अनुशासन के बारे मे बताया।   
 यहा बुध्द का कथन बिल्कुल सत्य है कि बाद मे लालची ब्राह्मणो ने यज्ञ मे बलि प्रथा जैसी कुप्रथा को जोडा था। जिसके लिए बुध्द ने सुत्त निपात 300 मे ब्राह्मणो का लालची हो जाने के बारे मे कहा है। 
बुध्द की इस बात की पुष्टि चरक के इस कथन से होती है-
 इस से स्पष्ट होता है कि प्राचिन काल मे पशु बलि नही होती थी लैकिन बाद मे पुरोहितो मे लालच आ गया था।
 इस के अलावा बुध्द ने  सुत्तनिपात 569 मे यज्ञो मे अग्निहोत्र को मुख्य कहा है जो इस तरह है 
 अर्थात छंदो मे सावित्री छंद(गायत्री छंद ) मुख्य है ओर यज्ञो मे अग्निहोत्र ।  अत: निम्न बातो से निष्कर्ष निकलता है कि बुध्द वास्तव मे यज्ञ विरोधी नही थे बल्कि यज्ञ मे जीव हत्या करने वाले के विरोधी थे।      
जय मा भारती   
ओम

Thursday, March 27, 2014

धर्म-परायण महावीर गोकुला जाट की शौर्यगाथा

ये लेख लवी भारद्वाज जी के ब्लोग से लिया गया है इसे यहा मै दुबारा पोस्ट कर रहा हु।मूल लेख यहा देखे(गोकुला जाट)
 धर्म का मर्म समझने और संरक्षण करने वाले क्षत्रियों का तो अब घोर अकाल प्रतीत होता हैआर्यभूमि की इस महान क्षत्रिय परम्परा कोजिसके शौर्य के आगे आर्य भूमि के अंदर कोई घुसने का साहस न करता था आज उसके घर के अंदर घुस कर विधर्मी न जाने क्या क्या कर डालते हैं ?
क्यूंकि जिस क्षत्रिय परम्परा के शौर्य और वीरता से पूरा विश्व थर थर काँपता था,जिसकी कीर्ति दोपहर के सूर्य के सामान तीव्रतम तेज थीउसी क्षत्रिय वंश को दंतहीन करने का कार्य कभी अशोक जैसे धर्म-बदलू वर्ण-संकर ने किया तो कभी मुसलमानों ने और फिर अंग्रेजों नेवर्तमान में उसे नेहरूवादी हिंदुत्व के ठेकेदार आगे बढ़ा रहे हैं l

पृथ्वीराज चौहान
महाराज शिवाजीमहाराणा प्रताप की शूरवीरता से तो आप सब परिचित ही हैं परन्तु इनके अलावा और ऐसे असंख्य महावीर शूरवीर हैंजिन्होंने सनातन धर्म की रक्षार्थ अपने शौर्य और पराक्रम से जन जन को प्रेरित किये रखाजिनके बारे में हमे पढ़ाया नही गया l           ऐसे ही एक महान शूरवीर गोकुल सिंह जिसे इतिहासकार गोकुला’ महान के नाम से परिचित करवाते हैंआज उनकी शूरवीरता से आपको परिचित करवा रहा हूँ l
 आगे आपको निम्नलिखित शूरवीरों के जीवन से भी परिचित करवाऊंगा:

मगध का पुष्यमित्र शुंग जिसने पुन: वैदिक धर्म की स्थापना की
,
स्कन्दगुप्त और समुद्रगुप्त जिन्होंने वैदिक धर्म की स्थापना के साथ साथ इस ऋषि भूमि आर्यावर्त को स्वर्ण-देश बनाया
,
गौड़ प्रदेश का शशांक शेखर जिसने एक ही रात में भारत भूमि से वेद-विरोधी सम्प्रदायों को भगाया तथा लाखों हिन्दुओं की पुन: शुद्धि की
,
दक्षिण के राष्ट्रकूट हों जिन्होंने वैदिक धर्म की कीर्ति चीन तक पहुंचाई
,
गुर्जरात (गुजरात) के गुर्जर प्रतिहार राजा जिन्होंने गजनवी को कई बार भगाया 
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राजा भोज जिन्होंने महमूद गजनवी को कई बार भागने पर मजबूर किया 
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विजयनगर के हुक्का बुक्का और उसके वंशज महाराजा कृष्ण देव राय जिन्हें त्रिस्मुद्राधिपति की उपाधि दी गई और उनके राज्य में कोई मुस्लमान कभी घुस न पाया 
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उड़ीसा का कपिलेन्द्र जिसने उडीसा से मुसलमान काटने आरम्भ किये तो हिमाचल प्रदेश के कांगड़ा तक दौड़ा दौड़ा कर काटे 
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राजपूतों की आन बाप्पा रावल जिन्होंने बग़दाद तक जाकर मुसलमानों में कोहराम मचाया
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अफगानिस्तान के जाबुल राज्य के भीमपाल
अनंगपालत्रिलोचनपाल का शौर्य जिन्होंने लगभग 300 वर्षों तक अरबों को भारत से रोके रखा l
राणा सांगा
राणा कुम्भा का शौर्य l
दिल्ली का आखिरी हिन्दू सम्राट हेमचन्द्र विक्रमादित्य जिसने 52 युद्ध लगतार जीते 
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वीर छत्रसाल जिसने आततायी औरंगजेब का वध किया 
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असम (असोम) का लचित बड़फुकन जिसके नाम से आज भी असम का बच्चा बच्चा प्रेरणा लेता है
जिसने ज्वर से पीड़ित गर्म शरीर में भी औरंगजेब की सेनाओं को नाकों चने चबवाए l
वीर दुर्गादास राठोड जिन्होंने औरंगजेब के आगे हार न मानी l
छत्रपति संभाजी जिनके 108 टुकड़े औरंगजेब ने करवाए और नदी के दोनों किनारों पर फेंकवा दिए
परन्तु उस धर्म-परायण संभाजी ने इस्लाम स्वीकार न किया l
मराठा पेशवा बाजीराव जिसके अंग्रेज और मुस्लमान दोनों जी नतमस्तक हुए 
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भारत का नेपोलियन कहे जाने वाले महान मराठा राजराजेश्वर श्री यशवंतराव होल्कर जिन्होंने अंग्रेजों के विरुद्ध अभियान छेड़ापरन्तु उस समय के सिख राजाओं ने अंग्रेजों के साथ सन्धि की और अंग्रेजों के धन तथा सेना की सहायता दीजिसमे लाहोर के सिख राजा रंजीत सिंघकपूरथला के सिख राजा फतेह सिंघपटियाला का सिख राजा रणधीर सिंघ और जस्सा सिंह भी शामिल थेइतिहासकार मानते हैं कि यदि यह विश्वासघात और देशद्रोह सिख राजाओं द्वारा यशवंतराव होल्कर के साथ न किया गया होता तो संभवत: अंग्रेजों को 1857 के विद्रोह से पूर्व ही भारत की पवित्र भूमि से खदेड़ दिया गया होता l

तो आज प्रस्तुत है सबसे पहले मथुरा बृज प्रदेश के धर्मपरायण महावीर गोकुला की शौर्यगाथा 
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गोकुल सिंह अथवा गोकुला सिनसिनी गाँव का सरदार था । 

10 मई 1666 को जाटों व औरंगजेब की सेना में तिलपत में लड़ाई हुई। लड़ाई में जाटों की विजय हुई। मुगल शासन ने इस्लाम धर्म को बढावा दिया और किसानों पर कर बढ़ा दिया। गोकुला ने किसानों को संगठित किया और कर जमा करने से मना कर दिया। औरंगजेब ने बहुत शक्तिशाली सेना भेजी। गोकुला को बंदी बना लिया गया और 1जनवरी 1670 को आगरा के किले पर जनता को आतंकित करने के लिये टुकडे़-टुकड़े कर मारा गया। गोकुला के बलिदान ने मुगल शासन के खातमें की शुरुआत की।

मुगल साम्राज्य के विरोध में विद्रोह
मुगल साम्राज्य के राजपूत सेवक भी अन्दर ही अन्दर असंतुष्ट होने लगे परन्तु जैसा कि "दलपत विलास" के लेखक दलपत सिंह  और सम्पादक: डा. दशरथ शर्मा ने स्पष्ट कहा हैराजपूत नेतागण मुगल शासन के विरुद्ध विद्रोह करने की हिम्मत न कर सके । असहिष्णुधार्मिकनीति के विरुद्ध विद्रोह का बीड़ा उठाने का श्रेय उत्तर प्रदेश के कुछ जाट नेताओं और जमींदारों को प्राप्त हुआ । आगरामथुराअलीगढ़इसमें अग्रणी रहे । शाहजहाँ के अन्तिम वर्षों में उत्तराधिकार युद्ध के समय जाट नेता वीर नंदराम ने शोषण करने वाली धार्मिक नीति के विरोध में लगान देने से इंकार कर दिया और विद्रोह का झंडा फहराया  तत्पश्चात वीर नंदराम का स्थान उदयसिंह तथा गोकुलसिंह ने ग्रहण कियाl

इतिहास के इस तथ्य को स्वीकार करना पड़ेगा की राठौर वीर दुर्गादास के पहले ही उत्तर प्रदेश के जाट वीरों को कट्टरपंथी मुग़ल सम्राटों की असहिष्णु नीतियों का पूर्वाभास हो चुका था । गोकुल सिंह मथुरावृन्दावनगोवर्धन तथा हिंडौन और महावन की समस्त हिंदू जनता के नेता थे तिलपत की गढ़ी उसका केन्द्र थी । जब कोई भी मुग़ल सेनापति उसे परास्त नहीं कर सका तो अंत में सम्राट औरंगजेब को स्वयं एक विशाल सेना लेकर जन-आक्रोश का दमन करना पड़ा ।
आज मथुरावृन्दावन के मन्दिर और भारतीय संस्कृति की रक्षा का तथा तात्कालिक शोषणअत्याचार और राजकीय मनमानी की दिशा मोड़ने का यदि किसी को श्रेय है तो वह केवल 'गोकुलसिंहको है ।

इस बात की चेतना कम ही लोगों को होगी कि वीरवर गोकुलसिंह का बलिदान तेगबहादुर से ६ वर्ष पूर्व हुआ था । दिसम्बर १६७५ में तेगबहादुर का वध कराया गया था - दिल्ली की मुग़ल कोतवाली के चबूतरे पर जहाँ आज गुरुद्वारा शीशगंज गुरुद्वारा स्थित है ।

दूसरी ओरजब हम उस महापुरुष की ओर दृष्टि डालते हैं जो तेगबहादुर से ६ वर्ष पूर्व शहीद हुआ था और उन्ही मूल्यों की रक्षार्थ शहीद हुआ थाऔर जिसको दिल्ली की कोतवाली पर नहींआगरे की कोतवाली के लंबे-चौड़े चबूतरे परहजारों लोगों की हाहाकार करती भीड़ के सामनेलोहे की जंजीरों में जकड़कर लाया गया था और जिसको-जनता का मनोबल तोड़ने के इरादे से बड़ी पैशाचिकता के साथएक-एक जोड़ कुल्हाड़ियों से काटकर मार डाला गया थातो हमें कुछ नजर नहीं आता । 
गोकुलसिंह सिर्फ़ जाटों के लिए शहीद नहीं हुए थे न उनका राज्य ही किसी ने छीना लिया था
,  न कोई पेंशन बंद करदी थीबल्कि उनके सामने तो अपूर्व शक्तिशाली मुग़ल-सत्ता,दीनतापुर्वक,  सन्धि करने की तमन्ना लेकर गिड़-गिड़ाई थी । शर्म आती है कि हम ऐसे अप्रतिम वीर को कागज के ऊपर भी सम्मान नहीं दे सके । कितना अहसान फ़रामोश कितना कृतघ्न्न है हमारा हिंदू समाज ! 
नेहरूवादी शाही इतिहासकारों ने उनका उल्लेख तक नही किया । तेगबहादुर की गिरफ्तारी और वध का उल्लेख किसी भी समकालीन फारसी इतिहासग्रंथ में नहीं है । औरंगजेब को ब्रज के उन जाट योद्धाओं से लड़ने उसे स्वयं जाना पड़ा था । फ़िर भी उनको पूर्णतया दबाया नहीं जा सका और चुने हुए सेनापतियों की कमान में बारम्बार मुग़ल 
 सेनायें जाटों के दमन और उत्पीड़न के लिए भेजी जाती रहीं और न केवल जाट पुरूष बल्कि उनकी वीरांगनायें भी अपनी ऐतिहासिक दृढ़ता और पारंपरिक शौर्य के साथ उन सेनाओं का सामना करती रहीं ।

दुर्भाग्य की बात है कि भारत की इन वीरांगनाओं और सच्चे सपूतों का कोई उल्लेख शाही टुकडों पर पलने वाले तथाकथित इतिहासकारों ने नहीं किया । हमें उनकी जानकारी मनूची नामक यूरोपीय यात्री के वृतान्तों से होती है । उसी के शब्दों में एक अनोखा चित्र देखियेजो अन्य किसी देश या जाति के इतिहास में दुर्लभ है:
"उसे इन विद्रोहियों के कारण असंख्य मुसीबतें उठानी पड़ीं और इन पर विजयी होकर लौटने के बाद भीउसे अनेक बार अपने सेनापतियों को इनके विरुद्ध भेजने के लिए मजबूर होना पड़ा । विद्रोही गांवों में पहुँचने के बादये सेनानायक शाही आज्ञाओं का पालन क़त्ल और सिर काटकर किया करते थे । अपनी सुरक्षा के लिए ग्रामीण कंटीले झाडियों में छिप जाते या अपनी कमजोर गढ़ियों में सरण लेते । स्त्रियां भाले और तीर लेकर अपने पतियों के पीछे खड़ी हो जातीं । जब पति अपने बंदूक को दाग चुका होता,पत्नी उसके हाथ में भाला थमा देती और स्वयं बंदूक को भरने लगती थी । इस प्रकार वे उस समय तक रक्षा करते थेजब तक कि वे युद्ध जारी रखने में बिल्कुल असमर्थ नहीं हो जाते थे । जब वे बिल्कुल ही लाचार हो जातेतो अपनी पत्नियों और पुत्रियों को गरदनें काटने के बाद भूखे शेरों की तरह शत्रु की पंक्तियों पर टूट पड़ते थे और अपनी निश्शंक वीरता के बल पर अनेक बार युद्ध जीतने में सफल होते थे" ।

औरंगजेब की धर्मान्धता पूर्ण नीति
यदुनाथ सरकार लिखते हैं - "मुसलमानों की धर्मान्धता पूर्ण नीति के फलस्वरूप मथुरा की पवित्र भूमि पर सदैव ही विशेष आघात होते रहे हैं. दिल्ली से आगरा जाने वाले राजमार्ग पर स्थित होने के कारणमथुरा की ओर सदैव विशेष ध्यान आकर्षित होता रहा है. वहां के हिन्दुओं को दबाने के लिए औरंगजेब ने अब्दुन्नवी नामक एक कट्टर मुसलमान को मथुरा का फौजदार नियुक्त किया.

सन १६७८ के प्रारम्भ में अब्दुन्नवी के सैनिकों का एक दस्ता मथुरा जनपद में चारों ओर लगान वसूली करने निकला
अब्दुन्नवी ने पिछले ही वर्षगोकुलसिंह के पास एक नई छावनी स्थापित की थी. सभी कार्यवाही का सदर मुकाम यही था. गोकुलसिंह के आह्वान पर किसानों ने लगान देने से इनकार कर दियामुग़ल सैनिकों ने लूटमार से लेकर किसानों के ढोर-डंगर तक खोलने शुरू कर दिए, बस संघर्ष शुरू हो गया l

तभी औरंगजेब का नया फरमान ९ अप्रेल १६६९ आया -
"काफ़िरों के मदरसे और मन्दिर गिरा दिए जाएं". फलत: ब्रज क्षेत्र के कई अति प्राचीन मंदिरों और मठों का विनाश कर दिया गया 
कुषाण और गुप्त कालीन निधिइतिहास की अमूल्य धरोहरतोड़-फोड़मुंड विहीनअंग विहीन कर हजारों की संख्या में सर्वत्र छितरा दी गयी. सम्पूर्ण ब्रजमंडल में मुगलिया घुड़सवार और गिद्ध चील उड़ते दिखाई देते थे,और दिखाई देते थे धुंए के बादल और लपलपाती ज्वालायें- उनमें से निकलते हुए साही घुडसवार l

अत्याचारी फौजदार अब्दुन्नवी का अन्त
मई का महिना आ गया और आ गया अत्याचारी फौजदार का अंत भी l
अब्दुन्नवी ने सिहोरा नामक गाँव को जा घेरा. गोकुलसिंह भी पास में ही थे
, अब्दुन्नवी के सामने जा पहुंचेमुग़लों पर दुतरफा मार पड़ीफौजदार गोली प्रहार से मारा गयाबचे खुचे मुग़ल भाग गए l

गोकुलसिंह आगे बढ़े और सादाबाद की छावनी को लूटकर आग लगा दीइसका धुआँ और लपटें इतनी ऊँची उठ गयी कि आगरा और दिल्ली के महलों में झट से दिखाई दे गईं,दिखाई भी क्यों नही देतीं, साम्राज्य के वजीर सादुल्ला खान (शाहजहाँ कालीन) की छावनी का नामोनिशान मिट गया था, मथुरा ही नहीआगरा जिले में से भी शाही झंडे के निशाँ उड़कर आगरा शहर और किले में ढेर हो गए थे l

निराश और मृतप्राय हिन्दुओं में जीवन का संचार हुआ
उन्हें दिखाई दिया कि अपराजय मुग़ल-शक्ति के विष-दंत तोड़े जा सकते हैंउन्हें दिखाई दिया अपनी भावी आशाओं का रखवाला-एक पुनर्स्थापक गोकुलसिंह l

शफ शिकन खाँ ने गोकुलसिंह के पास संधि-प्रस्ताव भेजा
इसके बाद पाँच माह तक भयंकर युद्ध होते रहेमुग़लों की सभी तैयारियां और चुने हुए सेनापति प्रभावहीन और असफल सिद्ध हुएक्या सैनिक और क्या सेनापति सभी के ऊपर गोकुलसिंह का वीरता और युद्ध संचालन का आतंक बैठ चुका था l

अंत में सितंबर मास में
बिल्कुल निराश होकरशफ शिकन खाँ ने गोकुलसिंह के पास संधि-प्रस्ताव भेजा कि
१. बादशाह उनको क्षमादान देने के लिए तैयार हैं...
२. वे लूटा हुआ सभी सामन लौटा दें...
३. वचन दें कि भविष्य में विद्रोह नहीं करेंगे...

गोकुलसिंह ने पूछा मेरा अपराध क्या हैजो मैं बादशाह से क्षमा मांगूगा 
तुम्हारे बादशाह को मुझसे क्षमा मांगनी चाहिएक्योंकि उसने अकारण ही मेरे धर्म का बहुत अपमान किया हैबहुत हानि की हैदूसरे उसके क्षमा दान और मिन्नत का भरोसा इस संसार में कौन करता है?

इसके आगे संधि की चर्चा चलाना व्यर्थ थागोकुलसिंह ने कोई कसर ही नहीं छोड़ी थी,छोड़े भी क्यों भलागोकुल सिंह धर्म की रक्षार्थ ही तो लड़ रहे थे तो कैसी क्षमा याचना l

औरंगजेब का विचार था कि गोकुलसिंह को भी 
'राजाया 'ठाकुरका खिताब देकर रिझा लिया जायेगा और मुग़लों का एक और पालतू बढ़ जायेगाआर्यावर्त को 'दारुल इस्लाम' बनाने की उसकी सुविचारित योजना निर्विघ्न आगे बढती रहेगी मगर गोकुलसिंह के आगे उसकी कूट नीति बुरी तरह मात खा गयीअत: औरंगजेब स्वयं एक बड़ी सेनातोपों और तोपचियों के साथअपने इस अभूतपूर्व प्रतिद्वंदी से निपटने चल पड़ा l
 
परम्पराएं और मर्यादा टूटने का यह एक ऐसा ज्वलंत और प्रेरक उदाहरण है जिधर इतिहासकारों का ध्यान नहीं गया है l


औरंगजेब २८ नवंबर १६६९ को मथुरा पहुँचा
यूरोपीय यात्री मनूची के वृत्तांत के अनुसार अब औरंगजेब को स्वयं गोकुल का सामना करने हेतु जाना पड़ाजिसका साम्राज्य न सिर्फ़ मुग़लों में ही बल्कि उस समय तक सभी हिंदू-मुस्लिम शासकों में सबसे बड़ा थायह थी धर्म-परायण वीरवर गोकुलसिंह की महानता दिल्ली से चलकर औरंगजेब २८ नवंबर १६६९ को मथुरा जा पहुँचा गोकुलसिंह के अनेक सैनिक और सेनापति जो वेतनभोगी नहीं थेक्रान्ति भावना से अनुप्राणित लोग थेरबी की बुवाई के सिलसिले मेंपड़ौस के आगरा जनपद में चले गए थे l

औरंगजेब ने अपनी छावनी मथुरा में बनाई और वहां से सम्पूर्ण युद्ध संचालन करने लगागोकुलसिंह को चारों ओर से घेरा जा रहा था औरंगजेब ने एक और सेनापति हसन अली खाँ को एक मजबूत और सुसज्जित सेना के साथ मुरसान की ओर से भेजा l

हसन अली खाँ ने ४ दिसंबर १६६९ की प्रात: काल के समय अचानक छापा मारकर, जाट सेनाओं की तीन गढ़ियाँ - रेवाड़ाचंद्ररख और सरखरू को घेरलिया. शाही तोपों और बंदूकों की मार के आगे ये छोटी गढ़ियाँ ज्यादा उपयोगी सिद्ध न हो सकीं और बड़ी जल्दी टूट गयी l

हसन अली खाँ की सफलताओं से खुश होकर औरंगजेब ने शफ शिकन खान के स्थान पर उसे मथुरा का फौजदार बना दियाउसकी सहायता के लिए आगरा परगने से अमानुल्ला खानमुरादाबाद का फौजदार नामदार खानआगरा शहर का फौजदार होशयार खाँ अपनी-अपनी सेनाओं के साथ आ पहुंचेयह विशाल सेना चारों ओर से गोकुलसिंह को घेरा लगाते हूए आगे बढ़ने लगी l

गोकुलसिंह के विरुद्ध किया गया यह अभियान
उन आक्रमणों से विशाल स्तर का थाजो बड़े-बड़े राज्यों और वहां के राजाओं के विरुद्ध होते आए थेइस वीर के पास न तो बड़े-बड़े दुर्ग थेन अरावली की पहाड़ियाँ और न ही महाराष्ट्र जैसा विविधतापूर्ण भौगोलिक प्रदेशइन अलाभकारी स्थितियों के बावजूदउन्होंने जिस धैर्य और रण-चातुर्य के साथएक शक्तिशाली साम्राज्य की केंद्रीय शक्ति का सामना करकेबराबरी के परिणाम प्राप्त किए,वह सब अभूतपूर्व है l

तिलपत युद्ध दिसंबर १६६९
दिसंबर १६६९ के अन्तिम सप्ताह में तिलपत से २० मील दूरगोकुलसिंह ने शाही सेनाओं का सामना कियाजाटों ने मुग़ल सेना पर एक दृढ़ निश्चय और भयंकर क्रोध से आक्रमण कियासुबह से शाम तक युद्ध होता रहाकोई निर्णय नहीं हो सका दूसरे दिन फ़िर घमासान छिड़ गयाजाट अलौकिक वीरता के साथ युद्ध कर रहे थेमुग़ल सेनातोपखाने और जिरहबख्तर से सुसज्जित घुड़सवार सेनाओं के होते हूए भी गोकुलसिंह पर विजय प्राप्त न कर सके l

भारत के इतिहास में ऐसे युद्ध कम हुए हैं जहाँ कई प्रकार से बाधित और कमजोर पक्ष
,इतने शांत निश्चय और अडिग धैर्य के साथ लड़ा हो, हल्दी घाटी के युद्ध का निर्णय कुछ ही घंटों में हो गया थापानीपत के तीनों युद्ध एक-एक दिन में ही समाप्त हो गए थे,परन्तु वीरवर गोकुलसिंह का युद्ध तीसरे दिन भी चला l

तीसरे दिनफ़िर भयंकर संग्राम हुआ. इसके बारे में एक इतिहासकार का कहना है कि जाटों का आक्रमण इतना प्रबल था कि शाही सेना के पैर उखड़ ही गए थेपरन्तु तभी हसन अली खाँ के नेतृत्व में एक नई ताजादम मुग़ल सेना आ गयी. इस सेना ने गोकुलसिंह की विजय को पराजय में बदल दिया l

जाटों के पैर तो उखड़ गए फ़िर भी अपने घरों को नहीं भागे
उनका गंतव्य बनी तिलपत की गढ़ी जो युद्ध क्षेत्र से बीस मील दूर थी तीसरे दिन से यहाँ भी भीषण युद्ध छिड़ गया और तीन दिन तक चलता रहाभारी तोपों के बीच तिलपत की गढ़ी भी इसके आगे टिक नहीं सकी और उसका पतन हो गया l


धर्म-परायण शूरवीर गोकुलसिंह का वध
तिलपत के पतन के बाद गोकुलसिंह और उनके ताऊ उदयसिंह को सपरिवार बंदी बना लिया गयाउनके सात हजार साथी भी बंदी हुएइन सबको आगरा लाया गया औरंगजेब पहले ही आ चुका था और लाल किले के दीवाने आम में आश्वस्त होकरविराजमान था,सभी बंदियों को उसके सामने पेश किया गया... औरंगजेब ने कहा -
"जान की खैर चाहते हो तो इस्लाम कबूल कर लो. रसूल के बताये रास्ते पर चलोबोलो क्या कहते हो इस्लाम या मौत?


अधिसंख्य धर्म-परायण जाटों ने एक सुर में कहा - "बादशाहअगर तेरे खुदा और रसूल का का रास्ता वही है जिस पर तू चल रहा है तो हमें तेरे रास्ते पर नहीं चलना l"
अगले दिन गोकुलसिंह और उदयसिंह को आगरा कोतवाली पर लाया गयाउसी तरह बंधे हाथगले से पैर तक लोहे में जकड़ा शरीरगोकुलसिंह की सुडौल भुजा पर जल्लाद का पहला कुल्हाड़ा चलातो हजारों का जनसमूह हाहाकार कर उठा,  कुल्हाड़ी से छिटकी हुई उनकी दायीं भुजा चबूतरे पर गिरकर फड़कने लगीपरन्तु उस धर्म-परायण महावीर का मुख ही नहीं शरीर भी निष्कंप था उसने एक निगाह फुव्वारा बन गए कंधे पर डाली और फ़िर जल्लादों की और देखने लगा कि दूसरा वार करोपरन्तु जल्लाद जल्दी में नहीं थे lउन्हें ऐसे ही निर्देश थे, दूसरे कुल्हाड़े पर हजारों लोग आर्तनाद कर उठे, उनमें हिंदू और मुसलमान सभी थे, अनेकों ने आँखें बंद करलीअनेक रोते हुए भाग निकले कोतवाली के चारों ओर मानो प्रलय हो रही थीएक को दूसरे का होश नहीं था. वातावरण में एक ही ध्वनि थी- "हे राम!...हे रहीम !! इधर आगरा में गोकुलसिंह का सिर गिराउधर मथुरा में केशवरायजी का मन्दिर !



ऐसे असंख्य वीर भारत की इस भूमि पर जन्मे और अपने शौर्य तथा पराक्रम से नए नए कीर्तिमान स्थापित किये हैं
संभव हुआ तो सनातन धर्म की रक्षार्थ ऐसे अनेक शूरवीरों और महावीरों की विजयगाथा से परिचित करवाने का प्रयास करूँगा जिनकी धर्म-परायणता ने कभी अधर्म को स्वीकार नही कियाजिनके रण-कौशल से आज भी समस्त संसार प्रेरित होकर अपनी तलवारों की धार तीव्र करके अधर्मअसत्य तथा अनीति को समूल सवंश विनाश हेतु प्रेरित हो सकता है l


हिन्दी साहित्य में गोकुल सिंह
समरवीर गोकुलाः किसान क्रान्ति का काव्य
राजस्थान के सम्मानित एवं पुरष्कृत कविवर श्री बलवीर सिंह करुण’ अपने गीतिकाव्य और प्रबन्धकाव्य की प्रगतिशील भारतीय जीवन दृष्टि और प्रभावपूर्ण शब्दशिल्प के कारण अब अखिल भारतीय स्तर पर चर्चित हैं। राष्ट्रकवि दिनकर की काव्यचेतना से अनुप्राणित करुण जी नालन्दा की विचार सभा में दिनकर जी के अक्षरपुत्र की उपाधि से अलंकृत हो चुके हैं। इस ओजस्वी और मनस्वी कवि ने समरवीर गोकुला’ नामक प्रबन्ध काव्य की रचना कर सत्रहवीं सदी के एक उपेक्षित अध्याय को जीवंत कर दिया है। वर्ण-जाति और स्वर्ग-अपवर्ग की चिंता करने वाला यह देश जब तब अपने को भूल जाता है। कोढ में खाज की तरह वामपंथी इतिहासकार और साहित्यकार स्वातन्त्रय संघर्ष के इतिहास के पृष्ठों को हटा देता है। परन्तु प्रगतिशील राष्ट्रीय काव्य धारा ने नयी ऊष्मा एवं नयी ऊर्जा से स्फूर्त होकर अपनी लेखनी थाम ली है। परिणाम है-समरवीर गोकुला। स्मरण रहे कि रीतिकाल के श्रंगारिक वातावरण में भी सर्व श्री गुरु गोविन्द सिंहलालकविभूषणसूदन और चन्द्रशेखर ने वीर काव्य की रचना की थी। उनकी प्रेरणा भूमि राष्ट्रीय भावना ही थी। आधुनिक युग में बलवीर सिंह करुण’ ने विजय केतु’ और मैं द्रोणाचार्य बोलता हूँ’ के बाद इक्कीसवीं सदी के प्रथम दशक में समर वीर गोकुला’ की भव्य प्रस्तुति की है। यहविजय केतु’ की काव्यकला तथा प्रगतिशील इतिहास दृष्टि के उत्कर्ष का प्रमाण है।समरवीर गोकुला सत्रहवीं सदी की किसान क्रान्ति का राष्ट्रीय प्रबन्ध काव्य है।

कवि ने भूमिका में लिखा है- महाराणा प्रतापमहाराणा राज सिंहछत्रपति शिवाजी,संभाजी महाराजमहावीर गोकुला तथा भरतपुर के जाट शासकों के अलावा ऐसे और अधिक नाम नहीं गिनाये जा सकते जिन्होंने मुगल सत्ता को खुलकर ललकारा हो। वीर गोकुला का नाम इसलिए प्रमुखता से लिया जाए कि दिल्ली की नाक के नीचे उन्होंने हुँकार भरी थी और 20 हजार कृषक सैनिकों की फौज खडी कर दी थी जो अवैतनिक,अप्रशिक्षित और घरेलू अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित थी। यह बात विस्तार के लिए न भूलकर राष्ट्र की रक्षा हेतु प्राणार्पण करने आये थे। 

श्यामनारायण पाण्डेय रचित हल्दीघाटी’, पं. मोहनलाल महतो वियोगी’ प्रणीत आर्यावर्त्त’,प्रभातकृत राष्ट्रपुरुष’ और श्रीकृष्ण सरल’ के प्रबन्ध काव्य की चर्चा बन्द है। निराला रचित तुलसीदास’ और शिवाजी का पत्र’-दोनों रचनाएँ उपेक्षित हैं। दिनकर और नेपाली के काव्य विस्मृत किये जा रहे हैं। तथापि काव्य में प्रगतिशील भारतीय जीवन दृष्टि की रचनाएँ नयी चेतना के साथ आने लगती हैं। प्रमाण है-समरवीर गोकुला’ की प्रशंसित प्रस्तुति। इस काव्य की महत्प्रेरणा ऐसी रही कि यह मात्र चालीस दिनों में लिखा गया। इसका महदुद्देश्य ऐसा कि भारतीय इतिहास का एक संघर्षशील अध्याय काव्यरूप धारण कर काव्यजगत् में ध्यान आकृष्ट करने लगा। मध्यकालीन शौर्य एवं वीरगति को प्राप्त होने की भावना राष्ट्रीय संचेतना से संजीवित होकर प्रबन्धकाव्य में गूँजने लगी। उपेक्षित जाट किसान का तेजोमय समर्पित व्यक्तित्व अपने तेज से दमक उठा। इतिहास में दमित नरनाहर गोकुल का चरित्र छन्दों में सबके समक्ष आ गया।

आठ सर्गों का यह प्रबन्धकाव्य इक्कीसवीं सदी के प्रथम दशक का महत्त्वपूर्ण अवदान है। कवि ने मथुरा के किसान कुल में जनमे गोकुल के संघर्ष की उपेक्षा की पीडा को सहा है। उस पीडा ने राष्ट्रीय सन्दर्भ में उपेक्षित को काव्यांजलि देने का प्रयास किया है। आदि कवि की करुणा का स्मरण करें फिर कवि करुण’ की पीडा की प्रेरणा का महत्त्व स्पष्ट हो जायेगा। इसीलिए कवि ने प्रथम सत्र में गोकुल के किसान व्यक्तित्व को मुगल बादशाह के समक्ष प्रस्तुत किया है। उच्चकुल के नायकत्व के निकष को गोकुल ने बदल दिया था। अतः किसान-मजदूर-दलित के उत्थान के युग में गोकुल की उपेक्षा कब तक होती! उसने तो किसान जीवन के अस्तित्व एवं अस्मिता के लिए आमरण संघर्ष किया। विदेशी मुगल शासन द्वारा किसान दमन के विरोध का संकल्प किया। विदेशी मुगल शासन द्वारा किसान दमन के विरोध का संकल्प किया। इसलिए कवि ने प्रथम सर्ग में लिखा है-
पर गोकुल तो था भूमिपुत्र
धरती को माँ कहने वाला
अधनंगा तनअधभरा पेट
हर शीतघाम सहने वाला!

कवि ने महसूस किया है कि तिलपत का गोकुल शहंशाह औरंगजेब के लिए चिंता का कारण बन गया था। परन्तु अपनों ने क्या किया? -
इतिहास रचे हैं जाटों ने
लेकिन कलमों ने मौन गहे

कवि ने दूसरे सर्ग में युग की विषम स्थितियों और भारतीय आशावाद को ऐतिहासिक और प्राकृतिक सन्दर्भ में अपनी काव्यकला द्वारा चित्रित कर दिया है। प्रकृति का समय चक्र आशा जगाता है -
मावस की छाती पर चढकर
पूनम को आना पडता है
उषा को नभ में गैरिक ध्वज
नित ही फहराना पडता है।

भारतीय दृष्टि की मानवीय जिजीविषा तथा आशा के मनोहर रूप देखें -
पलता रहता है एक बीज घनघोर प्रलय के बीच कहीं,
कोई मनु उसे सहेज सदा रचता आया है सृष्टि नई।

ब्रजमंडल में ही नायक गोकुल का जन्म हुआ। यही आशावाद का आधार बना। तीसरा सर्ग गोकुल के किसान जीवन की चित्रावली है-बिंबों एवं चित्रों में। किसान जीवन का ऐसा वर्णन-चित्रण अन्यत्र विरल है। कवि की अनुभूत किसानी अपनी संवेदना एवं श्रमोत्फुल्ल मस्ती के साथ प्रस्तुत हुई है। फलतः यह किसान जीवन का प्रबन्ध काव्य बन गया है। पर मुगल शासन में किसान अपना पेट भर नहीं पाता था। कराधान भयावह था। जजिया तो काफिर किसान के लिये भयानक दंडस्वरूप आरोपित था। अतः पीडा गहराती जाती थी। परन्तु कवि मुगल शासन के कठोरक्रूर शासन का मर्मान्तक वर्णन नहीं कर सका है। प्रत्यक्ष अत्याचार से रोष-आक्रोश और विद्रोह का वर्णन स्वाभाविक रूप में चौथे सर्ग में किया है। यह सर्ग क्रांतिचेतना और संघर्ष के संकल्प का बन गया है।
धीरे-धीरे लगा जगाने स्वाभिमान की पानी,
कर से कर इन्कार बगावत कर देने की ठानी।

वे अपने गौरव की याद कर सिंह के समान गरजने लगे। कवि की राष्ट्रीय चेतना केवल मथुरा और जाट किसान की बात नहीं करती। वह तो हिन्दुस्तान के लोहू का स्मरण रखता है। तभी तो दिल्ली का तख्त सहम उठा। उधर बीस हजार किसान संगठित होकर तख्त के खिलाफ खडे हो गये। कवि की लेखनी की प्रगतिशील दृष्टि देखें-

वे सचमुच में थे जनसैनिक वे सचमुच में थे सर्वहार,
वे वानर सेना के प्रतीक गोकुला वीर रामावतार।

संस्कृति से जुडकर जनचेतना जागृत होती है। मुगल अत्याचार के विरुद्ध गोकुल का जयकार होने लगा। संघर्ष आरम्भ हो गया। कवि ने आगे की तीन सर्गों में गोकुल और उसकी किसान क्रांति सेना के स्वातंत्रय संग्राम का प्रामाणिक वर्णन किया है। राष्ट्रीय दृष्टि से मुगल हुकूमत के दमनकारी रूपकिसानों का आक्रोश और संकलित संघर्ष के शौर्य का वर्णन इस युद्ध की विशेषताएँ हैं। कवि ने सत्रहवीं सदी की किसान सेना के संग्राम को इक्कीसवीं सदी में दिखाकर एक नयी राष्ट्रीय चेतना स्फूर्त कर दी है। यह उपेक्षित अध्याय धूल झाडकर अपने तेजस्वी रूप को दिखाकर अनुप्राणित कर रहा है।
कवि करुण ने पाँचवें तथा छठे सर्ग में सादाबाद और तिलपत के भीषण संघर्ष को अपनी चिरपरिचित वर्णन शैली में तथा बिम्बपूर्ण शिल्प से प्रत्यक्ष कर दिया है। नायक गोकुल काव्य का व्यक्तित्व ही ऐसा है-
भूडोल बवंडर ने मिलजुल जिसका व्यक्तित्व बनाया हो,
बिजलियों-आँधियों ने मिलकर जिसको दिन-रात सजाया हो।

ऐसे शौर्यशीर्ष गोकुल ने मुगल छावनी सादाबाद पर अधिकार करके मुगलों को हतप्रभ कर दिया था। पर इतिहासकारों ने उपेक्षा कर दी। अतः कवि ने लिख दिया है-
वे टुकडखोर इतिहासकार वे सत्ता के बदनुमा दाग
भारत की संस्कृति के द्रोही निशिदिन गाते विषभरे राग,

ये इतिहासकार मुगलों के विदेशी अत्याचारी रूप पर मौन ही रहते हैं। पर कवि बलवीर सिंह ने गोकुल के शौर्य से घबराये औरंगजेब का सजीव चित्रण कर दिया है -
पढ कर उत्तर भीतर-भीतर औरंगजेब दहका धधका,
हर गिरा-गिरा में टीस उठी धमनी धमीन में दर्द बढा।

उसका सिंहासन डोल उठा। साम्राज्य का भूगोल सिमटता गया। इसलिए खुद औरंगजेब सन् 1669 में बडी फौज लेकर आ धमका। गोकुल के केन्द्र तिलपत में भीषण संग्राम होने लगा। उस युद्ध का एक चित्र देखें -
घनघोर तुमुल संग्राम छिडा गोलियाँ झमक झन्ना निकली,
तलवार चमक चम-चम लहरा लप-लप लेती फटका निकली।

यृद्ध चलता रहा। मुगल फौज की ताकत बढती गयी। तिलपत पर दबाव बढता रहा। अन्तिम क्षण तक गोकुल अपने चाचा उदय सिंह के साथ युद्ध करता रहा। पराजय नियति बन गयी। कैद होकर औरंगजेब के सामने लाया गया। उसने निर्भीक भाव से अत्याचारी शहंशाह के प्रति अपनी घोर घृणा व्यक्त कर दी। सप्तम सर्ग प्रमाण है। औरंगजेब इस तेजस्वी किसान नायक को देख दंग रह गया। उसने मौत की सजा सुना दी। विकल्प धर्मान्तरण रहा।
अष्टम सर्ग- अन्तिम सर्ग प्रबन्धकाव्य का उत्कर्ष है। कवि ने स्वातंत्रय-संग्राम के कारण घोषित प्राणदंड की भूमिका के रूप में प्रकृतिप्रकृति की रहस्यचेतना तथा भारतीय चिंतन के अनुसार आत्मा की अमरता का आख्यान सुनाया है। 

कवि कहता है-
तुम तो एक जन्म लेकर बस
एक बार मरते हो
और कयामत तक कर्ब्रों में
इन्तजार करते हो
लेकिन हम तो सदा अमर हैं
आत्मा नहीं मरेगी
केवल अपने देह-वसन ये
बार-बार बदलेगी।

अतः धर्म-परायण गोकुल अपने धर्म का परित्याग नहीं करेगा। वे दोनों दंडित होकर अमर हो जाना चाहते हैं। इस विषम परिस्थिति-स्वातंत्रयसंग्रामपराजय और प्राणदंड या धर्मपरिवर्तन में कवि का प्रश्न हैराष्ट्रीय चेतना का प्रश्न है-

निर्णय बडा कठिन था या दुर्भाग्य देश काया फिर सौभाग्यों का दिन था....
पर उदयसिंह और गोकुल की शहादत पर कवि की उदात्त भावना मुखरित हो गयी है-
ये सब उज्ज्वल तारे बन कर
जा बैठे अम्बर पर....
सदियों से दृष्टियाँ गडाये
इस भू के कण-कण पर

स्मरण है कि सन् 1670 के संघर्ष एवं शहादत के बाद सतनामियों ने शहादत दी है। शिवाजी का संघर्ष 1674 में सफल हुआ था। पर भरतपुर के सूरजमल ने स्वातंत्रय ध्वज को फहरा दिया। शायद इसी संघर्ष-श्रंखला का परिणाम रहा सन् 1947 का पन्द्रह अगस्त। इतिहास को इस संघर्ष-श्रंखला को भूलना नहीं है। साहित्यकार तो भूलने नहीं देगा।

बलवीर सिंह करुण’ का यह प्रबंधकाव्य अपना औचित्य सिद्ध कर रहा है। कवि सत्रहवीं सदी के साथ इक्कीसवीं सदी की राष्ट्रीयचेतना से अनुप्राणित है। अतः इसका मूल्य बढ जाता है। यह प्रबन्धकाव्य हिन्दी काव्य की उपलब्धि है। कवि की लेखनी का अभिनन्दन है।

जय श्री राम कृष्ण परशुराम ॐ