Tuesday, May 27, 2014

सोलह संस्कार

हमारे पूर्वजों ने हर काम बहुत सोच-समझकर किया है। जैसे जीवन का चार आश्रम में विभाजन, समाज का चार वर्णो में वर्गीकरण, और सोलह संस्कार को अनिवार्य किया जाना दरअसल हमारे यहां हर परंपरा बनाने के पीछे कोई गहरी सोच छूपी है। सोलह संस्कार बनाने के पीछे भी हमारे पूर्वजों की गहरी सोच थी तो आइए जानते हैं कि जीवन में इन सोलह संस्कारो को अनिवार्य बनाए जाने का क्या कारण था?
गर्भाधान संस्कार- यह ऐसा संस्कार है जिससे हमें योग्य, गुणवान और आदर्श संतान प्राप्त होती है। शास्त्रों में मनचाही संतान के लिए गर्भधारण किस
पुंसवन संस्कार- यह संस्कार किया जाता है। पुंसवन संस्कार के दो प्रमुख लाभ- पुत्र प्राप्ति और स्वस्थ, सुंदर गुणवान संतान है।
सीमन्तोन्नयन संस्कार- यह संस्कार गर्भ के चौथे, छठवें और आठवें महीने में किया जाता है। इस समय गर्भ में पल रहा बच्च सीखने के काबिल हो जाता है। उसमें अच्छे गुण, स्वभाव और कर्म आएं, इसके लिए मां उसी प्रकार आचार-विचार, रहन-सहन और व्यवहार करती है।
जातकर्म संस्कार- बालक का जन्म होते ही इस संस्कार को करने से गर्भस्त्रावजन्य दोष दूर होते हैं।
नामकरण संस्कार- जन्म के बाद 11वें या सौवें दिन नामकरण संस्कार किया जाता है। ब्राह्मण द्वारा ज्योतिष आधार पर बच्चे का नाम तय किया जाता है।
निष्क्रमण संस्कार- निष्क्रमण का अर्थ है बाहर निकालना। जन्म के चौथे महीने में यह संस्कार किया जाता है। हमारा शरीर पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश जिन्हें पंचभूत कहा जाता है, से बना है। इसलिए पिता इन देवताओं से बच्चे के कल्याण की प्रार्थना करते हैं।
अन्नप्राशन संस्कार- यह संस्कार बच्चे के दांत निकलने के समय अर्थात 6-7 महीने की उम्र में किया जाता है। इस संस्कार के बाद बच्चे को अन्न खिलाने की शुरुआत हो जाती है।
मुंडन संस्कार- बच्चे की उम्र के पहले वर्ष के अंत में या तीसरे, पांचवें या सातवें वर्ष के पूर्ण होने पर बच्चे के बाल उतारे जाते हैं चूड़ाकर्म संस्कार कहा जाता है। इससे बच्चे का सिर मजबूत होता है तथा बुद्धि तेज होती है।
कर्णवेध संस्कार- इसका अर्थ है- कान छेदना। परंपरा में कान और नाक छेदे जाते थे। इसके दो कारण हैं, एक- आभूषण पहनने के लिए। दूसरा- कान छेदने से एक्यूपंक्चर होता है। इससे मस्तिष्क तक जाने वाली नसों में रक्त का प्रवाह ठीक होता है।
उपनयन संस्कार- उप यानी पास और नयन यानी ले जाना। गुरु के पास ले जाने का अर्थ है उपनयन संस्कार।आज भी यह परंपरा है। जनेऊ में तीन सूत्र होते हैं। ये तीन देवता- ब्रह्म, विष्णु, महेश के प्रतीक हैं।
विद्यारंभ संस्कार- जीवन को सकारात्मक बनाने के लिए शिक्षा जरूरी है। शिक्षा का शुरू होना ही विद्यारंभ संस्कार है। गुरु के आश्रम में भेजने के पहले अभिभावक अपने पुत्र को अनुशासन के साथ आश्रम में रहने की सीख देते हुए भेजते थे।
केशांत संस्कार- केशांत संस्कार अर्थ है केश यानी बालों का अंत करना, उन्हें समाप्त करना। विद्या अध्ययन से पूर्व भी केशांत किया जाता है। मान्यता है गर्भ से बाहर आने के बाद बालक के सिर पर माता-पिता के दिए बाल ही रहते हैं। इन्हें काटने से शुद्धि होती है। शिक्षा प्राप्ति के पहले शुद्धि जरूरी है, ताकि मस्तिष्क ठीक दिशा में काम करें।
समावर्तन संस्कार- समावर्तन संस्कार अर्थ है फिर से लौटना। आश्रम में शिक्षा प्राप्ति के बाद ब्रह्मचारी को फिर दीन-दुनिया में लाने के लिए यह संस्कार किया जाता था। इसका आशय है ब्रह्मचारी को मनोवैज्ञानिक रूप से जीवन के संघर्षो के लिए तैयार हैं।
विवाह संस्कार - यह धर्म का साधन है। दोनों साथ रहकर धर्म के पालन के संकल्प के साथ विवाह करते हैं। विवाह के द्वारा सृष्टि के विकास में योगदान दिया जाता है। इसी से व्यक्ति पितृऋण से मुक्त होता है।
अंत्येष्टी संस्कार - अंत्येष्टि संस्कार इसका अर्थ है अंतिम यज्ञ। आज भी शवयात्रा के आगे घर से अग्नि जलाकर ले जाई जाती है। इसी से चिता जलाई जाती है। आशय है विवाह के बाद व्यक्ति ने जो अग्नि घर में जलाई थी उसी से उसके अंतिम यज्ञ की अग्नि जलाई जाती है। इससे पर्यावरण की रक्षा होती है।

प्राचीन भारत और रसायन शास्त्र



रसायनशास्त्र का प्रारंभ वैदिक युग से माना गया है। प्राचीन ग्रंथों में रसायनशास्त्र के ‘रस’ का अर्थ होता था-पारद। रसायनशास्त्र के अंतर्गत विभिन्न प्रकार के खनिजों का अध्ययन किया जाता था। वैदिक काल तक अनेक खनिजों की खोज हो चुकी थी तथा उनका व्यावहारिक प्रयोग भी होने लगा था। परंतु इस क्षेत्र में सबसे ज्यादा काम नागार्जुन नामक बौद्ध विद्वान ने किया। उन्होंने एक नई खोज की जिसमें पारे के प्रयोग से तांबा इत्यादि धातुओं को सोने में बदला जा सकता था।

रसायन-धातु कर्म विज्ञान के प्रणेता - नागार्जुन .

सनातन कालीन विज्ञान के परिप्रेक्ष्य में रसायन एवं धातु कर्म विज्ञान के सन्दर्भ में नागार्जुन का नाम अमर है... ये महान गुणों के धनी रसायनविज्ञ इतने प्रतिभाशाली थे की इन्होने विभिन्न धातुओं को सोने (Gold) में बदलने की विधि का वर्णन किया था. एवं इसका सफलतापूर्वक प्रदर्शन भी किया था.

इनकी जन्म तिथि एवं जन्मस्थान के विषय में अलग-अलग मत हैं। एक मत के अनुसार इनका जन्म द्वितीय शताब्दी में हुआ था। अन्य मतानुसार नागार्जुन का जन्म सन् ९३१ में गुजरात में सोमनाथ के निकट दैहक नामक किले में हुआ था, नागार्जुन ने रसायन शास्त्र और धातु विज्ञान पर बहुत शोध कार्य किया। रसायन शास्त्र पर इन्होंने कई पुस्तकों की रचना की जिनमें 'रस रत्नाकर' और 'रसेन्द्र मंगल' बहुत प्रसिद्ध हैं। इन्होंने अपनी चिकित्सकीय ‍सूझबूझ से अनेक असाध्य रोगों की औषधियाँ तैयार की। चिकित्सा विज्ञान के क्षेत्र में इनकी प्रसिद्ध पुस्तकें 'कक्षपुटतंत्र', 'आरोग्य मंजरी', 'योग सार' और 'योगाष्टक' हैं।

नागार्जुन द्वारा लिखी गई पुस्तक ‘रस रत्नाकार‘ दो रूपों में उपलब्ध है। ऐसा विश्वास किया जाता है कि इसी नाम के एक बौद्ध रसायनज्ञ ने इस पुस्तक का पुनरावलोकन किया। यह पुस्तक अपने में रसायन का तत्कालीन अथाह ज्ञान समेटे हुए हैं। नागार्जुन के रस रत्नाकर में अयस्क सिनाबार से पारद को प्राप्त करने की आसवन (डिस्टीलेशन) विधि वर्णित है। नागार्जुन के रस रत्नाकर में रजत के धातुकर्म का वर्णन तो विस्मयकारी है। रस रत्नाकर में वनस्पतियों से कई प्रकार के अम्ल और क्षार की प्राप्ति की भी विधियां वर्णित हैं।

रस रत्नाकर ग्रंथ में मुख्य रस माने गए निम्न रसायनों का उल्लेख किया गया है-

(१) महारस
(२) उपरस
(३) सामान्यरस
(४) रत्न
(५) धातु
(६) विष
(७) क्षार
(८) अम्ल
(९) लवण
(१०) भस्म।

महारस इतने है -

(१) अभ्रं
(२) वैक्रान्त
(३) भाषिक
(४) विमला
(५) शिलाजतु
(६) सास्यक
(७)चपला
(८) रसक

उपरस :-

(१) गंधक
(२) गैरिक
(३) काशिस
(४) सुवरि
(५) लालक
(६) मन: शिला
(७) अंजन
(८) कंकुष्ठ

सामान्य रस-

(१) कोयिला
(२) गौरीपाषाण
(३) नवसार
(४) वराटक
(५) अग्निजार
(६) लाजवर्त
(७) गिरि सिंदूर
(८) हिंगुल
(९) मुर्दाड श्रंगकम्‌

इसी प्रकार दस से अधिक विष हैं।

रस रत्नाकर अध्याय ९ में रसशाला यानी प्रयोगशाला का विस्तार से वर्णन भी है। इसमें ३२ से अधिक यंत्रों का उपयोग किया जाता था, जिनमें मुख्य हैं-

(१) दोल यंत्र
(२) स्वेदनी यंत्र
(३) पाटन यंत्र
(४) अधस्पदन यंत्र
(५) ढेकी यंत्र
(६) बालुक यंत्र
(७) तिर्यक्‌ पाटन यंत्र
(८) विद्याधर यंत्र
(९) धूप यंत्र
(१०) कोष्ठि यंत्र
(११) कच्छप यंत्र
(१२) डमरू यंत्र।

प्रयोगशाला में नागार्जुन ने पारे पर बहुत प्रयोग किए। विस्तार से उन्होंने पारे को शुद्ध करना और उसके औषधीय प्रयोग की विधियां बताई हैं। अपने ग्रंथों में नागार्जुन ने विभिन्न धातुओं का मिश्रण तैयार करने, पारा तथा अन्य धातुओं का शोधन करने, महारसों का शोधन तथा विभिन्न धातुओं को स्वर्ण या रजत में परिवर्तित करने की विधि दी है।

पारे के प्रयोग से न केवल धातु परिवर्तन किया जाता था अपितु शरीर को निरोगी बनाने और दीर्घायुष्य के लिए उसका प्रयोग होता था। भारत में पारद आश्रित रसविद्या अपने पूर्ण विकसित रूप में स्त्री-पुरुष प्रतीकवाद से जुड़ी है। पारे को शिव तत्व तथा गन्धक को पार्वती तत्व माना गया और इन दोनों के हिंगुल के साथ जुड़ने पर जो द्रव्य उत्पन्न हुआ, उसे रससिन्दूर कहा गया, जो आयुष्य-वर्धक सार के रूप में माना गया।

पारे की रूपान्तरण प्रक्रिया-इन ग्रंथों से यह भी ज्ञात होता है कि रस-शास्त्री धातुओं और खनिजों के हानिकारक गुणों को दूर कर, उनका आन्तरिक उपयोग करने हेतु तथा उन्हें पूर्णत: योग्य बनाने हेतु विविध शुद्धिकरण की प्रक्रियाएं करते थे। उसमें पारे को अठारह संस्कार यानी शुद्धिकरण प्रक्रिया से गुजरना पड़ता था। इन प्रक्रियाओं में औषधि गुणयुक्त वनस्पतियों के रस और काषाय के साथ पारे का घर्षण करना और गन्धक, अभ्रक तथा कुछ क्षार पदार्थों के साथ पारे का संयोजन करना प्रमुख है। रसवादी यह मानते हैं कि क्रमश: सत्रह शुद्धिकरण प्रक्रियाओं से गुजरने के बाद पारे में रूपान्तरण (स्वर्ण या रजत के रूप में) की सभी शक्तियों का परीक्षण करना चाहिए। यदि परीक्षण में ठीक निकले तो उसको अठारहवीं शुद्धिकरण की प्रक्रिया में लगाना चाहिए। इसके द्वारा पारे में कायाकल्प की योग्यता आ जाती है।

नागार्जुन कहते हैं-

क्रमेण कृत्वाम्बुधरेण रंजित:।
करोति शुल्वं त्रिपुटेन काञ्चनम्‌॥

सुवर्ण रजतं ताम्रं तीक्ष्णवंग भुजङ्गमा:।
लोहकं षडि्वधं तच्च यथापूर्व तदक्षयम्‌॥ - (रसरत्नाकार-३-७-८९-१०)

अर्थात्‌ - धातुओं के अक्षय रहने का क्रम निम्न प्रकार से है- सुवर्ण, चांदी, ताम्र, वंग, सीसा, तथा लोहा। इसमें सोना सबसे ज्यादा अक्षय है।

नागार्जुन के रस रत्नाकर में अयस्क सिनाबार से पारद को प्राप्त करने की आसवन (डिस्टीलेशन) विधि, रजत के धातुकर्म का वर्णन तथा वनस्पतियों से कई प्रकार के अम्ल और क्षार की प्राप्ति की भी विधियां वर्णित हैं।

इसके अतिरिक्त रसरत्नाकर में रस (पारे के योगिक) बनाने के प्रयोग दिए गये हैं। इसमें देश में धातुकर्म और कीमियागरी के स्तर का सर्वेक्षण भी दिया गया था। इस पुस्तक में चांदी, सोना, टिन और तांबे की कच्ची धातु निकालने और उसे शुद्ध करने के तरीके भी बताये गए हैं।

पारे से संजीवनी और अन्य पदार्थ बनाने के लिए नागार्जुन ने पशुओं और वनस्पति तत्वों और अम्ल और खनिजों का भी इस्तेमाल किया। हीरे, धातु और मोती घोलने के लिए उन्होंने वनस्पति से बने तेजाबों का सुझाव दिया। उसमें खट्टा दलिया, पौधे और फलों के रस से तेजाब (Acid) बनाने का वर्णन है।

नागार्जुन ने सुश्रुत संहिता के पूरक के रूप में उत्तर तन्त्र नामक पुस्तक भी लिखी। इसमें दवाइयां बनाने के तरीके दिये गये हैं। आयुर्वेद की एक पुस्तक `आरोग्यमजरी' भी लिखी।

तो देखा आपने सनातनी भारत में अन्य विज्ञानों के साथ साथ रसायन विज्ञान भी अपनी उत्कृष्ट अवस्था में था.

अगर मै ये कहूं की समस्त आधारभूत विज्ञान सनातन आर्यावर्त की देन है तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी.

प्रमुख गणितीय सिद्धांत भारत की देन

प्रमुख गणितीय सिद्धांत भारत की देन

आर्यभटट ने पाई रेशो का मान 14 वीं शताब्दी में निकाला कि पाई का मान 3.14159256 होता है आर्यभटीय के दूसरे भाग (गणितपाद 10) में, वे लिखते हैं:
चतुराधिकम सतमासअगु अमद्वासास इस्त्तथा सहस्रं अयुतादवायाविसकमभाष्यसन्नोवृत्तापरी अहा.
"१०० में चार जोड़ें, आठ से गुणा करें और फिर ६२००० जोड़ें. इस नियम से २०००० परिधि के एक वृत्त का व्यास ज्ञात किया जा सकता है. "
इसके अनुसार व्यास और परिधि का अनुपात ((४ + १०० ) × ८ + ६२००० ) / २०००० = ३.१४१६ है,
दुनिया का सबसे बड़ा समय गणना तंत्र ये सब भी हमारी संस्कृति कि देन है
1 क्रति = सेकंड का ३४००० वा भाग
1त्रुति = सेकंड का ३०० वॉ भाग
2 त्रुति = 1 लव
2 लव = 1 क्षण
30 क्षण = विपल
60 विपल = 1 पल या निमिष
60 पल = 1 घडी (२४ मिनट )
2.5 घडी = 1 हीरा (घंटा )
24 हीरा = 1 दिवस ( दिन या वार )
7 दिवस = 1 सप्ताह
4 सप्ताह = 1 माह
2 माह = 1ऋतु
6 ऋतु = 1 वर्ष
100वर्ष = 1 शताब्दी
10 शताब्दी = 1 सह्शताब्दी
432 सह्शताब्दी = 1 युग
1 युग = कल युग
2 युग = द्वापुर युग
3 युग = त्रेता युग
2 युग = सतयुग
सतयुग + त्रेता युग + द्वापुर युग + कल युग = 1 महायुग
76 महायुग = 1 मनवन्तर
1000 महायुग = 1 कल्प
एक नियत प्रलय = १ महायुग ( धरती पर जीवन अन्त और फिर प्रारम्भ )
1 नैमितिका प्रलय = 1 कल्प (देवो का अंत और पुनर्जन्म )
1 महाप्रलय = ७३० कल्प ( ब्रह्मा का अन्त और पुनर्जन्म )
आर्यभटट ने पाई का मान ही नहीं बल्कि पृथ्वी कि गति का भी वर्णन किया है ।
इसका विवरण निम्न प्रकार से दिया :-
अनुलोमगतिनौंस्थ: पश्यत्यचलम्‌
विलोमंग यद्वत्‌।
अचलानि भानि तद्वत्‌ सम
पश्चिमगानि लंकायाम्‌॥
आर्यभट्टीय गोलपाद-९
अर्थात्‌
नाव में यात्रा करने वाला जिस प्रकार किनारे पर स्थिर रहने वाली चट्टान, पेड़ इत्यादि को विरुद्ध दिशा में भागते देखता है, उसी प्रकार अचल नक्षत्र लंका में सीधे पूर्व से पश्चिम की ओर सरकते देखे जा सकते हैं।
भ पंजर: स्थिरो भू रेवावृत्यावृत्य प्राति दैविसिकौ।
उदयास्तमयौ संपादयति नक्षत्रग्रहाणाम्‌॥
अर्थात्‌
तारा मंडल स्थिर है और पृथ्वी अपनी दैनिक घूमने की गति से नक्षत्रों तथा ग्रहों का उदय और अस्त करती है।
भूमि गोलाकार होने के कारण विविध नगरों में रेखांतर होने के कारण अलग-अलग स्थानों में अलग-अलग समय पर सूर्योदय व सूर्यास्त होते हैं। इसे आर्यभट्ट ने ज्ञात कर लिया था |
उदयो यो लंकायां सोस्तमय:
सवितुरेव सिद्धपुरे।
मध्याह्नो यवकोट्यां रोमक
विषयेऽर्धरात्र: स्यात्‌॥
(आर्यभट्टीय गोलपाद-१३)
अर्थात्‌
जब लंका में सूर्योदय होता है तब सिद्धपुर में सूर्यास्त हो जाता है। यवकोटि में मध्याह्न तथा रोमक प्रदेश में अर्धरात्रि होती है।
आर्यभट्ट ने सूर्य से विविध ग्रहों की दूरी के बारे में बताया है। वह आजकल के माप से मिलता-जुलता है।
आज पृथ्वी से सूर्य की दूरी लगभग 15 करोड़ किलोमीटर मानी जाती है। इसे AU ( Astronomical unit) कहा जाता है।

Wednesday, May 7, 2014

यज्ञ मे पशु वध नही है (No Slaughter In yagya )

मित्रो आज कल कुछ वैदिक धर्म विरोधी ओर कुछ बलि प्रथा के समर्थक पाखंडी जन वेदों ओर यज्ञो मे पशु वध को बताते है।ऐसे स्वादलोलुप व्यक्ति वेद मंत्रो का अनर्थ तो करते ही है ,साथ ही साथ  भारतीय संस्कृति के विरोधियो को भी ऊँगली उठाने का अवसर प्रदान करते है ,,,,,
ये लोग यज्ञ मे पशु हत्या को सिद्ध करने के लिए मनु महाराज के वचन "वैदिक हिंसा हिंसा न भवति" को बड़े गर्व के साथ दिखाते है लेकिन असल मे इसका आशय यह है की हिंसक जीवो या आत्म रक्षा हेतु दुष्ट मनुष्य या जानवर को दण्डित करना या वध करना ।अहिंसक पशु या मनुष्य को मारना  पाप बताया है
 
उपरोक्त वर्णन से वैदिक हिंसा पर मनु जी का मत स्पष्ट है   .....                                                              
निरुक्त मे महर्षि यास्क यज्ञ का अर्थ स्पष्ट करते हुए कहते है -"अध्वर इति यज्ञानां ।ध्वरतिहिंसामर्क ,तत्प्रतिषेध ।।(निरुक्त अ.१ ख ८  ) "                                                                                       
यज्ञ का नाम अ =निषेध,ध्वर =हिंसा (हिंसा का निषेध) है ,,अर्थात यज्ञ मे हिंसा नहीं होनी चाहिए।
 

वेदों मे यज्ञ के लिए -                                                                                                                         

 उपावसृज त्मन्या समज्ञ्चन् देवाना पाथ ऋतुथा हविषि।वनस्पति: शमिता देवो अग्नि: स्वदन्तु द्रव्य मधुना घृतेन ।।(यजु २९,३५ )    
पाथ ,हविषि,मधुना,घृत ये चारो पद चारो प्रकार के द्रव्यों का ही हवं करना उपादेष्ट करते है,अत: यज्ञ मे इन्ही का ग्रहण करना योग्य है ,,प्राणिवध जन्य मॉस का नही ।
कात्यान्न श्रोतसूत्र मे आया है-
दुष्टस्य हविषोSप्सवहरणम् ।।२५ ,११५ ।।
उक्तो व मस्मनि ।।२५,११६ ।।
शिष्टभक्षप्रतिषिध्द दुष्टम।।२५,११७ ।।
अर्थात होमद्र्व्य यदि दुष्ट हो तो उसे जल मे फेक देना चाहिए उससे हवन नहीं करना चाहिए ,शिष्ट पुरुषो द्वारा निषिध मांस आदि अभक्ष्य वस्तुयें दुष्ट कहलाती है ।
उपरोक्त वर्णन के अनुसार यहाँ मॉस की आहुति का निषेध हो रहा है ।

  मॉस भोजी को यज्ञ का अधिकार नहीं है :-

"न मॉसमश्रीयात् ,यन्मासमश्रीयात्,यन्मिप्रानमुपेथादिति नेत्वेवैषा दीक्षा ।"(श. ६:२ )
अर्थात मनुष्य मॉस भक्षण न करे , यदि मॉस भक्षण करता है अथवा व्यभिचार करता है तो यज्ञ दीक्षा का अधिकारी नही है .... 
यहा स्पष्ट कहा है की मॉस भक्षी को यज्ञ का अधिकार नही है ,अत : यहाँ स्पष्ट हो जाता है की यज्ञ मे मॉस की आहुति नही दी जाती थी ।

मॉस शब्द का ग्रंथो मे वास्तविक अर्थ-

अधिकतर लोग शतपथ आदि ग्रंथो मे मॉस शब्द देख भ्रम मे पड़ जाते है ओर बताते है की मॉस से आहुति दी जाती है लेकिन वास्तव मे  वहा मॉस का अर्थ पशुओ का मॉस नही है -
मासानि वा आ आहुतय:(श ९,२ )
अर्थात यज्ञ आहुति मॉस की होनी चाहिए ।
चुकि यहाँ मॉस के चक्कर मे भ्रम मे न पडे तो आगे मॉस के अर्थ को स्पष्ट किया है -
" मासीयन्ति ह वै जुह्वतो यजमानस्याग्नय:।
एतह ह वै परममान्नघ यन्मासं,स परमस्येवान्नघ स्याता भवति (शत .११ ,७)"।।
हवन करते हुआ यज्मान की अग्निया मॉस की आहुति की इच्छा रखती है ।
परम अन्न ही मॉस है परम अन्न से आहुति दे ,..
यहा मॉस को परम अन्न कहा है ओर यदि ये जीवो का मॉस होता तो यहाँ अन्न का प्रयोग नही होता क्यूँ की मॉस अन्न नहीं होता है ।परम अन्न के बारे मे अमरकोष के अनुसार "परमान्नं तु पायसम् " अर्थात दूध ओर चावल से तैयार (खीर) को परम अन्न कहा है ।अतः शतपत ब्राह्मण के अनुसार मॉस का अर्थ पायसम है ।लोक प्रसिद्ध मॉस नही ।

पंचमेध -

अधिकतर वैदिक धर्म विरोधी लोग कहते है की गौमेध,अश्वमेध,नरमेध आदि यज्ञो मे बलि दी जाती थी लेकिन वास्तव मे प्राचीन काल मे ऐसा नही था ,ये सब बाद मे वाम मर्गियो द्वारा चलाया गया था । गौमेध आदि यज्ञो मे गौ ,अश्व आदि के दान किया जाता था न कि वध ,प्राचीन आचार्य इन यज्ञो का आधात्मिक ओर अहिंसक अर्थ ही ग्रहण करते थे ।जैसाकि महर्षि गार्ग्याय‌‍‍ण की प्रणववाद से स्पष्ट होता है -
" गौमेधश्वाश्वमेधच्ञ नरमेधस्ताथाऽपरः ।
अजस्य महिष्यापि मेधाः पञ्च प्रकीर्त्तियाः ।।"
 गौमेध,अश्वमेध,नरमेध,अजमेध तथा महिषमेध ये पांच मेध है।

गौमेध-

निरुक्त मे यास्क मुनि जी गौ का अर्थ करते हुए लिखते है -अघन्या ।अर्थात वध करने के योग्य नही (निरुक्त २/११ )
    वैदिक सत्यशास्त्रो मे गाय को मारने का निषेध है ऐसे मे गाय की आहुति देने का काम वाम मार्गियो द्वारा चलाया गया था।प्रणववाद मे गौमेध का निम्न अर्थ बताया है -
गौमेधस्ताच्छब्दमेध इत्यवगन्यते । गां वाणी मेधया संयोजनमिति तदर्यात् ।शब्दशास्त्रज्ञानमात्रस्य सर्वेभ्यः प्रधानामेव गौमेधो यज्ञ।तदव्यने च शाब्दिकसन्निधानपदार्थोनामेवेति विक्षेयम् ।।
अर्थात गौमेध का अर्थ है "शब्दमेध"।गौ का अर्थ है "वाणी" ओर मेधा का अर्थ है "बुधि", अत: गौमेध का अर्थ हुआ "वाणी का बुध्दि के साथ संयोजन "।सब को शब्द शास्त्र का ज्ञान देना यही गौमेध है ।
यास्क मुनि ने निघुंट मे गौ का अर्थ वाणी भी बताया है जिसे निम्न चित्र मे देख सकते है -                                                                           
 

अश्वमेध -                                                                                                                                                

अश्वमेध के बारे मे प्रणववाद मे आया है-
अश्वोहि ज्ञानम् ,अश्यते सर्वाणि भूतान्युनेनेति तदर्थात् ।मेधातावत् ज्ञान क्रिया भवति।अश्वस्य मेध इति व्यत्पत्तिमड्रीकृत्य सर्वाभि दमकारात्मक।ज्ञानकरणामिति अश्वमेध क्रिया भवति।अत एवाक्ष्वानां पदार्थाना ध्वनमपि प्रयुज्यते  । अश्वस्तावन्ज्ञानतन्यः पदार्थना तेषाम् हवन चैतह्वाग्नों सम्प्रदानमेव ,इति हि तदर्थः ।
अर्थात अश्व  का अर्थ है "ज्ञान " ओर मेध का अर्थ है ज्ञान क्रिया" अर्थात ज्ञान प्राप्त करने को अश्वमेध जानना चाहिए।इसलिए अश्व अर्थात पदार्थो का हवन करना चाहिए,क्युकी अश्व का अर्थ है -ज्ञेय पदार्थ ,उन्हें ब्रह्म को अर्पित करना अश्व का हवन है । 
वृह॰ उ॰ मे अश्वमेध को प्राणसाधना के रूप मे निम्न उलेख किया है -"यद्श्रत्तेन्मेध्यमभूदिति तदैवक्ष्वमेधवतम् "              
निघुट मे अश्व का अर्थ पृथ्वी दिया है (नि.५ ,३) अर्थात प्रथ्वी पर चक्रवर्ती राजा बन्ने के लिए राजाओ द्वारा किया जाने वाला यज्ञ अश्वमेध था जिसमे घोड़ा दौड़ाया जाता था वध नहीं किया जाता था।                             

नरमेध-

नरमेध के बारे मे प्रणववाद मे आया है-
 नरमेधश्चेचछापरस्तयोः सम्बन्धरूपों बोध्य।नरइतिसर्वाक्षयभूतस्यैव संज्ञा।सर्वाश्रयं सर्वमित्येतदोषमात्र तदेवेति विज्ञ्यम् ।
अर्थात सब संसार का आश्रयरूप परमात्मा है, उसे नर कहते है।यह सब कुछ परमात्मा के आश्रय है ,इस प्रकार का बोध ही नरमेध है ।
नरमेध मे मनुष्य बलि नहीं दी जाती थी ,,किसी व्यक्ति के देह्वास पर उसके मृतक शारीर का दाह संस्कार भी                                                  नरमेध होता है ।                                                                                         

अजमेध-

अजमेध का प्रणववाद मे उलेख -
समाहारक्ष्वाज्मेधः सर्वधर्मानुवर्तेनः।जायते क्रियतेनैव चैति मिथ्याप्रतो भवेर। स एवमजमेधोऽये समाहारस्त्रयात्मक:।
गौमेध ,अश्वमेध,नरमेध,का मेल ही अजमेध है,"वस्तू न उत्पन्न होती न नस्ट ,इस प्रकार का ज्ञान अजमेध है ।

महिषमेध-

ततश्च माहिषो मेधः पञ्चम् सर्वसंस्थि तः ।ब्रह्माण क्रियते नित्यं ।
पांचवा महिष मेध है ,इसे ब्रह्म नित्य करता है ।
गार्ग्यायं ऋषि की प्रणववाद से स्पष्ट है की इन यज्ञो का हिंसक अर्थ प्राचीन काल मे नहीं लिया जाता था ,बल्कि ये अध्यात्मिक ओर अहिंसक अर्थ रखते है ।
इन सब प्रमाणों से स्पष्ट हो जाता है की यज्ञ मे जीव हत्या का कोई प्रावधान नहीं है अपितु जीव हत्या कर यज्ञ करने का निषेध ही बताया है ओर ऐसी हावी को जल मे फेक देने का उलेख है ,,लेकिन कुछ लोग अपनी बात को सिद्ध करने के लिए मंत्रो ओर श्लोको का गलत अर्थ या तोड़ मोड़ कर पेश कर यज्ञ मे बलि प्रथा का जिक्र करते है ।अत ऐसे लोगो से निवेदन है पहले यज्ञ से सम्बंदित ज्ञान को अच्छी तरह प्राप्त करे उसके बाद यज्ञो पर आक्षेप करे।
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ॐ जय माँ भारती !