Monday, October 14, 2013

108 अंक का रहस्य



वेदान्त में एक मात्रकविहीन सार्वभौमिक ध्रुवांक 108 का उल्लेख
मिलता है जिसका हजारों वर्षों पूर्व हमारे ऋषियों (वैज्ञानिकों)
ने अविष्कार किया था l
मेरी सुविधा के लिए मैं मान लेता हूँ कि, 108 = ॐ (जो पूर्णता का द्योतक है)
प्रकृति में 108 की विविध अभिव्यंजना :
1. सूर्य और पृथ्वी के बीच की दूरी/सूर्य का व्यास = 108 = 1 ॐ
150,000,000 km/1,391,000 km = 108 (पृथ्वी और सूर्य के बीच 108 सूर्य सजाये जा सकते हैं)


2. सूर्य का व्यास/ पृथ्वी का व्यास = 108 = 1 ॐ
1,391,000 km/12,742 km = 108 = 1 ॐ
सूर्य के व्यास पर 108 पृथ्वियां सजाई सा सकती हैं .


3. पृथ्वी और चन्द्र के बीच की दूरी/चन्द्र का व्यास = 108 = 1 ॐ
384403 km/3474.20 km = 108 = 1 ॐ
पृथ्वी और चन्द्र के बीच १०८ चन्द्रमा आ सकते हैं .


4. मनुष्य की उम्र 108 वर्षों (1ॐ वर्ष) में पूर्णता प्राप्त करती है .
वैदिक ज्योतिष के अनुसार मनुष्य को अपने जीवन काल में विभिन्न
ग्रहों की 108 वर्षों की अष्टोत्तरी महादशा से गुजरना पड़ता है .


5. एक शांत, स्वस्थ और प्रसन्न वयस्क व्यक्ति 200 ॐ श्वास लेकर एक दिन पूरा करता है .
1 मिनट में 15 श्वास >> 12 घंटों में 10800 श्वास >> दिनभर में 100 ॐ श्वास, वैसे ही रातभर में 100 ॐ श्वास


6. एक शांत, स्वस्थ और प्रसन्न वयस्क व्यक्ति एक मुहुर्त में 4 ॐ ह्रदय की धड़कन पूरी करता है .
1 मिनट में 72 धड़कन >> 6 मिनट में 432 धडकनें >> 1 मुहूर्त में 4 ॐ धडकनें ( 6 मिनट = 1 मुहूर्त)


7. सभी 9 ग्रह (वैदिक ज्योतिष में परिभाषित) भचक्र एक चक्र पूरा करते समय 12 राशियों से होकर गुजरते हैं और 12 x 9 = 108 = 1 ॐ


8. सभी 9 ग्रह भचक्र का एक चक्कर पूरा करते समय 27 नक्षत्रों को पार करते हैं और प्रत्येक नक्षत्र के चार चरण होते हैं और 27 x 4 = 108 = 1 ॐ


9. एक सौर दिन 200 ॐ विपल समय में पूरा होता है. (1 विपल = 2.5 सेकेण्ड)
1 सौर दिन (24 घंटे) = 1 अहोरात्र = 60 घटी = 3600 पल = 21600
विपल = 200 x 108 = 200 ॐ विपल

*** 108 का आध्यात्मिक अर्थ ***
1 सूचित करता है ब्रह्म की अद्वितीयता/एकत्व/पूर्णता को
0 सूचित करता है वह शून्य की अवस्था को जो विश्व की अनुपस्थिति में
उत्पन्न हुई होती
8 सूचित करता है उस विश्व की अनंतता को जिसका अविर्भाव उस शून्य में
ब्रह्म की अनंत अभिव्यक्तियों से हुआ है .
अतः ब्रह्म, शून्यता और अनंत विश्व के संयोग को ही 108 द्वारा सूचित
किया गया है .
जिस प्रकार ब्रह्म की शाब्दिक अभिव्यंजना प्रणव ( अ + उ + म् ) है और
नादीय अभिव्यंजना ॐ की ध्वनि है उसी प्रकार ब्रह्म की गाणितिक
अभिव्यंजना 108 है !!

Friday, October 11, 2013

जन गण मन किसके लिए लिखा गया था ?



अक्सर लोग यह सिद्ध करने में लगे रहते हैं की राष्ट्रगीत ईश्वर की स्तुति में लिखा गया था न की सम्राट की स्तुति में ,परन्तु सत्य यह कि जन गण मन= गीत जार्ज पंचम के स्तुतिगान के रूप में लिखा गया। गुरुदेव स्वयं यह स्वीकार करते हैं कि सम्राट के आगमन के अवसर पर एक सरकारी अधिकारी ने उनसे सम्राट की प्रशंसा में एक गीत लिखने को कहा था। उन्होंने ऐसा गीत लिखने से इनकार नहीं किया था। अब आगे का कथाक्रम देखें-यह गीत 1911 में लिखा गया। यह वही वर्ष था, जिस वर्ष जार्ज पंचम अपनी महारानी के साथ भारत आए और यहां पर उनके राज्याभिषेक का दरबार सजा। 

यह भारत के ब्रिटिश इतिहास की एक अत्यंत महत्वपूर्ण घटना थी। ठाकुर रवीन्द्रनाथ ने 27 दिसम्बर 1911 के कांग्रेस की महासभा में पहली बार यह गीत प्रस्तुत किया। अधिवेशन का यह दूसरा दिन था जो सम्राट के अभिनंदन के लिए समर्पित था। इस दिन का केवल एक एजेंडा (कार्यक्रम) था सम्राट के सम्मान में प्रस्ताव पारित करना। उसी दिन रवीन्द्रनाथ ने यह बंगला गीत प्रस्तुत किया। उस दिन सम्राट के सम्मान में एक हिन्दी गीत भी प्रस्तुत किया गया, जिसे रामभुज चौधरी द्वारा गाया गया। लेकिन अखबारों में ठाकुर के अभिनंदन गीत की ही चर्चा रही।

28 दिसम्बर के स्टेट्समन में खबर छपी 'बंगला कवि बाबू रवीन्द्रनाथ टैगोर ने सम्राट के स्वागत में विशेष रूप से रचित अपना गीत प्रस्तुत किया (द बंगाली पोयट बाबू रवींद्रनाथ टैगोर सैंग ए सांग कंपोज्ड बाई हिम स्पेशली टु वेलकम द इम्परर)। इसी तरह 'इंग्लिश मैन समाचार पत्र ने लिखा - कांग्रेस की कार्रवाई बाबू रवीन्द्रनाथ टैगोर द्वारा प्रस्तुत गीत के साथ शुरू हुई जिसे उन्होंने सम्राट के सम्मान में विशेष रूप से लिखा है। (द प्रोसीडिंग बिगैन विद द सिंगिंग बाई बाबू रवीन्द्रनाथ टैगोर ऑफ ए सांग स्पेशली कम्पोज्ड बाई हिम इन आनर ऑफ द इम्परर)। एक और अंग्रेजी दैनिक 'इंडियन ने लिखा, 'बुधवार 27 दिसंबर 1911 को जब राष्ट्रीय कोंग्रेस की कार्रवाई शुरू हुई तो सम्राट के स्वागत में एक बंगाली गीत गाया गया। सम्राट और साम्राज्ञी का स्वागत करते हुए सर्वसम्मति से एक प्रस्ताव भी पारित किया गया (व्हेन द प्रोसीडिंग ऑफ द नेशनल कांग्रेस बिगैन आन द वेडनेसडे 27th डिसेम्बर 1911, ए बेंगाली सांग इन वेलकम ऑफ द इम्परर वाज संग ए रिजोल्यूशन वेलकमिंग द इम्परर एंड इम्प्रेस वाज आल्सो इडाप्टेड एनानिमसली)।वास्तव में 1911 की भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस, अंग्रेज सरकार के प्रति वफादार भारतीयों का ही संगठन था। इसिलए यदि उस समय कांग्रेस ने सम्राट के अभिनंदन में प्रस्ताव पारित किया अथवा रवीन्द्रनाथ टैगोर ने उनकी प्रशंसा में गीत गाया तो इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं। आश्चर्य की बात तो यह है कि देश जब स्वतंत्र हुआ तो इस अंग्रेज महाप्रभु की प्रशस्ति में लिखे हुए गीत को इस स्वतंत्र राष्ट्र का प्रतीक गीत बना दिया 1911 के बाद यह गीत बहुत दिनों तक ब्रह्म समाज की पत्रिका 'तत्वबोध प्रकाशिका के पन्नों में ही पड़ा रहा। टैगोर स्वयं इस पत्रिका के संपादक थे। =गीतांजलि=-जिसे नोबेल पुरस्कार मिला- में भी यह गीत शामिल किया गया, लेकिन स्वातंत्र्य आंदोलन या देश के जागरण अभियान में कहीं भूलकर भी किसी ने इसे याद नहीं किया। यदि यह देश गीत होता, तो इसकी इस तरह उपेक्षा नहीं हो सकती थी। यदि हम इसे थोड़ी देर के लिए ईश प्रार्थना ही मान लें, तो भी भारत जैसे सेकुलर देश का राष्ट्र गीत बनने लायक यह गीत नहीं था।

अब बेहतर यह है कि स्वयं इस गीत की समीक्षा कर ली जाए।
सारी टिप्पणियों को दरकिनार करके पाठक स्वयं अपने विवेक से यह निर्णय ले सकते हैं कि यह गीत किसके लिए लिखा गया। 
पांच पदों का यह पूरा गीत निम्रवत है-

(1) जन-गण-मन अधिनायक जय हे भारत भाग्य विधाता । पंजाब सिंधु गुजरात मराठा द्राविड उत्कल बंगा। विन्ध्य हिमाचल यमुना गंगा उच्छल जलधि तरंगा । तव शुभ नाम जागे, तव शुभ आशिश मांगे. गाहे तव जय गाथा। जन गण, मंगल दायक जय हे, भारत भाग्य विधाता। जय हे, जय हे, जय हे. जय, जय, जय, जय हे ।

(2)अहरह तव आह्वान प्रचारित सुनि तव उदार वाणी . हिंदू बौद्ध सिख जैन पारसिक ,मुसलमान , क्रिस्तानी । पूरब, पश्चिम आसे , तव सिंहासन पासे। प्रेम हार हवे गाथा । जन -गण, ऐक्य विधायक जय हे , भारत भाग्य विधाता । जय हे , जय हे, जय हे. जय, जय, जय, जय हे ।

(3)पतन अभ्युदय बंधुर पन्था ,युग युग धावित यात्री । हे ! चिर सारथि तव रथ चक्रे मुखरित पथ दिन रात्री . दारुण बिप्लव मांझे , तव शंखध्वनि बाजे ,संकट दु:ख त्राता । जन गण पथ परिचायक जय हे। भारत भाग्य विधाता । जय हे, जय हे, जय हे. जय, जय, जय, जय हे।

(4)घोर तिमिर घन निबिण निशीथे पीड़ित , मूर्छित देसे । छिलो तव अविचल मंगल नत नयने अनिमेशे। दुह्स्वपने आतंके रक्षा करिले अंके। स्नेह मई तुमि माता । जन गण दु:ख त्रायक जय हे ,भारत भाग्य विधाता । जय हे, जय हे, जय हे।जय , जय , जय , जय हे 

(5)रात्रि प्रभावित उदिल रविच्छवि पूर्व उदय गिरि भाले । गाहे विहंगम पुन्य समीरण नव जीवन रस ढाले । तव करुणारुण रागे, निद्रित भारत जागे । जय , जय, जय हे जय राजेश्वर भारत भाग्य विधाता । जय हे, जय हे, जय हे।जय, जय, जय, जय हे।अब कांग्रेस के अधिवेशन का जो दिन सम्राट के अभिनन्दन के लिए नियत हो उस दिन की कार्रवाई की शुरुआत सम्राट की प्रशंसा में लिखित गीत से भिन्न किसी दूसरे गीत से कैसे हो सकती है। यहां बहुत साफ ढंग से प्रकट है कि यह 'भारत भाग्य विधाता कौन है। गीत रवीन्द्रनाथ टैगोर जैसा व्यक्ति लिख रहा हो, तो वह सस्ते कवियों की तरह प्रत्यक्ष प्रशंसापरक नहीं हो सकता। उसमें कलात्मक अर्थछटा होनी ही चाहिए, लेकिन पूरा गीत अपनी कहानी स्वयं कहने में समर्थ है। यदि पूरी कविता के प्रथम चार पदों में कोई भ्रम रह भी जाता हो, तो वह अंतिम पद में दूर हो जाता है। 1911 के दिसंबर महीने में सम्राट के अभिषेकोत्सव के अतिरिक्त ऐसा कुछ भी घटित नहीं हुआ था, जिसकी अभिशंसा में कवि कहता 'अब रात बीत गई है, पूर्व में प्रभात का सूर्य उदित हो रहा है, चिडिय़ा गा रही है और पून्य समीरण प्रवाहित हो रहा है और नया जीवन रस ढल रहा है। देश में उस समय ऐसा क्या हो गया था कि यह कवि हर्षातिरेक में प्रकृति का उत्सव गान करने लगा। अंतिम पंक्ति पूरा रहस्य खोल देती है। 'जय, जय, जय हे जय राजेश्वर का राजेश्वर शब्द शुद्ध रूप से 'इम्परर के लिए ही आया। इसमें शायद ही कोई संदेह करने की धृष्टïता करे।कैसी विडम्बना है कि यह देश मातृभूमि की वंदना बर्दाश्त नहीं कर सकता, किन्तु वह उस सम्राट की प्रशस्ति को अपना राष्ट्रगाण बना सकता है, जिसने उसे गुलामी के जुए में कस रखा था। इस देश को इसमें कोई आश्चर्य नहीं। जो देश, स्वतंत्रता प्राप्ति के अगले ही क्षण, ब्रिटिश क्राउन के उसी प्रतिनिधि को अपना सर्वोच्च शासक (गवर्नर जनरल) बना सकता है, अब हमें खुद फैसला करना चाहिए कि वास्तविकता क्या है.

Thursday, October 10, 2013

सुफियो द्वारा हिन्दुओ का इस्लामीकरण..




जब मुस्लिम बादशाह बलपूर्वक भारत के सभी हिन्दुओं को मुसलमान नहीं बना सके तो उन्होंने हिन्दुओं को इस्लाम के प्रति आकर्षित करने के लिए एक नयी तरकीब निकाली . सब जानते हैं कि इस्लाम में शायरी , हराम है , क्योंकि जब मुहम्मद साहब ने खुद को अल्लाह का रसूल घोषित कर दिया था तो अरब के लोग कुरान को मुहम्मद की शायरी कहते थे . और अरब के शायर कुरान का मजाक उड़ाते थे . इसी तरह इस्लाम में संगीत , गाना बजाना,वाद्ययंत्रों का प्रयोग करना भी हराम है ,क्योंकि यह हिदू धर्म में भजन कीर्तन के रूप में इस्तेमाल किया जाता है .इसलिए चालाक मुसलमानों ने सोचा कि यदि संगीत के माध्यम से हिन्दुओं में इस्लाम के प्रति रूचि पैदा की जाये तो उनका धर्म परिवर्तन करना सरल होगा.इसका परिणाम यह हुआ कि कुछ हिन्दुओं ने तो मुसलमानों के आचार विचार , खानपान अपना लिए ,लेकिन मुसलमान हिन्दुओं से हमेशा दूरी बनाये रखे. फिर मुसलमानों ने एक ऐसी कृत्रिम वर्णसंकर "धर्मनिरपेक्षता" तहजीब बना डाली , जिसका नाम गंगाजमुनी तहजीब रख दिया . इसे हिन्दू मुस्लिम एकता ,प्रतीक बता दिया ,बाद में मुसलमानों और दोगले हिन्दुओं ने इसका नाम "धर्मनिरपेक्षता" का नाम दे दिया .मुस्लिम शासकों ने तो हिन्दुओं की खतना करा कर मुस्लमान बना दिया था .लेकिन इस "धर्मनिरपेक्षता" ने हिन्दुओं की खस्सी कर दी . जिस से उनमे अन्याय और अत्याचार के विरुद्ध लड़ने की शक्ति समाप्त हो गयी .इसमे संगीत का भी बड़ा योगदान है ,जिसे"सूफी संगीत"कहा जाता है .मूर्ख हिन्दू अरबी फारसी जाने बिना ही इस संगीत को एकता का मानते हैं . भारत में इसे कव्वाली भी कहा जाता है .जिसका अविष्कार अमीर खुसरो ने किया था जो कट्टर हिन्दू विरोधी था .
7-अमीर खुसरो की धर्मनिरपेक्षता ?
इसका पूरा नाम "अबुल हसन यमीनुद्दीन ख़ुसरौ : ابوالحسن یمین‌الدین خسرو" था .इसका जन्म सन 1253 में उत्तर प्रदेश के शहर बदायूँ में हुआ था .इसके पिता का नाम अमीर सैफुद्दीन था. जो ईरान के बलख शहर से भारत में सैनिक बनने के लिए आया था .अमीर खसरो को संगीत शायरी का शौक था,लोग उसे "अमीर ख़ुसरौ दहलवी :امیر خسرو دہلوی "भी कहते थे .बड़े दुःख की बात है किजो लोग खसरो की बनायीं गजलों को सुन कर झुमने लगते हैं . और उसी को हिन्दू मुस्लिम एकता का साधन बताते हैं , वह नहीं जानते कि खुसरो संगीत से एकता नहीं नफ़रत फैलाता था . और एक क्षद्म जिहादी था , हमारे धर्मनिरपेक्ष शासकों द्वारा बहुधा प्रशंसित धर्मनिरपेक्ष अमीर खुसरो अपनी मसनवी" Qiranus-Sa'dain" में लिखता है-
जहां रा कि दीदम ईँ रस्म पेश ,
कि हिन्दू बुवद सैदे तुर्कां हमेश .1
अज बेहतरे निस्बते तुर्को हिन्दू ,
कि तुर्क अस्त चूँ शेर हिन्दू चूं आहू .2
जि रस्मे कि रफ्त अस्त चर्खे र वाँ रा ,
वुजूद अज पये तुर्क शुद हिंदुआं रा .3
कि तुर्क अस्त ग़ालिब बर ईशां चूँ कोशद ,
कि हम गीरद हम खरद औ हम फ़रोशद .4
अर्थात्‌'संसार का यह नियम अनादिकाल से चला आ रहा है कि हिन्दू सदा तुर्कों का अधीन रहा है. 1
तुर्क और हिन्दू का संबंध इससे बेहतर नहीं कहा जा सकता है कि तुर्क सिंह के समान है और हिन्दू हिरन के समान.2
आकाश की गर्दिश से यह परम्परा बनी हुई है कि हिन्दुओं का अस्तित्व तुर्कों के लिये ही है. 3
क्योंकि तुर्क हमेशा गालिब होता है और यदि वह जरा भी प्रयत्न करें तो हिन्दू को जब चाहे पकड़े, खरीदे या बेचे।' 4
अब हिन्दू समाज को खास तौर पर युवकों को गंभीरता से सोचना चाहिए कि वह सेकुलर बनकर इस्लाम के सेकुलर आतंकवाद के जाल में तो नहीं फसते जा रहे हैं . या सेकुलर बन कर गांधी , और अन्ना जैसे कायर बनना पसंद करेंगे जो भूख से मर जाने को ही हर समस्या का हल बताता है . या आप गुरु गोविन्द सिंह , शिवाजी , बोस , आजाद और ऊधम सिंह जैसे धार्मिक बनना पसंद करंगे और हाथ फ़ैलाने की जगह अपने अधिकार छीन लेंगे .और ईंट का जवाब पत्थर से देंगे .
याद रखिये धर्मनिरपेक्षता जिहाद का ही एक रूप है

Monday, October 7, 2013

वीर शेर सिहं राणा द्वारा लिए गए पृथ्वीराज चौहान की अस्थि स्थल की फोटो


शेरे हिन्द हिन्दुस्तान गौरव शेर सिहं राणा...
शेर सिहं राणा का जीवन परिचय इस लिंक पर देखे-http://en.m.wikipedia.org/wiki/Sher_Singh_Rana
शेर सिह राणा वह महान व्यक्ति है जो महाराजा पृथ्वीराज चौहान की अस्थियो को अफगानिस्तान से भारत लाया ओर उनका एक पुत्र के समान गंगा मे प्रवाहित कर कानपुर मे उनका समाधि स्थल बनवाया।
इतिहास अनुसार पृथ्वीराज चौहान ओर मोहम्मद गौरी मे तराईन का द्वितीय युध्द हुआ जिसमे छल ओर कपट से गौरी ने पृथ्वीराज को बंदी बनाकर गजनी ले गया ओर वहा उनको अंधाकर शारिरीक मानसिक यात्नाए देने लगा फिर दिल्ली से चंदबरदाई ने जाकर पृथ्वीराज की मदद की ओर गोरी को मार गिरवाया ओर स्वंय आपस मे एक दूसरे को मार गिया..







इस कथन को कुछ भारतीय इतिहासकारो जो कि सैकुलर थे या फिर नेहरू प्रजाति के थे उनहोने इस कथन को झूठ कहा ओर लोगो को भ्रम मे डालने लगे कि पृथ्वीराज तो गौरी से युध्द मे रण भूमि मे ही खत्म हो गए थे..इस तरह इतिहासकारो ने इस रहस्य को पहेली बना दिया..
(गजनी: यह महाराजा गजसिहं के द्वारा बसाया गया था इसलिए इसे गजनी कहते है,उनहे गौरी ने मार दिया ओर स्वयं गजनी का सुलतान बन गया)
लेकिन जब इन्डियन एयर लाईन को काठमांडू से हाईजैक कर आतंकियो द्वारा अफगान ले जाया गया तब उस विमान मे उपस्थित एक पत्रकार ने इस बात का खुलासा किया कि गजनी मे पृथ्वीराज,चन्द्र बरदाई ओर गौरी की कब्र बनी है ओर पृथ्वीराज की उस कब्र का अपमान किया जाता है..
पृथवीराज की अस्थियो का अपमान वहा का मुस्लिम समुदाय उन अस्थियो पर जूते मारता है ओर कभी कभी गौ बलि भी देते है..
फिर वे लोग गौरी की कब्र पर जा कर उसे चूमते है ओर अपना सिर झूकाते है..
पृथ्वीराज के अस्थि स्थल पर अरबी मे लिखा है कि सुलतान चौहान जिसने हमारे सुलतान गौरी को धोखे से मारा..इस खबर के बाद क्षत्रिय महासभा ने कई जगह धरने प्रदर्शन किए कि पृथ्वीराज की अस्थियो को भारत लाया जाए लेकिन सरकार इसमे सफल नही हुई या फिर सरकार ने कोई प्रयास ही नही किया..लेकिन तिहाड जैल मे बंद शेर सिहं राणा ने यह करने की ठानी वे 2004 मे तिहाड जैल से भागने मे सफल हुए ओर झारखंड जाकर संजय गुप्ता नाम से अपना फर्जी पहचान पत्र बनवाया..वहा से वे बांगलादेश चले गए..दिसंबर 2004 मे उनहोने मुबई से अफगानिस्तान का बीजा बनवाया चुकि उस समय दिल्ली से अफगान जाना आसान नही था तो वे दुबई से अफगानिस्तान पहुचे..वहा वे कठिन परिश्रम कर पृथ्वीराज चौहान की अस्थियो को मार्च 2005 मे सफलता पूर्वक भारत ले आए..
हमने ऊपर जो चित्र लगाए है वे शेर सिहं राणा द्वारा बहुत सावधानीपूर्वक ओर सूझबूझ से लिए गए है क्युकि पृथ्वीराज चौहान की अस्थि सथल के आसपास के सारे घर तालिबानो के है जिनमे प्रत्येक घर मे 50 हथियार तो होगे ही..ऐसे मे वहा जाना किसी हिन्दु के लिए मौत के मुह मे जाने जैसा है....
शेर सिहं राणा ने इस कार्य को बडी सूझबूझ के साथ पूरा किया है वे वास्तव मे पृथ्वीराज के पुत्र थे...
राजपुत गौरव शेर सिहं राणा की जय..
जय माता दी..
http://www.bookadda.com/books/jail-diary-sher-singh-9350293285-9789350293287

Friday, October 4, 2013

प्राचीन भारत के हिन्दू अस्त्र-शस्त्र



प्राचीन भारत के हिन्दू अस्त्र-शस्त्र विद्या में निपुण थे, उन्होंने अध्यात्म-ज्ञान के साथ-साथ आततियों और दुष्टों के दमन के लिये सभी अस्त्र-शस्त्रों की भी सृष्टि की थी, हिन्दुओं की यह शक्ति धर्म-स्थापना में सहायक होती थी, प्राचीन काल में जिन अस्त्र-शस्त्रों का उपयोग होता था, उनका वर्णन इस प्रकार है:
अस्त्र: अस्त्र उसे कहते हैं, जिसे मन्त्रों के द्वारा दूरी से फेंकते हैं, वे अग्नि, गैस और विद्युत तथा यान्त्रिक उपायों से चलते हैं, दैवी अस्त्र वे आयुध हैं जो मन्त्रों से चलाये जाते हैं, प्रत्येक शस्त्र पर भिन्न-भिन्न देव या देवी का अधिकार होता है और मन्त्र-तन्त्र के द्वारा उसका संचालन होता है. वस्तुत: इन्हें दिव्य तथा मान्त्रिक-अस्त्र कहते हैं, इन बाणों के कुछ प्रमुख रूप इस प्रकार हैं:
आग्नेय: यह विस्फोटक बाण है, यह जल के समान अग्नि बरसाकर सब कुछ भस्मीभूत कर देता है, इसका प्रतिकार पर्जन्य है.
पर्जन्य: यह आग्नेय का प्रतिकार बाण है, यह जल बरसाकर अग्नि को शांत कर देता है.
वायव्य: इस बाण से भयंकर तूफान आता है और अन्धकार छा जाता है.
पन्नग: इससे सर्प पैदा होते हैं, इसके प्रतिकार स्वरूप गरुड़ बाण छोड़ा जाता है.
गरुड़: इस बाण के चलते ही गरुड़ उत्पन्न होते है, जो सर्पों को खा जाते हैं.
महाअस्त्र: इनमे तीन दिव्यास्त्र आते है:
ब्रह्मास्त्र: ये परमपिता ब्रम्हा का अस्त्र मन जाता है. यह अचूक विकराल अस्त्र है, शत्रु का नाश करके छोड़ता है, इसका प्रतिकार दूसरे ब्रह्मास्त्र से ही हो सकता है, अन्यथा नहीं, प्राचीन काल के अस्त्रों में ये सर्वाधिक प्रसिद्द अस्त्र है.
वैष्णव: ये भगवान विष्णु का अस्त्र है. इस अस्त्र का कोई प्रतिकार ही नहीं है, यह बाण चलाने पर अखिल विश्व में कोई शक्ति इसका मुक़ाबला नहीं कर सकती, इसका केवल एक ही प्रतिकार है और वह यह है कि शत्रु अस्त्र छोड़कर नम्रतापूर्वक अपने को अर्पित कर दे, कहीं भी हो, यह बाण वहाँ जाकर ही भेद करता है. इस बाण के सामने झुक जाने पर यह अपना प्रभाव नहीं करता.
पाशुपत: ये भगवान शिव का अस्त्र है. इससे विश्व नाश हो जाता हैं यह बाण महाभारतकाल में केवल अर्जुन के पास था, इस अस्त्र का संधान केवल दुष्टों पर किया जा सकता है अन्यथा ये पलट कर चलने वाले को ही समाप्त कर देता है.
शस्त्र: शस्त्र ख़तरनाक हथियार हैं, जिनके प्रहार से चोट पहुँचती है और मृत्यु होती है, ये हथियार अधिक उपयोग किये जाते हैं, शस्त्र वे हैं, जो यान्त्रिक उपाय से फेंके जाते हैं, शस्त्रों के लिये देवी और देवताओं की आवश्यकता नहीं पड़ती, ये भयकंर अस्त्र हैं और स्वयं ही अग्नि, गैस या विद्युत आदि से चलते हैं, कुछ अस्त्र-शस्त्रों का वर्णन, जिनका प्राचीन संस्कृत-ग्रन्थों में उल्लेख है:
शक्ति: यह लंबाई में गजभर होती है, उसका हेंडल बड़ा होता है, उसका मुँह सिंह के समान होता है और उसमें बड़ी तेज जीभ और पंजे होते हैं, उसका रंग नीला होता है और उसमें छोटी-छोटी घंटियाँ लगी होती हैं, यह बड़ी भारी होती है और दोनों हाथों से फेंकी जाती है, रामायण में लक्ष्मण रावण के शक्ति से ही घायल होते है.
तोमर: यह लोहे का बना होता है, यह बाण की शकल में होता है और इसमें लोहे का मुँह बना होता है साँप की तरह इसका रूप होता है इसका धड़ लकड़ी का होता है, नीचे की तरफ पंख लगाये जाते हैं, जिससे वह आसानी से उड़ सके, यह प्राय: डेढ़ गज़ लंबा होता है इसका रंग लाल होता है रामायण में इसका काफी वर्णन दिया है.
पाश: ये कई प्रकार के होते हैं: नागपाश, वरुणपाश, साधारण पाश इत्यादि. इस्पात के महीन तारों को बटकर ये बनाये जाते हैं, एक सिर त्रिकोणवत होता है। नीचे जस्ते की गोलियाँ लगी होती हैं, कहीं-कहीं इसका दूसरा वर्णन भी है, वहाँ लिखा है कि वह पाँच गज़ का होता है और सन, रूई, घास या चमड़े के तार से बनता है, इन तारों को बटकर इसे बनाते हैं, यमराज का ये प्रधान अस्त्र मन जाता है.
ऋष्टि: यह सर्वसाधारण का शस्त्र है, पर यह बहुत प्राचीन है, कोई-कोई उसे तलवार का भी रूप बताते हैं, सामान्य सैनिक इसे इस्तेमाल करते थे.
गदा: इसका हाथ पतला और नीचे का हिस्सा वज़नदार होता है, इसकी लंबाई ज़मीन से छाती तक होती है, इसका वज़न बीस मन तक होता है, एक-एक हाथ से दो-दो गदाएँ उठायी जाती थीं, रामायण एवं महाभारत में इसका काफी वर्णन है. भगवान विष्णु, हनुमान, भीम, बलराम, दुर्योधन, जरासंध, शल्य इत्यादि का ये प्रधान शास्त्र था.
मुगदर: इसे साधारणतया एक हाथ से उठाते हैं, कहीं यह बताया है कि वह हथौड़े के समान भी होता है, राक्षसों में ये अस्त्र बहुत प्रसिद्द था.
चक्र: ये दूर से फेंका जाने वाला नुकीला गोल हथियार होता था. भगवान विष्णु तथा श्री कृष्ण का ये प्रधान हथियार माना जाता है.
वज्र: इसके दो प्रकार होते थे: कुलिश तथा अशानि. इसके ऊपर के तीन भाग तिरछे-टेढ़े बने होते हैं,बीच का हिस्सा पतला होता है, पर हाथ बड़ा वज़नदार होता है, ये इन्द्र का प्रधान हथियार था.
त्रिशूल: इसके तीन सिर होते हैं, ये भगवान शिव का प्रधान हथियार माना जाता है.
शूल: इसका एक सिर नुकीला, तेज होता है शरीर में भेद करते ही प्राण उड़ जाते हैं.
असि: तलवार को कहते हैं यह शस्त्र किसी रूप में पिछले काल तक उपयोग होता रहा किसी भी सेना में ये सबसे ज्यादा प्रयुक्त होने वाला शस्त्र था.
खड्ग: ये तलवार का ही विशाल रूप है जो बलिदान का शस्त्र माना जाता है। दुर्गाचण्डी का ये प्रधान शस्त्र माना जाता है.
चन्द्रहास: टेढ़ी तलवार के समान वक्र कृपाण है ये महाकाल का शस्त्र माना जाता है. भगवान शिव ने प्रसन्न होकर इसे रावण को प्रदान किया था इसी से ये रावण के प्रमुख शस्त्रों में एक था.
फरसा: यह कुल्हाड़ा है पर यह युद्ध का आयुध है राक्षसों का ये प्रमुख शस्त्र था.
मुशल: यह गदा के सदृश होता है, जो दूर से फेंका जाता है.
धनुष: इसका उपयोग बाण चलाने के लिये होता है किसी भी युद्ध में प्रयुक्त शस्त्रों में ये सर्वाधिक प्रसिद्ध शस्त्र है. अस्त्रों के संधान के लिए ये सबसे अधिक प्रयुक्त शस्त्र था. श्रीराम, कर्ण, अर्जुन इत्यादि का ये प्रमुख शस्त्र था.
बाण: सायक, शर और तीर, नाराच, सूचीमुख आदि बाण भिन्न-भिन्न प्रकार के होते हैं हमने ऊपर कई बाणों का वर्णन किया है उनके गुण और कर्म भिन्न-भिन्न हैं.
परिघ: इसमें एक लोहे की मूठ है दूसरे रूप में यह लोहे की छड़ी भी होती है और तीसरे रूप के सिरे पर बजनदार मुँह बना होता है ये प्रायः द्वन्द युद्ध के समय प्रोयोग किया जाता था.
भिन्दिपाल: ये लोहे का बना होता है इसे हाथ से फेंकते हैं इसके भीतर से भी बाण फेंकते हैं.
परशु: यह छुरे के समान होता है, इसके नीचे लोहे का एक चौकोर मुँह लगा होता है, यह दो गज़ लंबा होता है, महर्षि परशुराम ये प्रधान शस्त्र था.
कुण्टा: इसका ऊपरी हिस्सा हल के समान होता है, इसके बीच की लंबाई पाँच गज़ की होती है.
शंकु: बर्छी वाला भाला.
पट्टिश: ये एक प्रकार का कुल्हाड़ा है.
इन अस्त्रों के अतिरिक्त अन्य अनेक अस्त्र हैं, भुशुण्डी आदि अनेक शस्त्रों का वर्णन पुराणों में है..

स्वास्तिक

स्वास्तिक की गिनती हिंदू धर्म के प्राचीनतम् और प्रतित्रतम् प्रतीकों में की जाती है। भारतीय संस्कृति में स्वास्तिक को मंगल-प्रतीक माना जाता रहा है। किसी भी मंगल धार्मिक आयोजन से पूर्व स्वास्तिक का पूजन अवश्य किया जाता है। मान्यता है कि स्वास्तिक बनाने से हमारे सभी कार्य निर्विघ्न संपूर्ण हो जाते हैं। स्वास्तिक धनात्मक ऊर्जा का भी प्रतीक है, इसे बनाने से हमारे आसपास से नकारात्मक ऊर्जा दूर हो जाती है। इसे हमारे सभी व्रत, पर्व, त्योहार, पूजा एवं हर मांगलिक अवसर पर कुंकुम से अंकित किया जाता है एवं भावपूर्वक ईश्वर से प्रार्थना की जाती है कि हे प्रभु! मेरा कार्य निर्विघ्न सफल हो और हमारे घर में जो अन्न, वस्त्र, वैभव आदि आएं,वह पवित्र बनें।

स्वास्तिक के प्रयोग से धनवृद्धि, गृहशान्ति, रोग निवारण, वास्तुदोष निवारण, भौतिक कामनाओं की पूर्ति, तनाव, अनिद्रा, चिन्ता रोग, क्लेश, निर्धनता एवं शत्रुता से मुक्ति भी दिलाता है। ऊं एवं स्वस्तिक का सामूहिक प्रयोग नकारात्मक ऊर्जा को शीघ्रता से दूर करता है। हल्दी से अंकित स्वास्तिक शत्रु शमन करता है। स्वास्तिक 27 नक्षत्रों का सन्तुलित करके सकारात्मक ऊर्जा प्रदान करता है।
स्वास्तिक का अर्थ
स्वास्तिक शब्द सु+अस+क से बना है। सु का अर्थ अच्छा, अस का अर्थ सत्ता या अस्तित्व और क का अर्थ है कर्ता या करने वाला। इस प्रकार स्वास्तिक शब्द का अर्थ हुआ अच्छा या मंगल करने वाला। इसलिए देवता का तेज़ शुभ करनेवाला – स्वास्तिक करने वाला है और उसकी गति सिद्ध चिह्न स्वास्तिक कहा गया है।
स्वास्तिक की आकृति
भारत में स्वस्तिक का रूपांकन छह रेखाओं के प्रयोग से होता है। स्वस्तिक में एक दूसरे को काटती हुई दो सीधी रेखाएँ होती हैं, जो आगे चलकर मुड़ जाती हैं। इसके बाद भी ये रेखाएँ अपने सिरों पर थोड़ी और आगे की तरफ मुड़ी होती हैं। धन चिह्न बनाकर उसकी चारों भुजाओं के कोने से समकोण बनाने वाली एक रेखा दाहिनी ओर खींचने से भी स्वास्तिक बन जाता है। रेखा खींचने का कार्य ऊपरी भुजा से प्रारम्भ करना चाहिए। इसमें दक्षिणवर्ती गति होती है। जहा दाईं ओर मुडी भुजा वाला स्वस्तिक शुभ एवं सौभाग्यवर्द्धक हैं, वहीं उल्टा (वामावर्त) स्वस्तिक को अमांगलिक, हानिकारक माना गया है ।
स्वास्तिक की ऊर्जा
स्वस्तिक का आकृति सदैव कुमकुम (कुंकुम), सिन्दूर व अष्टगंध से ही अंकित करना चाहिए।यदि आधुनिक दृ्ष्टिकोण से देखा जाए तो अब तो विज्ञान भी स्वस्तिक, इत्यादि माँगलिक चिह्नों की महता स्वीकार करने लगा है । मृत मानव शरीर का बोविस शून्य माना गया है और मानव में औसत ऊर्जा क्षेत्र 6,500 बोविस पाया गया है। वैज्ञानिक हार्टमेण्ट अनसर्ट ने आवेएंटिना नामक यन्त्र द्वारा विधिवत पूर्ण लाल कुंकुम से अंकित स्वस्तिक की सकारात्मक ऊर्जा को 100000 बोविस यूनिट में नापा है।यदि इसे उल्टा बना दिया जाए तो यह प्रतिकूल ऊर्जा को इसी अनुपात में बढ़ाता है। इसी स्वस्तिक को थोड़ा टेड़ा बना देने पर इसकी ऊर्जा मात्र 1,000 बोविस रह जाती है। ऊं (70000 बोविस) चिह्न से भी अधिक सकारात्मक ऊर्जा स्वस्तिक में है।
लाल रंग का स्वास्तिक
भारतीय संस्कृति में लाल रंग का सर्वाधिक महत्व है और मांगलिक कार्यों में इसका प्रयोग सिन्दूर, रोली या कुंकुम के रूप में किया जाता है। सभी देवताओं की प्रतिमा पर रोली का टीका लगाया जाता है। लाल रंग शौर्य एवं विजय का प्रतीक है। लाल टीका तेजस्विता, पराक्त्रम, गौरव और यश का प्रतीक माना गया है। यह रंग लोगों के शारीरिक व मानसिक स्तर को शीघ्र प्रभावित करता है। यह रंग शक्तिशाली व मौलिक है। यह रंग मंगल ग्रह का है जो स्वयं ही साहस, पराक्त्रम, बल व शक्ति का प्रतीक है। यह सजीवता का प्रतीक है और हमारे शरीर में व्याप्त होकर प्राण शक्ति का पोषक है। मूलतः यह रंग ऊर्जा, शक्ति, स्फूर्ति एवं महत्वकांक्षा का प्रतीक है। नारी के जीवन में इसका विशेष स्थान है और उसके सुहाग चिह्न व श्रृंगार में सर्वाधिक प्रयुक्त होता है। स्त्री के मांग का सिन्दूर, माथे की बिन्दी, हाथों की चूडि़यां, पांव का आलता, महावर, करवाचौथ की साड़ी, शादी का जोड़ा एवं प्रेमिका को दिया लाल गुलाब आदि सभी लाल रंग की महत्ता है। शरीर में लाल रंग की कमी से अनेक रोग उत्पन्न हो जाते हैं। इन सब तथ्यों से प्रमाणित होता है कि स्वास्तिक लाल रंग से ही अंकित किया जाना चाहिए या बनाना चाहिए।
स्वस्ति मंत्र
किसी भी मंगल कार्य के प्रारम्भ में स्वस्ति मंत्र बोलकर कार्य की शुभ शुरुआत की जाती है।
यह मंत्र है -स्वस्ति न इंद्रो वृद्ध-श्रवा-हा स्वस्ति न-ह पूषा विश्व-वेदा-हा । स्वस्ति न-ह ताक्षयो अरिष्ट-नेमि-हि स्वस्ति नो बृहस्पति-हि-दधातु ॥इसका अर्थ है-महान कीर्ति वाले इन्द्र हमारा कल्याण करो, विश्व के ज्ञानस्वरूप पूषादेव हमारा कल्याण करो। जिसका हथियार अटूट है ऐसे गरूड़ भगवान हमारा मंगल करो। बृहस्पति हमारा मंगल करो। इस मंत्र में चार बार स्वस्ति शब्द आता है। जिसका मतलब होता है कि इसमें भी चार बार मंगल और शुभ की कामना से श्री गणेश का ध्यान और आवाहन किया गया है। इसमें व्यावहारिक जीवन का पक्ष खोजें तो पाते हैं कि जहां शुभ, मंगल और कल्याण का भाव होता है,वहीं स्वास्तिक का वास होता है।

यह पढ़ाया जा रहा है आपके बच्चों व देश के नौनिहालों को.

वैदिक काल में विशिष्ट अतिथियों के लिए गोमांस का परोसा जाना सम्मान सूचक माना जाता था। (कक्षा 6-प्राचीन भारत, पृष्ठ 35,लेखिका-रोमिला थापर) महमूद गजनवी ने मूर्तियों को तोड़ा और इससे वह धार्मिक नेता बन गया। (कक्षा 7-मध्यकालीन भारत, पृष्ठ 28) 1857 का स्वतंत्रता संग्राम एक सैनिक विद्रोह था। (कक्षा 8-सामाजिक विज्ञान भाग-1, आधुनिक भारत, पृष्ठ 166, लेखक-अर्जुन देव, इन्दिरा अर्जुन देव) महावीर 12 वर्षों तक जहां- तहां भटकते रहे। 12 वर्ष की लम्बी यात्रा के दौरान उन्होंने एक बार भी अपने वस्त्र नहीं बदले। 42 वर्ष की आयु में उन्होंने वस्त्र का एकदम त्याग कर दिया। (कक्षा 11, प्राचीन भारत, पृष्ठ 101, लेखक-रामशरण शर्मा) तीर्थंकर, जो अधिकतर मध्य गंगा के मैदान में उत्पन्न हुए और जिन्होंने बिहार में निर्वाण प्राप्त किया, की मिथक कथा जैन सम्प्रदाय की प्राचीनता सिद्ध करने के लिए गढ़ ली गई। (कक्षा 11-प्राचीन भारत, पृष्ठ 101,...202..-रामशरण शर्मा) जाटों ने, गरीब हो या धनी, जागीरदार हो या किसान , हिन्दू हो या मुसलमान, सबको लूटा। (कक्षा 12 - आधुनिक भारत, पृष्ठ 18-19, विपिन चन्द्र) रणजीत सिंह अपने सिंहासन से उतरकर मुसलमान फकीरोंके पैरों की धूल अपनी लम्बी सफेद दाढ़ी से झाड़ता था। (कक्षा 12 -पृष्ठ 20, विपिन चन्द्र) आर्य समाज ने हिन्दुओं, मुसलमानों, पारसियों, सिखों और ईसाइयों के बीच पनप रही राष्ट्रीय एकता को भंग करने का प्रयास किया। (कक्षा 12-आधुनिक भारत, पृष्ठ 183, लेखक-विपिन चन्द्र) तिलक, अरविन्द घोष, विपिनचन्द्र पाल और लाला लाजपतराय जैसे नेता उग्रवादी तथा आतंकवादी थे (कक्षा 12-आधुनिक भारत-विपिन चन्द्र, पृष्ठ 208) 400 वर्ष ईसा पूर्व अयोध्या का कोई अस्तित्व नहीं था। महाभारत और रामायण कल्पित महाकाव्य हैं। (कक्षा 11, पृष्ठ 107,मध्यकालीन इतिहास, आर.एस. शर्मा) वीर पृथ्वीराज चौहान मैदान छोड़कर भाग गया और गद्दार जयचन्द गोरी के खिलाफ युद्धभूमि मेंलड़ते हुए मारा गया। (कक्षा 11, मध्यकालीन भारत, प्रो. सतीश चन्द्..3...औरंगजेब जिन्दा पीर थे। (मध्यकालीन भारत, पृष्ठ 316, लेखक- प्रो. सतीश चन्द्र) राम और कृष्ण का कोई अस्तित्व ही नहीं था। वे केवल काल्पनिक कहानियां हैं। (मध्यकालीन भारत, पृष्ठ 245, रोमिला थापर) (ऐसी और भी बहुत सी आपत्तिजनक बाते आपको एन.सी.आर.टी. की किताबों में पढ़ने को मिल जायेंगी इन किताबों में जो छापा जा रहा हैं उनमें रोमिला थापर जैसी लेखको ने मुसलमानों द्वारा धर्म के नाम पर काफ़िर हिन्दुओं के ऊपर किये गये भयानक अत्याचारोंको गायब कर दिया है. नकली धर्मनिरपेक्षतावादी नेताओं की शह पर झूठा इतिहास लिखकर एक समुदाय की हिंसक मानसिकता पर जानबूझकर पर्दा ड़ाला जा रहा है. इन भयानक अत्याचारों को सदियों से चली आ रही गंगा जमुनी संस्कृति, अनेकता में एकता और धार्मिक सहिष्णुता बताकर नौजवान पीढ़ी को धोखा दिया जा रहा है. उन्हें अंधकार में रखा जा रहा है. भविष्य में इसका परिणाम बहुत खतरनाक होगा क्योकि नयी पीढ़ी ऐसे मुसलमानों की मानसिकता न जानने के कारण उनसे असावधान रहेगी और खतरे में पड़ जायेगी. अगर इस प्रकार हमारे इतिहास की तोड़ मरोर होती रही तो दिन दुर नही अपनी सही पहचान भुलकर इन इतिहास लिखनए वाले भ्रस्ट चमचो द्वारा बताए को सही मानकर अपने इतिहास और पूर्वजो को भूल जायेंगे 

प्रदक्षिणा क्योँ करते हैँ और इसकी वैज्ञानिकता क्या ?

- हर गोल घुमने वाली वस्तु के घुमने से आकर्षण शक्ति उत्पन्न होती है .
- इस ब्रम्हांड में सभी ग्रह सूर्य की प्रदक्षिणा कर रहे है . जिससे उनमे आकर्षण शक्ति उत्पन्न होती है .
- पृथ्वी और सभी ग्रह अपने इर्द गिर्द ही प्रदक्षिणा कर रही है .(परिभ्रमण+घूर् णन)
- अपने हाथ में बाल्टी में पानी रख जोर सेगोल घुमे तो पानी नहीं गिरेगा .उसी तरह जब पृथ्वी घूम रही है तो उस पर के सभी जड़पदार्थ उसी पर रहते है .
(अभिकेन्द्र बल~अपकेन्द्र बल)
- हर अणु में इलक्ट्रोन भी प्रदक्षिणाकर रहें है .
(electrogentic rounding)
- तक्र से माखन बिलोते समय भी उसे गोल गोलघुमाने से उसमे ब्रम्हांड में मौजूद शक्ति आकर्षित होती है .(अभिकेन्द्र~अप केन्द्र)
- इस शक्ति को अनुभव करना हो तो अपने हाथों को इस तरह रखे जैसे उसमे गेंद पकडेहो . अब हाथों को कंधे तक उठाकर उन्हें ऐसे घुमाए जैसे डमरू बजा रहे हो . थोड़ी ही देर में उँगलियों में भारीपन महसूस होगा . यहीं ब्रम्हांड से आकर्षित शक्ति का अनुभव है . अब हल्की सी ताली बजाते हुएइसे अपने अन्दर समाहित कर ले .
- इसी प्रकार जब हम ईश्वर के आस पास परिक्रमा करते है तो हमारी तरफ ईश्वर(प्रत्यक्ष तः प्राकृतीय) की सकारात्मक शक्ति आकृष्ट होती है और जीवनकी नकारात्मकता घटती है . कई बार हम स्वयं के इर्द गिर्द ही प्रदक्षिणाकर लेते है . इससे भी ईश्वरीय(प्राकृत ीय) शक्ति आकृष्ट होती है .नकारात्मकता से ही पाप उत्पन्न होते है . तभी तो ये मन्त्र प्रदक्षिणा करते समय बोला जाता है --
यानी कानी च पापानि , जन्मान्तर कृतानि च|
तानी तानी विनश्यन्ति , प्रदक्षिण पदेपदे ||
- प्राण प्रतिष्ठित ईश्वरीय प्रतिमा की ,पवित्र वृक्ष की , यज्ञ या हवन कुंड की परिक्रमा की जाती है जिससे उसकी सकारात्मक शक्ति हमारी तरफ आकृष्ट हो . सूर्य को देखकर या मूर्ति के सामने हम अपने इर्द गिर्द ही घूम लेते है|

हिटलर की सेना ने स्वस्तिक चिन्ह भारत से चुराया था !

दोस्तों आप को याद होगा की जर्मनी के तानाशाहहिटलर की सेना का चिन्ह स्वस्तिक था जो की में बड़े गर्व के साथ कह रहा हु की हिटलर की सेना ने यह हमसे चुराया था !
स्वस्तिक चिन्ह से चारो कालचक्र(सत,त्रे ता,द्वापर, कलि) पर ध्यान लगा कर उनसे मुक्त होना सिखाया जाता था !जब ये बात हिटलर को पता चली तो उसके कुछ बेहद ही वफादार साथियो ने हिमालय में तिब्बत की और रुख किया तथा वेदों और महाभारत का अध्यन किया ,जिससे की स्वस्तिकउनकी टाइम मशीन बनाने का व चारो यूग में राज करने का प्रेरणा स्त्रोत बना (यह उनका गुप्ताप्रयोग था )!



स्वस्तिक सकारात्मक उर्जा व प्रसिद्धि का सूचक है तथा इसका प्रयोग हमारे ऋषि मुनियों द्वारा अपने दिमाग की सकारात्मक प्रोग्रामिंग करने के लिए किया जाता था अर्थात स्वस्तिक को देखते से ही अपने आप सकारात्मक भावना उत्पन्न होने लगे !

गंगाजल से पाप कैसे धुलते हैं ?

गंगाजल बहुत ही पवित्र होता है । गंगाजल कितने ही वर्षों रखा रहे उसमे कभी जीव नही पड़ते या खराब नही होता । गंगाजल मे पानी मिलाकर रखने पर भी कभी खराब नही होता । कुछ तोखास बात है गंगाजल मे । निश्चय ही गंगाजल बहुत ही पवित्र है और यह विषाणुओ का प्रतिरोधक है । गंगाजल हमारे पाप धो डालता हैअब पाप क्या है जिसे गंगाजल धो डालता है ?पाप हमारे बुरे कर्मो व अन्य दूसरे कारणो सेहमारे शरीर मे अनेक विषाणु विकसित हो जाते हैं जिनहे गंगाजल सूक्ष्म रॉम छिद्रों द्वारा नष्ट कर देता है और विषाणुओं से लड़नेमे शरीर की ऊर्जा का जो व्यर्थ व्यय होताहै उससे बचाता है और तन-मन मे नई ऊर्जा का संचारकरता है जिससे दिव्य शक्तियों का विकासहोता है ।भागीरथजी ने गंगा मैया को घोर तप के बाद अंतरिक्ष से इस धरती पर उतारा है जिससे उनके सभीपूर्वजों की मृत आत्माओं को मुक्ति प्राप्त हुई । जो यह भी बताता है गंगाजल घर मेछिड़कते रहना चाहिए जिससे बुरे प्रभाव नष्ट होते हैं । शमशान से आने के बाद भी गंगाजल छिड़का जाता है । क्यूंकी मृत शरीर मे तुरंत ही एसे विष्णु पनप जाते हैं जो साधारण स्नान आदि से समाप्त नही होते । इसीलिए नीम की पत्तियां भी साथ लाते हैं । यदि ध्यान से देखा जाय तो हिंदुओं सारा ध्यान विषाणुओं को समाप्त करने और बचने पर ही दिया जाता है
गंगाजल की बात तो सभी करते हैं परंतु गंगाजलकरता क्या है यह कोई नही बताता , गंगाजल से हमारे पाप कैसे धूल जाते हैं यह जानना भी जरूरी है । जब यह पता होगा तब गंगाजलका वास्तविक लाभ प्राप्त होगा । गंगा का जल इस धरती का नही हो सकता शास्त्रनुसार यह आकाशीय प्रक्रिया है नही तो ध्रुवों का पानी लाकर देख लो
जय हो गंगा मैया की

!! हिन्दू सनातन धर्र्म में मांसाहार बर्जित है !!

ऋग्वेद, यजुर्वेद, महाभारत, रामायण तथा अन्य वैदिक ग्रंथो में मदिरा सेवन व् मांसाहार की घोर निंदा की गई हे.और इसके कई सारे प्रमाण ग्रंथो में मिलते हे. दीर्घ द्रष्टा ऋषियो ने इसको दुर्व्यसन व् अधःपतन का प्रमुख कारण माना हे. मनुस्मृति, पराशर स्मृति, याज्ञवल्क्य स्मृति में भी इसका निषेध किया गया हे.
आर्य संस्कृति और सनातन धर्म ऐसे दुर्व्यसनो का हमेसा विरोधी रहा हे. यह बात का ध्यान रखा जाए. अगर कोई हिन्दू वैदिक काल का प्रमाण देकर मदिरापान औरमांसाहार करता हे तो वह गलत होगा. और साथ ही आज वर्तमान में भी कुछ देवी-देवताओ को मदिरा व्पशु बलि अर्पण की जाती हे लेकिन इसका अर्थ यह नहीं हे की इसका सम्बन्ध वैदिक संस्कृति से हे. यह एक अंधश्रद्धा मात्र हे. क्युकी देवी देवता को मांस और बलि अर्पण करना वैदिक संस्कृति में नहीं हे.

जिसके कुछ प्रमाण यहाँ उपस्थित हे.
- यस्मिन्त्सर्वाणि भूतान्यात्मैवाभूद्विजानत:
तत्र को मोहः कः शोक एकत्वमनुपश्यत:
यजुर्वेद ४०। ७
जो सभी भूतों में अपनी ही आत्मा को देखते हैं, उन्हें कहीं पर भीशोक या मोह नहीं रह जाता क्योंकि वे उनके साथ अपनेपन की अनुभूति करते हैं | जो आत्मा के नष्ट न होने में और पुनर्जन्म में विश्वास रखते हों, वे कैसे यज्ञों में पशुओं का वध करने की सोच भी सकते हैं ? वे तो अपने पिछले दिनों के प्रिय और निकटस्थ लोगों को उन जिन्दा प्राणियों में देखते हैं |
- ब्रीहिमत्तं यवमत्तमथो माषमथो तिलम्
एष वां भागो निहितो रत्नधेयाय दान्तौ मा हिंसिष्टं पितरं मातरं च
अथर्ववेद ६।१४०।२
हे दांतों की दोनों पंक्तियों !चावल खाओ, जौ खाओ, उड़द खाओ और तिल खाओ |
यह अनाज तुम्हारे लिए ही बनाये गए हैं | उन्हें मत मारो जो माता– पिता बनने की योग्यता रखते हैं |
- अघ्न्या यजमानस्य पशून्पाहि
- यजुर्वेद १।१
- हे मनुष्यों ! पशु अघ्न्य हैं – कभी न मारने योग्य, पशुओं की रक्षा करो |
धर्म के नाम पर की जाने वाली हिंसा बंद की जाए... सनातन हिन्दू धर्म में हिंसा नहीं हे... म्लेच्छ एवं यवन जेसे अन्य जातिओ के लोगो ने वैदिक काल में हिंसा घुसाई हे... हिंसा करके अभक्ष्य खाने वाले लोग सनातनी नहीं हे. आर्य हिंसक नहीं थे. जिसका ज्वलंत उदहारण महाभारत में दर्शाया गया हे ..."सूरा- मत्स्या -मधु -मांसमासवं क्रूसरौदनम धुर्तेह प्रवर्तितं ह्येत्न्नेताद वेदेषु कल्पितम" अर्थात - शराब, मछली आदि का यज्ञ में बलिदान धूर्तो द्वरा प्रवर्तित किया गया हे ! वेदों में मांस बलि का विधान निर्दिष्ट नहीं हे. (महा. शांति. २६४.९) "मांस पाक प्रतिशेधाश्च तद्वत" अर्थात- वैदिक कर्मो में विहाराग्नी में मांस पकाने का निषेध हे, (मीमांसा. १२.२.२) और इसे कई प्रमाण भारतीय शास्त्र में हे...अगर इतने बड़े वैदिक शास्त्र बलि का विरोध करते हे तो आज के मंदिरों और खास कर माई मंदिरों और शाक्त उपासको द्वारा हो रहे बलि विधानों की प्रमाणिकता प्रश्नीय हे...में दावे के साथ उनको गलत, मुर्ख एवं ढोंगी कहता हु. वह धार्मिक न होकर पाखंडी हे. बलि निषेध हे. हमारा हिन्दू धर्म "सर्वं खल्विदं ब्रह्मं" मानने वाला हे..

ll " राम राज " वाला एक गाँव ll


रामराज की परिकल्पना ऐसी थी कि जहां कोई अपराध ना हो व्याभिचार ना हो जहां सब सुखी हों, लेकिन कलियुग में क्या ऐसा संभव है जी हां उत्तर प्रदेश में ऐसा गांव है जहां 15 सालों से कोई अपराध नहीं हुआ है.
गोरखपुर जिले के सहजनवा थाना क्षेत्र स्थित करीब 1500 की आबादी वाले तख्ता गांव के लोगों को इस बात पर गर्व है किउनका गांव अपराध की काली छाया से दूर है.
उनका दावा है कि विगत 15 वर्षो में यहां मारपीट, फौजदारी, चोरी, लूट, अपहरण या हत्या जैसी कोई आपराधिक घटना नहीं हुई है. यहां कलियुग में भी 'रामराज' स्थापित है. अगर आप यह सोचते हैं कि उत्तर प्रदेश में अपराध- मुक्त होने का दावा केवल तख्ता गांव के लोग ही कर रहे हैं, तो ऐसा नहीं है. पुलिस के रिकार्ड भी उनके दावों पर मुहर लगाते हैं। सहजनवा थाने के रिकार्ड में यह गांव डेढ़ दशकसे बिल्कुल बेदाग है.
सहजनवा थाने के कार्यकारी थाना प्रभारी लल्लन सिंह ने कहा कि तीन साल पहले जब इस थानेमें मेरी तैनाती हुई थी तो मुझ्झे इस गांव की खासियत जानकर बहुत आश्चर्य हुआ था. हत्या या अपहरण जैसे बड़े अपराधों को तो छोड़ ही दीजिए, पर्स चोरी, झपटमारी और चोरी जैसे छोटे अपराध की शिकायत भी इस गांव से वर्षो से नहीं आई है.
यह पूछने पर कि पंद्रह साल पहले यहां कौन- सा बड़ा अपराध हुआ था, उन्होंने असर्थता जताते हुए कहा कि इसके लिए पुराने रिकार्ड खंगालने पड़ेंगे, जिसमें बहुत ज्यादा समय लगेगा. तख्ता गांव भले ही पंद्रह वर्षो से अपराध-मुक्त रहा हो, लेकिन ऐसा नहीं है कि दूसरे गांवों कीतरह यहां के लोगों में आपसी मनमुटाव नहीं होता. अगर कभी किसी के बीच मनमुटाव हो भी गया तो गांव के बड़े-बुजुर्ग और पंचायत, गांव की सरहद के अंदर ही मामला सुलझा देते हैं. इसलिए छोटे-मोटे मामले थाना तक नहीं पहुंचते हैं. एक ग्रामीण शिव प्रताप मिश्रा (65) कहते हैं, "यहां भी लोगों के बीच छोटा-मोटा विवाद होता है, पर वे मामले को लेकरथाने पर न जाकर गांव के बड़े- बुर्जुगों के पास मुद्दा रखते हैं. बड़े-बुजुर्ग जो फैसला करते हैं, दोनों पक्ष खुशी- खुशी उसे स्वीकार कर लेते हैं." स्थानीय लोगों का कहना है कि बड़े- बुजुर्गो का सम्मान और उनके प्रति भरोसा जताए जाने के कारण आसपास के इलाके में उनके गांव को विशिष्ट पहचान मिली है. गोरखपुरशहर से करीब 40 किलोमीटर दूर तख्ता गांव की आबादी का 75 प्रतिशत हिस्सा ब्राह्मण बिरादरी का है. 25 प्रतिशत में दलित एवं अन्य जातियां हैं। गांव के ज्यादातर लोग खेती करते हैं और कई घरों के लोग सरकारी और निजी नौकरियों में भी हैं...l

हिन्दु नगरी था फतेहपुर सीकरी



उत्तर भारत मे आगरा के दक्षिण पश्चिम मे 23 मील की दूरी पर स्थित है फतेहपुर सीकरी।आमतौर पर बच्चो को पढाया जाता है कि फतेहपुर सीकरी का निर्माण 1556 से 1605 ई. मे अकबर ने करवाया था जो कि सरासर झुठ ओर मनगणत बाते है।
असल मे फतेहपुर सीकरी अकबर के जन्म से भी पहले की थी।जिसे बाबर ने राणा सांगा से हडप लिया था।
england के विक्टोरिया ओर अल्ब्रट पुस्तकालय मे एक फोटो(चित्राकृति)है,जिसमे अकबर का बाप हुमायु फतेहपुर साकरी के एक किले मे बेठा है।उस समय तो अकबर का जन्म भी नही हुआ था,तो नगर बसाने का सवाल ही नही उठता।
1 फतेहपुर सीकरी मे 9 द्वार है जिनके नाम इस तरह है-लाल द्वार,आगरा द्वार,बोरपोत द्वार,चन्द्रपोल द्वार,टेहरी द्वार,ग्वालियर द्वार,चोर द्वार व अजमेरी द्वार।
इसके अलावा अन्य दो द्वार-फूलद्वार ओर मथूरा द्वार है।
इन सब द्वारो मे से कोई भी नाम ईस्लामिक नही है।
पोलद्वार मे पोल शब्द संस्कृत का अपभ्रंश है।जो कि परम्परागत हिन्दु किलो से जुडा है।
इसी तरह लाल द्वार पवित्र हिन्दु भगवा रंग को दर्शाता है,जबकि कोई मुस्लिम लाल नाम से कोई निर्माण ना कराता।यदि अकबर इनहे बनवाता तो अरबी नाम रखवाता ना कि हिन्दु।
फतेहपुर सीकरी मे अनेक मुस्लिम शिलालेख है लेकिन किसी मे अकबर द्वारा सीकरी का निर्माण करवाना नही वताया है।यहा एक सलीम चिश्ति का मकबरा है जो कि एक मन्दिर था जिसे तोडकर सलीम चिश्ती का मकबरा बना दिया,ज्यादातर ईस्लामिक सुफी हिन्दु मन्दिरो मे ही दफनाए है ताकि हिन्दुओ के धर्म स्थलो पर कब्जा किया जा सके।जैसे साई ने भी मरने के बाद एक मन्दिर मे दफन होने की इच्छा की थी,जबकि सारी जिन्दगी मस्जिद मे रहा।
इस नगर मे एक स्तम्भ है जिसका आकार अष्टकोणिय है जो कि पवित्र हिन्दु संरचना है,इसका एक ईस्लामी बादशाह क्यो बनवाएगा।
इसी नगर मे एक अनूप तालाब है।जिसकी खुदाई से पता चला है कि इस मे कुछ हिन्दु मुर्तिया ओर पवित्र चिन्ह एक कच्चे फर्श से छिपाये गये थे।अनुप तालाब के समीप विशाल रक्त प्रांगण है जिसमे एक प्रस्तरीय प्रागंण पर पुरातन हिन्दु खेल चोपड का चित्र है।
इसी प्रांगण मे एक हिन्दु ज्योतिष पीटिका है।
इसी नगर मे एक जल घडी पात्र मिला है जिसका उपयाग भारतीय ज्योतिष नक्षत्र,मुहुर्त देखने मे करते थे।आर्यभटीय ओर भास्कराचार्य के ग्रंथो मे इस घडी का उल्लेख है।
ख्वावगाह के उत्तरी प्राचीर मे एर जीर्ञ शीर्ण नोका का चित्र है जो कि भगवान राम द्वारा केवट की नाव मे सीता ,लक्ष्मण सहित गंगा पार करने का है।
सुनहरी महल नामक एक भवन के बरामदे के उत्तरी पश्चिमी खम्भे पर अधुरी अधुरी कृष्ण जी की आकृति है।
ख्वावगाह के ऊपर एक खिडकी है जिस पर एक चित्र है जो गोतमबुध्द सा है।
इसी नगर के एक स्नानगृह के पास स्वस्तिक का चिन्ह है जो प्राचीन वैदिक कालीन हिन्दु रचना है।
फतेहपुर के हाथी द्वार मे भी हिन्दुमूलक हाथी की प्रतिमा है इस तरह की शैली राजपुतो की थी।उदयपुर का सहेलियो का बाग,भरतपुर के किले के फाटक व अन्य गढो मे एसा देखा जा सकता है।दोलत खाने के आगरा की दिशा की तरफ एक छोटी मस्जिद है,जिसके सम्मुख एक गुम्बद युक्त मण्डल है जिसकी खुदाई मे एक दिग्गंबर जैन मुर्ति प्राप्त हुई।
फतेहपुर सीकरी के पास एक डाकघर के समीप खुदी हुई सुरंग मे एक बुध्द का प्रस्तर मिला ।
उपरोक्त प्रमाणो से सिध्द होता है कि अकबर ने सीकरी को नही बसाया था।ये मुस्लिमो द्वारा हिन्दुओ से हडपा गया था।
कोई भी मुस्लिम शासक ने इस देश मे कोई भी निर्माण नही करवाया बल्की पुरातन हिन्दु जेन बुध्द मंदिरो को नष्ट भ्रस्ट कर अपना आधिपतय किया था।
वन्दे मातरम।
जय भारत माता।

क्या आर्य जाति ने सिन्धु घाटी सभ्यता पर आक्रमण करके उसे विनष्ट किया था ?

पश्चिमी विद्वानों का मत है कि आर्यों का एक समुदाय भारत मे लगभग 2000 इस्वी ईसा पूर्व आया। इन विद्वानों की कहानी यह है कि आर्य इण्डो-यूरोपियन बोली बोलने वाले, घुड़सवारी करने वाले तथा यूरेशिया के सूखे घास के मैदान में रहने वाले खानाबदोश थे जिन्होंने ई.पू. 1700 में भारत की सिन्धु घाटी की नगरीय सभ्यता पर आक्रमण कर के उसका विनाश कर डाला और इन्हीं आर्य के वंशजों ने उनके आक्रमण से लगभग 1200 वर्ष बाद आर्य या वैदिक सभ्यता की नींव रखी और वेदों की रचना की।

इस बात के सैकड़ों पुरातात्विक प्रमाण हैं कि सिन्धु घाटी के के लोग बहुत अधिक सभ्य और समृद्ध थे जबकि इन तथाकथित घुड़सवार खानाबदोश आर्य जाति के विषय में कहीं कोई भी प्रमाण उपलब्ध नहीं है। आखिर सिन्धु घाटी के लोग इनसे हारे कैसे? यदि यह मान भी लिया जाए कि वे घुड़सवार खानाबदोश अधिक शक्तिशाली और बर्बर थे इसीलिए वे जीत गए तो सवाल यह पैदा होता है कि इस असभ्य जाति के लोग आखिर इतने सभ्य कैसे हो गए कि वेद जैसे ग्रंथों की रचना कर डाली? और यह स्वभाव से घुमक्कड़ जाति 1200 वर्षों तक कहाँ रही और क्या करती रही। दूसरी ओर यह भी तथ्य है कि आर्यो के भारत मे आने का कोई प्रमाण न तो पुरातत्त्व उत्खननो से मिला है और न ही डी एन ए अनुसन्धानो से। मजे की बात यह भी है कि उन्हीं आर्यों द्वारा रचित वेद आदि ग्रंथों में भी आर्यों के द्वारा सिन्धु घाटी सभ्यता पर आक्रमण करने का कहीं भी उल्लेख नहीं मिलता। आर्य शब्द तो स्वयं ही कुलीनता और श्रेष्ठता का सूचक है फिर यह शब्द असभ्य, घुड़सवार, घुमन्तू खानाबदोश जाति के लिए कैसे प्रयुक्त हो सकता है?

वास्तविकता यह है कि उन्नीसवीं शताब्दी में एब्बे डुबोइस (Abbé Dubois) नामक एक फ्रांसीसी पुरातत्ववेत्ता भारत आया। वह कितना ज्ञानी था इस बात का अनुमान तो इसी बात से लगाया जा सकता है कि उसने प्राचीन भारतीय साहित्य में प्रलय के विषय में पढ़कर प्रलय को नूह और उसकी नाव के साथ जोड़ने का प्रयास किया था जो कि एकदम मूर्खतापूर्ण असंगत बात थी। एब्बे की पाण्डुलिपि आज के सन्दर्भ में पूरी तरह से असामान्य हो चुकी है। इन्हीं एब्बे महोदय ने भारतीय साहित्य का अत्यन्त ही त्रुटिपूर्ण तथा कपोलकल्पित वर्णन, आकलन और अनुवाद किया जिस पर जर्मन पुरातत्ववेत्ता मैक्समूलर ने, जो कि तत्कालीन ब्रिटिश सरकार के नाक के बाल बने हुए थे, अपनी भूमिका लिखकर सच्चाई का ठप्पा लगा दिया। मैक्समूलर के द्वारा सच्चाई का ठप्पा लग जाने ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने आर्यों के द्वारा सिन्धुघाटी सभ्यता पर आक्रमण की कपोलकल्पित कहानी को इतिहास बना दिया।

इन्द्र - वृत्रासुर कथा

(इन्द्रस्य नु०) यहाँ सूर्य का इन्द्र नाम है। उसके किये हुए पराक्रमों को हम लोग कहते हैं, जोकि परम ऐश्वर्य होने का हेतु बड़ा तेजधारी है। वह अपनी किरणों से 'वृत्र' अर्थात मेघ को मारता है। जब वह मरके पृथ्वी में गिर पड़ता है, तब अपने जलरूप शरीर को सब पृथ्वी में फैला देता है। फिर उससे अनेक बड़ी-२ नदी परिपूर्ण होके समुद्र में जा मिलती हैं। कैसी वे नदी हैं कि पर्वत और मेघों से उत्पन्न होके जल ही बहने के लिए होती हैं। जिस समय इन्द्र मेघरूप वृत्रासुर को मार के आकाश से पृथ्वी में गिरा देता है, तब वह पृथ्वी में सो जाता है।।१।।
फिर वही मेघ आकाश में से नीचे गिरके पर्वत अर्थात मेघमण्डल का पुनः आश्रय लेता है। जिसको सूर्य्य अपनी किरणों से फिर हनन करता है। जैसे कोई लकड़ी को छील के सूक्ष्म कर देता है। वैसे ही वह मेघ को भी बिन्दु-बिन्दु करके पृथ्वी में गिरा देता है और उसके शरीररूप जल सिमट-सिमट कर नदियों के द्वारा समुद्र को ऐसे प्राप्त होते हैं, कि जैसे अपने बछड़ों से गाय दौड़ के मिलती हैं।।२।।
जब सूर्य्य उस अत्यन्त गर्जित मेघ को छिन्न-भिन्न करके पृथ्वी में ऐसे गिरा देता है कि जैसे कोई मनुष्य आदि के शरीर को काट काट कर गिराता है, तब वह वृत्रासुर भी पृथ्वी पर मृतक के समान शयन करने वाला हो जाता है।।३।।
'निघण्टु' में मेघ का नाम वृत्र है(इन्द्रशत्रु)--वृत्र का शत्रु अर्थात निवारक सूर्य्य है,सूर्य्य का नाम त्वष्टा है, उसका संतान मेघ है, क्योंकि सूर्य्य की किरणों के द्वारा जल कण होकर ऊपर को जाकर वाहन मिलके मेघ रूप हो जाता है। तथा मेघ का वृत्र नाम इसलिये है कि वृत्रोवृणोतेः० वह स्वीकार करने योग्य और प्रकाश का आवरण करने वाला है।
वृत्र के इस जलरूप शरीर से बड़ी-बड़ी नदियाँ उत्पन्न होके अगाध समुद्र में जाकर मिलती हैं, और जितना जल तालाब व कूप आदि में रह जाता है वह मानो पृथ्वी में शयन कर रहा है।।५।।
वह वृत्र अपने बिजली और गर्जनरूप भय से भी इन्द्र को कभी जीत नहीं सकता । इस प्रकार अलंकाररूप वर्णन से इन्द्र और वृत्र ये दोनों परस्पर युद्ध के सामान करते हैं, अर्थात जब मेघ बढ़ता है, तब तो वह सूर्य्य के प्रकाश को हटाता है, और जब सूर्य्य का ताप अर्थात तेज बढ़ता है तब वह वृत्र नाम मेघ को हटा देता है। परन्तु इस युद्ध के अंत में इन्द्र नाम सूर्य्य ही की विजय होती है।
(वृत्रो ह वा०) जब जब मेघ वृद्धि को प्राप्त होकर पृथ्वी और आकाश में विस्तृत होके फैलता है, तब तब उसको सूर्य्य हनन करके पृथ्वी में गिरा देता है। उसके पश्चात वह अशुद्ध भूमि , सड़े हुये वनस्पति, काष्ठ, तृण तथा मलमुत्रादि युक्त होने से कहीं-कहीं दुर्गन्ध रूप भी हो जाता है। तब समुद्र का जल देखने में भयंकर मालूम पड़ने लगता है। इस प्रकार बारम्बार मेघ वर्षता रहता है।(उपर्य्युपय्यॅति०)--अर्थात सब स्थानों से जल उड़ उड़ कर आकाश में बढ़ता है। वहां इकट्ठा होकर फिर से वर्षा किया करता है। उसी जल और पृथ्वी के सयोंग से ओषधी आदि अनेक पदार्थ उत्पन्न होते हैं।उसी मेघ को 'वृत्रासुर' के नाम से बोलते हैं।
वायु और सूर्य्य का नाम इन्द्र है । वायु आकाश में और सूर्य्य प्रकाशस्थान में स्थित है। इन्हीं वृत्रासुर और इन्द्र का आकाश में युद्ध हुआ करता है कि जिसके अन्त में मेघ का पराजय और सूर्य्य का विजय निःसंदेह होता है।

शुन्य की खोज असम में हुई



यूनानी और रोमन यूरोप को कई महान अविष्कार देने के लिए महसूर है। यूनान ने डेमोक्रेसी दी तो रोम ने नालियों और सोचालय व्यवस्ता दी।
पर फिर भी ये देश शुन्य की खोज में असफल रहे।
जब शून्य पहली यूनान और रोम पंहुचा तो उन लोगो ने कहा की कैसे कोई वास्तु न होकर भी हो सकती है?
अब आप सोचेंगे की ये तो भारत के महान गनित्याग्य अर्याभात्त थी जिन्होंने कुछ नहीं को कुछ है कहा पर सच यह है की शुन्य की खोज अर्याभात्त से पहले असाम में हो चुकी थी।
हाल ही में असाम में एक पत्थर पर कुछ अंक अंकित मिले है जो 200 ई. के है यानि अर्याभात्त के 300 वर्ष पूर्व।
वे अंक है 2,3,1,0,7 और 8।
डॉ एच.एन भुयान जो की प्रशिध पुरातत्व वैज्ञानिक है इस बात की पुस्ती की है।
अभी जाच चल रही है उस आदमी के बारे में पता करने की जिसने शुन्य की खोज की।

हिन्दु धर्म मे आरती का महत्व ओर कैसे करें आरती


पूजा के अंत में हम सभी भगवान की आरती करते हैं। आरती के दौरान कई सामग्रियों का प्रयोग किया जाता है। इन सबका विशेष अर्थ होता है। ऐसी मान्यता है कि न केवल आरती करने, बल्कि इसमें शामिल होने पर भी बहुत पुण्य मिलता है। किसी भी देवता की आरती करते समय उन्हें 3बार पुष्प अर्पित करें। इस दरम्यान ढोल, नगाडे, घडियाल आदि भी बजाना चाहिए।

एक शुभ पात्र में शुद्ध घी लें और उसमें विषम संख्या [जैसे 3,5या 7]में बत्तियां जलाकर आरती करें। आप चाहें, तो कपूर से भी आरती कर सकते हैं। सामान्य तौर पर पांच बत्तियों से आरती की जाती है, जिसे पंच प्रदीप भी कहते हैं। आरती पांच प्रकार से की जाती है। पहली दीपमाला से, दूसरी जल से भरे शंख से, तीसरा धुले हुए वस्त्र से, चौथी आम और पीपल आदि के पत्तों से और पांचवीं साष्टांग अर्थात शरीर के पांचों भाग [मस्तिष्क, दोनों हाथ-पांव] से। पंच-प्राणों की प्रतीक आरती हमारे शरीर के पंच-प्राणों की प्रतीक है। आरती करते हुए भक्त का भाव ऐसा होना चाहिए, मानो वह पंच-प्राणों की सहायता से ईश्वर की आरती उतार रहा हो। घी की ज्योति जीव के आत्मा की ज्योति का प्रतीक मानी जाती है। यदि हम अंतर्मन से ईश्वर को पुकारते हैं, तो यह पंचारतीकहलाती है। सामग्री का महत्व आरती के दौरान हम न केवल कलश का प्रयोग करते हैं, बल्कि उसमें कई प्रकार की सामग्रियां भी डालते जाते हैं। इन सभी के पीछे न केवल धार्मिक, बल्कि वैज्ञानिक आधार भी हैं।

कलश-कलश एक खास आकार का बना होता है। इसके अंदर का स्थान बिल्कुल खाली होता है। कहते हैं कि इस खाली स्थान में शिव बसते हैं।
यदि आप आरती के समय कलश का प्रयोग करते हैं, तो इसका अर्थ है कि आप शिव से एकाकार हो रहे हैं। किंवदंतिहै कि समुद्र मंथन के समय विष्णु भगवान ने अमृत कलश धारण किया था। इसलिए कलश में सभी देवताओं का वास माना जाता है।
जल-जल से भरा कलश देवताओं का आसन माना जाता है। दरअसल, हम जल को शुद्ध तत्व मानते हैं, जिससे ईश्वर आकृष्ट होते हैं।
नारियल- आरती के समय हम कलश पर नारियल रखते हैं। नारियल की शिखाओं में सकारात्मक ऊर्जा का भंडार पाया जाता है। हम जब आरती गाते हैं, तो नारियल की शिखाओं में मौजूद ऊर्जा तरंगों के माध्यम से कलश के जल में पहुंचती है। यह तरंगें काफी सूक्ष्म होती हैं।
सोना- ऐसी मान्यता है कि सोना अपने आस-पास के वातावरण में सकारात्मक ऊर्जा फैलाता है। सोने को शुद्ध कहा जाता है।
यही वजह है कि इसे भक्तों को भगवान से जोडने का माध्यम भी माना जाता है।
तांबे का पैसा- तांबे में सात्विक लहरें उत्पन्न करने की क्षमता अधिक होती है। कलश में उठती हुई लहरें वातावरण में प्रवेश कर जाती हैं। कलश में पैसा डालना त्याग का प्रतीक भी माना जाता है। यदि आप कलश में तांबे के पैसे डालते हैं, तो इसका मतलब है कि आपमें सात्विक गुणों का समावेश हो रहा है।
सप्तनदियोंका जल-गंगा, गोदावरी,यमुना, सिंधु, सरस्वती, कावेरीऔर नर्मदा नदी का जल पूजा के कलश में डाला जाता है। सप्त नदियों के जल में सकारात्मक ऊर्जा को आकृष्ट करने और उसे वातावरण में प्रवाहित करने की क्षमता होती है। क्योंकि ज्यादातर योगी-मुनि ने ईश्वर से एकाकार करने के लिए इन्हीं नदियों के किनारे तपस्या की थी। सुपारी और पान- यदि हम जल में सुपारी डालते हैं, तो इससे उत्पन्न तरंगें हमारे रजोगुण को समाप्त कर देते हैं और हमारे भीतर देवता के अच्छे गुणों को ग्रहण करने की क्षमता बढ जाती है। पान की बेल को नागबेलभी कहते हैं।
नागबेलको भूलोक और ब्रह्मलोक को जोडने वाली कडी माना जाता है। इसमें भूमि तरंगों को आकृष्ट करने की क्षमता होती है। साथ ही, इसे सात्विक भी कहा गया है। देवता की मूर्ति से उत्पन्न सकारात्मक ऊर्जा पान के डंठल द्वारा ग्रहण की जाती है।
तुलसी-आयुर्र्वेद में तुलसी का प्रयोग सदियों से होता आ रहा है। अन्य वनस्पतियों की तुलना में तुलसी में वातावरण को शुद्ध करने की क्षमता अधिक होती है।....
अत: आरती व्यक्ति के जीवन मे सकारात्मक बदलाव करती है उसे सकारात्मक ऊर्जा से भर देती है मन को शात ओर दिमाग की परेशानियो को भी दूर करती है।
जय महाकाल.........

जामा मस्जिद कही जाने वाली अहमदाबाद की वह इमारत प्राचिन अहमदाबाद की कुल देवी ओर राजदेवी भद्रकाली का मन्दिर था

-अहमदाबाद नगर को अहमदशाह के नाम पर अहमदाबाद कहते है इससे पूर्व इस नगर का नाम कर्णवती ओर अशावल था ।
अहमदशाह ने इस नगर के कई हिन्दु इमारतो ओर मन्दिरो को इस्लामी इमारते ओर मन्दिर मे बदला था।इनही मैसे एक है अहमदाबाद की जामा मस्जिद जो कि अहमदशाह के द्वारा क्षत विक्षत करने से पूर्व भद्रकाली मन्दिर था।इस मन्दिर मे आज भई द्वार मण्डल से लेकर अन्दर तक हिन्दु कला के दृश्न होते है।
इस मस्जिद के मुख्य प्रार्थना स्थल मे पास पास सौ खम्भे है(फोटो मे भी देखा जा सकता है)जो केवल हिन्दु मन्दिरो मे होते है,यदि यह मस्जिद है तो नवाज के लिए खुला प्रागंण होना चाहिए।
इसी मस्जिद के प्राचिन पूजा गृह के गवाक्षो मे गढे हुए प्रस्तर पुष्प चिन्ह है ,जो लूटे हुए परिवर्तित स्मारको के सम्बन्ध मुस्लिम आक्रमणकारियो की ओर ही संकेत करता है।इस विशाल मन्दिर का एक बडा भाग आज कब्रिस्तान के रूप मे उपयोग मे होता है।
इस मस्जिद की संगतराशी मे पुष्प,जंजीर,घण्टिया ओर गवाक्षो जैसे अनैक हिन्दु लक्षण दिखाई देते है।
इस मन्दिर की कई प्रस्तर खण्डो को अहमदाबाद के आम रास्तो मे आक्रमण के समय सुरक्षित रखने के लिए गाड दिया गया था ।ये आज भी कुछ स्थानो पर आधे गडे या किसी के घर मकान मे पत्थर के रूप मे चुने हुए मिल जाएगे....
उपरोक्त कथन से यही सिध्द होता है कि जो लोग कहते है कि मुस्लिम शासको ने इस देश मे कई इमारतो का निर्माण करवाया था ओर भारत की स्थाप्त्य कला मे योगदान दिया था।तो ये पोस्ट उनके गाल पर एक तमाचा है क्युकि किसी भी मस्लिम शासक ने इस देश मे कोई भी निर्माण नही कराया था,वल्कि हिन्दु इमारतो मन्दिरो को हथ्या कर उनहे मकबरे,कब्रिस्तान,दरगाह,मस्जिदो मे बदला था ताकि हिन्दुधर्म को खत्म कर सके...
जय महाकाल...

क्या हनुमान आदि वानर बन्दर थे ?


अक्सर हिन्दु धर्म का कुछ अन्य धर्मो द्वारा मजाक बनाया जाता है ओर रामायण मे वानर पात्रो को देखकर रामायण को काल्पनिक बताया जाता है,लेकिन वास्तव मे हनुमान जी ,सुग्रीव वानर नही थे।बल्कि वानर नामक वंश के मनुष्य ही थे;
वानर शब्द दो शब्दो से बना है-वा+नर=वन मे रहने वाले नर
किष्किन्धा कांड (3/28-32) में जब श्री रामचंद्र जी महाराज की पहली बार ऋष्यमूक पर्वत पर हनुमान से भेंट हुई तब दोनों में परस्पर बातचीत के पश्चात रामचंद्र जी लक्ष्मण से बोले
न अन् ऋग्वेद विनीतस्य न अ यजुर्वेद धारिणः |
न अ-साम वेद विदुषः शक्यम् एवम् विभाषितुम् || ४-३-२८
“ऋग्वेद के अध्ययन से अनभिज्ञ और यजुर्वेद का जिसको बोध नहीं हैं तथा जिसने सामवेद का अध्ययन नहीं किया है, वह व्यक्ति इस प्रकार परिष्कृत बातें नहीं कर सकता। निश्चय ही इन्होनें सम्पूर्ण व्याकरण का अनेक बार अभ्यास किया हैं, क्यूंकि इतने समय तक बोलने में इन्होनें किसी भी अशुद्ध शब्द का उच्चारण नहीं किया हैं। संस्कार संपन्न, शास्त्रीय पद्यति से उच्चारण की हुई इनकी वाणी ह्रदय को हर्षित कर देती हैं”।
सुंदर कांड (30/18,20) में जब हनुमान अशोक वाटिका में राक्षसियों के बीच में बैठी हुई सीता को अपना परिचय देने से पहले हनुमान जी सोचते हैं
“यदि द्विजाति (ब्राह्मण-क्षत्रिय-व­ैश्य) के समान परिमार्जित संस्कृत भाषा का प्रयोग करूँगा तो सीता मुझे रावण समझकर भय से संत्रस्त हो जाएगी। मेरे इस वनवासी रूप को देखकर तथा नागरिक संस्कृत को सुनकर पहले ही राक्षसों से डरी हुई यह सीता और भयभीत हो जाएगी। मुझको कामरूपी रावण समझकर भयातुर विशालाक्षी सीता कोलाहल आरंभ कर देगी। इसलिए मैं सामान्य नागरिक के समान परिमार्जित भाषा का प्रयोग करूँगा।”
इस प्रमाणों से यह सिद्ध होता हैं की हनुमान जी चारों वेद ,व्याकरण और संस्कृत सहित अनेक भाषायों के ज्ञाता भी थे।
हनुमान जी के अतिरिक्त अन्य वानर जैसे की बालि पुत्र अंगद का भी वर्णन वाल्मीकि रामायण में संसार के श्रेष्ठ महापुरुष के रूप में किष्किन्धा कांड 54/2 में हुआ हैं
हनुमान बालि पुत्र अंगद को अष्टांग बुद्धि से सम्पन्न, चार प्रकार के बल से युक्त और राजनीति के चौदह गुणों से युक्त मानते थे।
बुद्धि के यह आठ अंग हैं- सुनने की इच्छा, सुनना, सुनकर धारण करना, ऊहापोह करना, अर्थ या तात्पर्य को ठीक ठीक समझना, विज्ञान व तत्वज्ञान।
चार प्रकार के बल हैं- साम , दाम, दंड और भेद
राजनीति के चौदह गुण हैं- देशकाल का ज्ञान, दृढ़ता, कष्टसहिष्णुता, सर्वविज्ञानता, दक्षता, उत्साह, मंत्रगुप्ति, एकवाक्यता, शूरता, भक्तिज्ञान, कृतज्ञता, शरणागत वत्सलता, अधर्म के प्रति क्रोध और गंभीरता।
भला इतने गुणों से सुशोभित अंगद बन्दर कहाँ से हो सकता हैं?
अंगद की माता तारा के विषय में मरते समय किष्किन्धा कांड 16/12 में बालि ने कहा था की
“सुषेन की पुत्री यह तारा सूक्षम विषयों के निर्णय करने तथा नाना प्रकार के उत्पातों के चिन्हों को समझने में सर्वथा निपुण हैं। जिस कार्य को यह अच्छा बताए, उसे नि:संग होकर करना। तारा की किसी सम्मति का परिणाम अन्यथा नहीं होता।”
किष्किन्धा कांड (25/30) में बालि के अंतिम संस्कार के समय सुग्रीव ने आज्ञा दी – मेरे ज्येष्ठ बन्धु आर्य का संस्कार राजकीय नियन के अनुसार शास्त्र अनुकूल किया जाये।
किष्किन्धा कांड (26/10) में सुग्रीव का राजतिलक हवन और मन्त्रादि के साथ विद्वानों ने किया।
जहाँ तक जटायु का प्रश्न हैं वह गिद्ध नामक पक्षी नहीं था। जिस समय रावण सीता का अपहरण कर उसे ले जा रहा था तब जटायु को देख कर सीता ने कहाँ – हे आर्य जटायु ! यह पापी राक्षस पति रावण मुझे अनाथ की भान्ति उठाये ले जा रहा हैं सन्दर्भ-अरण्यक 49/38
जटायो पश्य मम आर्य ह्रियमाणम् अनाथ वत् |
अनेन राक्षसेद्रेण करुणम् पाप कर्मणा || ४९-३८
कथम् तत् चन्द्र संकाशम् मुखम् आसीत् मनोहरम् |
सीतया कानि च उक्तानि तस्मिन् काले द्विजोत्तम || ६८-६
यहाँ जटायु को आर्य और द्विज कहा गया हैं। यह शब्द किसी पशु-पक्षी के सम्बोधन में नहीं कहे जाते। रावण को अपना परिचय देते हुए जटायु ने कहा -मैं गृध कूट का भूतपूर्व राजा हूँ और मेरा नाम जटायु हैं सन्दर्भ -अरण्यक 50/4 (जटायुः नाम नाम्ना अहम् गृध्र राजो महाबलः | 50/4)
यह भी निश्चित हैं की पशु-पक्षी किसी राज्य का राजा नहीं हो सकते। इन प्रमाणों से यह सिद्ध होता हैं की जटायु पक्षी नहीं था अपितु एक मनुष्य था जो अपनी वृद्धावस्था में जंगल में वास कर रहा था।
जहाँ तक जाम्बवान के रीछ होने का प्रश्न हैं। जब युद्ध में राम-लक्ष्मण मेघनाद के ब्रहमास्त्र से घायल हो गए थे तब
किसी को भी उस संकट से बाहर निकलने का उपाय नहीं सूझ रहा था। तब विभीषण और हनुमान जाम्बवान के पास गये तब जाम्बवान ने हनुमान को हिमालय जाकर ऋषभ नामक पर्वत और कैलाश नामक पर्वत से संजीवनी नामक औषधि लाने को कहा था। सन्दर्भ युद्ध कांड सर्ग 74/31-34
आपत काल में बुद्धिमान और विद्वान जनों से संकट का हल पूछा जाता हैं और युद्ध जैसे काल में ऐसा निर्णय किसी अत्यंत बुद्धिवान और विचारवान व्यक्ति से पूछा जाता हैं। पशु-पक्षी आदि से ऐसे संकट काल में उपाय पूछना सर्वप्रथम तो संभव ही नहीं हैं दूसरे बुद्धि से परे की बात हैं।
पूछ का रहस्य:
पूछ कोई शारिरीक अंग नही थी | रावण ने पूंछ को कपियों का सर्वाधिक प्रिय भूषण बताया
था-'कपीनां किल लांगूलमिष्टं भवति भूषणम्(०५/५३/­०३)"-(रामायणकालीन समाज-
शांति कुमार नानूराम व्यास) |
जिस तरह पूर्वाचल आदि आदिवासी सींग,पंख लगाते है ठीक उसी तरह वे पूछ लगाते थे।
वीर विनायक ने अपने अण्डमान संसमरण में लिखा है कि वहां
पूंछ लगाने वाली एक जनजाति रहती है(महाराष्ट्रीय कृत रामायण-समालोचना)|
उपरोक्त तथ्यों से इस भ्रान्ति का स्पष्ट निराकरण हो जाता है कि वानर
नामक जनजाति जिसके तत्कालीन प्रमुख सदस्य वीरवर हनुमान थे एक पूर्ण मानव
जाति थी , बन्दर प्रजाति नहीं |

**अफ्रीका में विराजे शिवपार्वती **


जोहांसबर्ग।

महाशिवरात्रि के महापर्व पर दक्षिण अफ्रीका के जोहानिसबर्ग में भगवान शिव के अर्द्धनारीश्वर रूप की प्रतिमा का अनावरण किया गया।
पहली पूजा के दौरान लोगों ने दुग्ध और जल से अभिषेक किया, हेलीकॉप्टर सेफूल बरसाये गये।
शिव हिंदुओं के आराध्य देव हैं और शक्ति उनकी अर्धागिनी हैं। बीस मीटर ऊंची इस प्रतिमा को बनाने में करीब 90 टन स्टील का इस्तेमाल हुआ है। प्रतिमा में आधी आकृति शिव की है और आधी मां शक्ति की।
भारत से आए दस कलाकारों ने दस महीने की कड़ी मेहनत के बाद इस प्रतिमा को तैयार किया है। यह प्रतिमा बेनोनी शहर के एकटोनविले में स्थापित की गई है। बेनोनी तमिल स्कूल बोर्ड की चेयरमैन कार्थी मुत्थुसामी ने कहा, 'दक्षिण अफ्रीका में मौजूदा समय में महिलाओं के प्रति सम्मान में कमी आ रही है। समुदाय के तौर पर हम शक्ति को एक नारी और मां होने के नाते सम्मान देना चाहते हैं। इससे समाज में महिला पुरुष की बराबरी का संदेश जाएगा।' मुत्थुसामी ने बताया कि तीन साल पहले मारीशस की यात्रा के दौरान उन्होंने ऐसी मूर्ति देखी थी, जिसके बाद वह इस प्रोजेक्ट को आगे बढ़ाने के लिए प्रेरित हुई। तमिल फेडरेशन ऑफ गौतेंग के अध्यक्ष नडास पिल्लई ने कहा कि यह प्रतिमा हमेशा लोगों को याद दिलाएगी कि उन्हें निजी स्वार्थ से पहले दूसरों के बारे में सोचना चाहिए।
*पुराणों के अनुसार भगवान शिव और माता स्रष्टि आरंभ में इसी रूप में प्रकट हुए थे *
!!जय शिवपार्वती !!

हनुमानजी व शनिदेव में है इन खास बातों की समानता


सनातन धर्म में आस्था रखने वाला हर व्यक्ति श्रीहनुमान को संकटमोचक व शनिदेव दण्डाधिकारी देवता के रूप में पूजता है। दोनों ही देवताओं का शिव से संबंध भी उजागर है। श्रीहनुमान रुद्र यानी शिव अवतार हैं, तो शनिदेव ने भी शिव भक्ति से ही न्यायाधीश की शक्तियां पाई। यही नहीं, हनुमान भक्ति शनि दोष से भी छुटकारा देती है।
हनुमानजी और शनि की इन बातों के अलावा शास्त्रों में उजागर कुछ खास बातें दोनों ही देवताओं के चरित्र व शक्तियों की समानता और फर्क उजागर करती है।
ये हैं हनुमानजी और शनि में समानताएं-
- सूर्य संहिता के मुताबिक हनुमानजी का जन्म शनिवार के दिन हुआ था।
- श्रीहनुमान रुद्र अवतार हैं और रुद्र शनिदेव का भी एक नाम है।
- इसी तरह हनुमानसहस्त्रनाम में हनुमानजी का एक नाम शनि है।
- शास्त्रों में कई जगहों पर हनुमानजी का रंग शनिदेव के समान काला भी बताया गया है। माना जाता है कि यह शनि की क्रूर दृष्टिपात की वजह से हुआ था।
- कई जगहों पर हनुमानजी के हाथों में चाबुक वाली मूर्तियां भी देखी जाती हैं, जो शनि की तरह ही दण्डाधिकारी स्वरूप को उजागर करती है। धार्मिक नजरिए से इस वजह से भी शनिवार को हनुमान पूजा व शनिवार व्रत की परंपरा है।
इसी तरह हनुमानजी और शनिदेव चरित्र व शक्तियों में फर्क भी बताए गए हैं।
- शनि के पिता सूर्य हनुमानजी के गुरु हैं। शनि का अपने पिता से बैर है, किंतु सूर्यदेव ने हनुमानजी को कई विद्याओं व अपने तेज का अंश देकर महावीर बना दिया।
- शनि देव पापी व क्रूर स्वभाव के माने जाते हैं, जबकि भगवान शिव की तरह श्रीहनुमान उदार व दयालु।
- शनि का जन्म सूर्य यानी अग्नि तत्व से तो हनुमानजी का पवन यानी वायु तत्व से हुआ।
- माना जाता है कि शनिवार को तेल नहीं बेचना चाहिए, किंतु हनुमानजी को तेल चढ़ाना शुभ होता है

वायलीन का आविष्कार रावण ने किया था


रावण वेद ज्ञानी के साथ साथ अच्छा वास्तुकार ओर संगीतज्ञ भी था।
अगर मैं आपसे कहूँ कि रावण वॉयलिन बजाता था तो ? ... बजाता ही नहीं था बल्कि उसने 'कृष्ण यजुर्वेद' के भाष्य के अलावा वॉयलिन का आविष्कार भी किया था तो क्या आप मान लेंगे ? अरे Ra-1 की नहीं, असली रावण ,दशानन जी की बात कर रहा हूँ मैं !

... विस्तार में जानने के लिए नीचे पढे-
रावण हत्था प्रमुख रूप से राजस्थानऔर गुजरातमें प्रयोग में लाया जाता रहा है। यह राजस्थान का एक लोक वाद्य है। पौराणिक साहित्य और हिन्दूपरम्परा की मान्यता है कि ईसा से हजारो वर्ष पूर्व लंका के राजा रावणने इसका आविष्कार किया था और आज भी यह चलन में है। रावण के ही नाम पर इसे रावण हत्था या रावण हस्त वीणा कहा जाता है। यह संभव है कि वर्तमान में इसका रूप कुछ बदल गया हो लेकिन इसे देखकर ऐसा लगता नहीं है। कुछ लेखकों द्वारा इसे वायलिनका पूर्वज भी माना जाता है।
इसे धनुष जैसी मींड़ और लगभग डेढ़-दो इंच व्यास वाले बाँस से बनाया जाता है। एक अधकटी सूखी लौकी या नारियल के खोल पर पशुचर्म अथवा साँप के केंचुली को मँढ़ कर एक से चार संख्या में तार खींच कर बाँस के लगभग समानान्तर बाँधे जाते हैं। यह मधुर ध्वनि उत्पन्न करता है।






अधिक जानकारी के लिए ये लिंक भी देखे-
http://violin.koopal.com/violin-history.htm
http://m.youtube.com/watch?feature=player_embedded&v=5nDvRvuTjQ0&desktop_uri=%2Fwatch%3Fv%3D5nDvRvuTjQ0%26feature%3Dplayer_embedded
http://chandrakantha.com/articles/indian_music/ravanhastra.html


**दुनिया के सर्वश्रेष्ठ 5 धनुर्धर**

धनुर्धर तो बहुत हुए हैं। राम और कृष्ण भी धनुर्धर थे, लेकिन वे भगवान थे। भगवान तो कुछ भी कर सकते हैं, लेकिन एक ऐसा भी धनुर्धर था, जिसकी विद्या से भगवान कृष्ण भी सतर्क हो गए थे। एक ऐसा भी धनुर्धर था जिसको लेकर द्रोणाचार्य चिंतित हो गए थे और एक ऐसा भी धनुर्धर था जो अपने एक ही बाण से दुश्मन सेना के रथ को कई गज दूर फेंक देता था। इन सभी के तीर में था दम लेकिन सर्वश्रेष्ठ तो सर्वश्रेष्ठ ही होता है। आप सोच रहे हैं कर्ण सर्वश्रेष्ठ है तो जवाब है नहीं।
आप सोच रहे होंगे कि यह बात जरूर अर्जुन या एकलव्य के बारे में की जा रही होगी। नहीं, धनुर्धर तो बहुत हुए लेकिन उस जैसा धनुर्धर आज तक नहीं हुआ और भविष्य में भी कभी नहीं होगा। लेकिन प्राचीन भारत में हुए हजारों धनुर्धरों में सर्वश्रेष्ठ कौन था। 

यहां प्रस्तुत है दुनिया के पांच सर्वश्रेष्ठ धनुर्धरों के बारे में संक्षिप्त जानकारी।

1.लक्ष्मण:-राम के छोटे भाई लक्ष्मण को कौन नहीं जानता। लक्ष्मण ने अपने तीर से रेखा खींच दी थी। उस रेखा में ही इतनी ताकत थी कि कोई भी उसके उस पार नहीं जा सकता था। लक्ष्मण की धनुष विद्या के चर्चे दूर-दूर तक थे।
शास्त्रों अनुसार लक्ष्मण को श्रेष्ठ धनुर्धर माना गया है। लक्ष्मण ने राम-रावण युद्ध के दौरान मेघनाद को हराया था जिसने युद्ध में इंद्र को परास्त कर दिया था इसीलिए मेघनाद को इंद्रजीत भी कहा जाता है।
लेकिन लक्ष्मण से भी कोई श्रेष्ठ था...


2अर्जुन:-पांच पांडवों में से एक अर्जुन की धनुष विद्या भी जग प्रसिद्ध थी। गुरु द्रोण के श्रेष्ठ शिष्यों में से एक थे अर्जुन। द्रोण ने अर्जुन को धनुष सिखाते वक्त वचन दिया था कि तुमसे श्रेष्ठ इस संसार में कोई धनुर्धर नहीं होगा। अर्जुन के धनुष की टंकार से पूरा युद्ध क्षेत्र गुंज उठता था।
रथ पर सवार कृष्ण और अर्जुन को देखने के लिए देवता भी स्वर्ग से उतर गए थे। लेकिन अर्जुन से भी श्रेष्ठ कोई था जिसे दुनिया अर्जुन से श्रेष्ठ मानती है।


3.एकलव्य:-गुरु द्रोण की मूर्ति बनाकर मूर्ति के समक्ष एकलव्य ने धनुष विद्या सिखी थी। गुरु द्रोण को जब इस बात का पता चला कि एकलव्य अर्जुन से भी श्रेष्ठ धनुष बाण चलाना सिख गया है तो उन्होंने एकलव्य से पूछा कि तुमने यह विद्या कहां से सीखी। इस पर एकलव्य ने कहा- गुरुवर मैंने आपको ही गुरु मानकर आपकी मूर्ति के समक्ष यह विद्या को हासिल किया था।
इस बात पर द्रोण ने कहा कि तब तो हम गुरु दक्षिणा के हकदार हैं। एकलव्य यह सुनकर प्रसन्न हो गया और कहने लगा मांगिए गुरुदेव क्या चाहिए। द्रोण ने कहा कि तुम जिस हाथ से प्रत्यंचा चढ़ाते हो मुझे उस हाथ का अंगूठा चाहिए। अर्जुन को दिए वचन की रक्षा के लिए ही उन्होंने एकलव्य से उसका अंगूठा मांग लिया था।
एकलव्य से भी कोई श्रेष्ठ था..


4कर्ण:-वैसे तो महाभारत काल में सैकड़ों योद्धा हुए हैं, लेकिन कहते हैं कि युद्ध में कर्ण जैसा कोई धनुर्धर नहीं था। कवच और कुंडल नहीं उतरवाते, तो कर्ण को मारना असंभव था।
कर्ण के अर्जुन और एकलव्य से श्रेष्ठ धनुर्धर होने का प्रमाण यह है कि कर्ण के तीर की इतनी ताकत थी कि जब वे तीर चलाते थे और उनका तीर अर्जुन के रथ पर लग जाता था तो रथ पीछे कुछ दूरी तक खिसक जाता था। कृष्ण अर्जुन से कहते थे कि जिस रथ पर मैं और हनुमान विराजमान हैं उसके इस तरह पीछे धकेले जाने से पता चलता है कि कर्ण की धनुर्विद्या में बहुत बल है।
लेकिन लक्ष्मण, अर्जुन, एकलव्य और कर्ण से भी कोई श्रेष्ठ धनुर्धर है। कहते हैं दुनिया में उसके जैसा धनुर्धर न हुआ और न कभी होगा...


5.बर्बरीक :हां बर्बरीक दुनिया का सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर थे। युद्ध के मैदान में भीम पौत्र बर्बरीक दोनों खेमों के मध्य बिन्दु, एक पीपल के वृक्ष के नीचे खड़े हो गए और यह घोषणा कर डाली कि मैं उस पक्ष की तरफ से लडूंगा जो हार रहा होगा।
भीम के पौत्र बर्बरीक के समक्ष जब अर्जुन तथा भगवान श्रीकृष्ण उसकी वीरता का चमत्कार देखने के लिए उपस्थित हुए तब बर्बरीक ने अपनी वीरता का छोटा-सा नमूना मात्र ही दिखाया। कृष्ण ने कहा कि यह जो वृक्ष है इसके सारे पत्तों को एक ही तीर से छेद दो तो मैं मान जाऊंगा। बर्बरीक ने आज्ञा लेकर तीर को वृक्ष की ओर छोड़ दिया।
जब तीर एक-एक कर सारे पत्तों को छेदता जा रहा था उसी दौरान एक पत्ता टूटकर नीचे गिर पड़ा, कृष्ण ने उस पत्ते पर यह सोचकर पैर रखकर उसे छुपा लिया की यह छेद होने से बच जाएगा, लेकिन सभी पत्तों को छेदता हुआ वह तीर कृष्ण के पैरों के पास आकर रुक गया।
तब बर्बरीक ने कहा प्रभु आपके पैर के नीचे एक पत्ता दबा है कृपया पैर हटा लीजिए क्योंकि मैंने तीर को सिर्फ पत्तों को छेदने की आज्ञा दे रखी है आपके पैर को छेदने की नहीं।..
ओर आज भारत की स्थति देखो तीरंदाजी मे एक भी ओलमपिक मेडल नही जीत पाता है।
ॐ नम: शिवाय:
जय श्री राम..