Tuesday, December 31, 2013

वेदों पर आक्षेप का उत्तर

मित्रो अन्य मतो की किताबो मे उनहे ओर उनके सन्देश देने वाले का अनुसरण न करने पर नष्ट करने का उपदेश है जैसे कि
"यह बदला है अल्लाह के शत्रुओ का जहन्नम की आग| इसी मे उनका सदा घर है,इसके बदले मे कि हमारी आयतो का इन्कार करते थे|(२४:४१:२८)
है ईमान लाने वालो तुम यहुदियो ओर इसाईयो को मित्र न बनाओ.........(६:५:२९)
इसी तरह बाईबिल मे भी है
यीशु ने कहा'परन्तु मेरे उन बेरियो को जो नही चाहते थे कि मै उन पर राज्य करू,उनको यहा लाकर मेरे सामने घात करो|(लूका १९.२७)
इन बातो से स्पष्ट है कि इनमे जो इनकी बातो को न माने उसे शारिरीक हिंसा देने का उपदेश है लेकिन कुछ लोग विशेष कर मुस्लिम ब्लोगरो द्वारा वेदो पर भी ये आरोप लगाया जाता है कि वेदो मे भी वेद को न मानने वाले को नस्तनाबूत करने का उपदेश है इस बात के सन्दर्भ मे ये लोग अर्थववेद का १२/५/६२ मंत्र रखते है लेकिन असल मे ये मंत्र किसी भी तरह की शारिरीक हिंसा का नही है
आइये देखिये कैसे
" तू काट डाल, चीर डाल, फाड़डाल, जला डाल , भष्म कर
दे" ।इस वेदमंत्र मे अगर 'वेदनिंदक' को काटने-मारने-जला ने
की बात
की गयी होती तो इसमे
सम्बोधन'मनुष्यो' के लिए होता --जैसे कि --
"हेमनुष्यो तुमवेदनिंदकों को काट दो मार दो जला दो । किन्तुइसमे
मनुष्यो को संबोधित नहीं किया गया है ,अर्थात यह मंत्र
मनुष्यो को आज्ञा या आदेशदेता हुआ नहीं है ।
बल्कि इस वेदमन्त्र मे"वेदवाणी" से
प्रार्थना की गयी है ,
अर्थातवेदवाणी के गुणो को प्रकट किया गया है ।कुछ इस
तरह ---- " हे वेदवाणी तू , काट डाल,चीर
डाल , फाड़ डाल , जला डाल, भष्म कर दे ।इसवेदमन्त्र से पूर्व व
पश्चात के मंत्र
मेभी वेदवाणी को ही संबोधित
किया गया है ।अब इतनी सी बात
तो सभी समझ सकते हैवेदवाणी ,
किसी को कैसे काट
सकती हैया जला सकती है ???
क्या वाणी केद्वारा किसी को काटा, मारा ,
जलाया औरभष्मकिया जा सकता है ??
सीधी सी बात है
नहीं ।अतः इस वेदमन्त्र मे कहा गया है कि ---
हेवेदवाणी तू --वेदनिंदक के अज्ञानजनितबंधनो को काट
डाल, तू अघ के कारण वेदनिंदक केमस्तिष्क पर पड़े तम के
पर्दो को चीर डाल फाड़डाल । तू दिव्य ज्ञानाग्नि वेदनिंदक
के अज्ञानको जला दे भष्म कर दे ।अब तुम प्रश्न करोगे कि , ये
मारने काटने जैसेशब्दो से ये बात
क्यो कही गयी एवंइसका क्या प्रमाण है
कि वेदवाणी से ऐसा करनेको कहा जा रहा है ,
हो सकता है तुमअपनी मर्जी से ये भावार्थ
निकाल रहे हो ।तो इसका उत्तर पढ़ लो -------तस्या आहनम्
कृत्या मेनिराशासनं वलग उर्बध्यम्।---अर्थात , उस
वेदवाणी का 'वेदनिंदक'को ताड़ना , बाह्य
पीड़ा , हिंसा आदि से रहितहैकिन्तु आंतरिक
बंधनमुक्ति का सोपान है । इसमेस्पष्ट कर दिया गया है
कि वेदवाणी किसप्रकारवेदविरुद्ध दोषो को नष्ट कर
करती है ।अथर्ववेद का ही एक और मंत्र
देखो ---वैश्वदेवी ह्वां च्यसे कृत्या कूल्वजमावृत्ता ।
अर्थात --- हे सब विद्वानो का हित
करनेवाली वेदवाणी तू , वेदनिन्दको के लिए
हिंसारूपहै। इस बात को उदाहरण से समझो -- जैसे
विद्वानको अनैतिक बात सुननी पड़े तो वो अनैतिक बातेविद्वान
की शत्रु समान है, अर्थात उसके लिएहिंसा के समान है
क्यो कि वो उसे चोटपहुचाती है, इसी प्रकार
पवित्रवेदज्ञान क्यो नअधर्मियों के लिए हिंसा के समान होवे ?
अतः इस वेदमन्त्र मे शारीरिक हिंसा का नहोना सिद्ध
होता है ।
इसके अलावा वेद ही ऐसा ग्रंथ है जो ये नही कहता कि तुम इस विशेष व्यक्ति का अनुसरण करो जैसा कुरान मुहमद का कहती है ओर बाईबिल ईसा का जबकि यजुर्वेद कहता है मनुर्भवः अर्थात् मनुष्य बनो अतः वेद ही एकमात्र ग्रंख है जो मानवता का उपदेश करते है|

Monday, December 30, 2013

बुध्द ओर वैदिक वर्णव्यवस्था

मित्रो, विधाता ने जीवोँ के कल्याण के लिए
सृष्टि को बनाया है। जीवोँ के कल्याणार्थ सब भोग पदार्थ
दिये गए हैँ। परमात्मा ने अपना नित्य अनादि ज्ञान(वेद)
भी सृष्टि के आदि मेँ दिया है। जैसे सृष्टि के अन्य-अन्य
नियम(Laws) अनादि व नित्य(Eternal) हैँ। इसी प्रकार
से परमात्मा का वेदज्ञान भी अनादि व सार्वभौमिक है।
जीव कर्म करने मेँ स्वतन्त्र है। यह बात मनोविज्ञान
को भी मान्य है। यही वैदिक सिद्धान्त है।
मानव इस कारण से अपने स्वार्थ, हठ, दुराग्रह व अज्ञानवश
परमात्मा के नियम तोड़ देता है। संसार मेँ कभी एक वैदिक
धर्म सबको मान्य था। इस बात के प्रमाण बाईबल व कुरान मेँ
भी मिलते हैँ। फिर ऐसा समय
भी आया कि वेद विरूद्ध मत फैलने लगे। भारत मेँ
ही वेदोँ के नाम पर पशु हिँसा होने लगे। जन्म
की जाति-पाति, अस्पृश्यता के कारण गुण कर्म का महत्व
घटता गया। स्त्रियोँ का भी तिरस्कार होने लगा।
स्वार्थी लोगोँ ने जो केवल नाममात्र के ब्राह्मण थे,
भारतवर्ष मेँ प्रचलित वैदिक कर्मणा वर्णव्यवस्था के स्थान पर
जन्मना जाति व्यवस्था को खड़ा कर दिया। ऐसी वेला मेँ
महात्मा बुद्ध इन सबके विरूद्ध अभियान छेड़ा। बुद्ध करूणामूर्ति थे।
उनकी वाणी मेँ बल था। उन्होनेँ जन्म
की जाति पाँति, आडम्बरोँ व अन्धविश्वासोँ के विरूद्ध आवाज
उठाई। उनकी वाणी मेँ सत्य था और आत्मा मेँ
सत्य कहने का साहस। उन्होनेँ मुख्य रूप से जो पाँच यम है
उनका ही उपदेश किया। जो कुछ
भी कहा उसमेँ अधिकांश वैदिक शिक्षायेँ
ही मिलती हैँ।
महात्मा बुद्ध ने कोई ग्रन्थ नही रचा। उनके मुख्य-2
उपदेशोँ को संग्रहीत करके धम्मपद पुस्तक का संकलन
किया गया। इसमे छोटे-छोटे 26 अध्याय हैँ। इनमेँ कुल 423 उपदेश
हैँ। महात्मा बुद्ध के इन उपदेशोँ को हम एक आर्य सुधारक
की वाणी कह सकते हैँ। इस पुस्तक मेँ
मानव-कल्याण की और विश्व-शान्ति का उपदेश
देनेवाली एक भी तो ऐसी बात
नहीँ जिसे नया कहा जा सके या जो वेद
आदि प्राचीन शास्त्रोँ मेँ न हो। न जाने
राजनीति से प्रेरित होकर कुछ लोग दिन रात यह दुष्प्रचार
क्योँ करते है कि महात्मा बुद्ध ने एक नया मत चलाया था।
आश्चर्य की बात तो यह है कि बुद्ध के उपदेशोँ मेँ
'आर्य' कौन है और ब्राह्मण कौन है- इस विषय के कई उपदेश
हैँ और समस्त उपदेश वेदोक्त हैँ। इस युग मेँ ऋषि दयानन्द ने
भी तो यही कुछ कहा। दोनो मेँ अन्तर है
तो केवल यह कि महात्मा बुद्ध के कथन
की वेदादि प्रमाणोँ से
पुष्टि नही की गई और ऋषि दयानन्द ने
बिना प्रमाण कुछा कहा ही नहीँ।
कर्मणा वर्ण विचार पर वेद का मन्तव्य-- मित्रो, वेदोँ मेँ ब्राह्मण,
क्षत्रियादि शब्द यौगिक और गुणवाचक हैँ। जो ब्रह्मा अर्थात्
परमेश्वर और वेद को जानता और उनका प्रचार करता है, वह
ब्राह्मण है। क्षत व आपत्ति से समाज और देश
की रक्षा करने वाले क्षत्रिय, व्यापारादि के लिये एक देश
से दूसरे मेँ प्रवेश करने वाले वैश्य और उच्च ज्ञानरहित होने के
कारण सेवार्थ लगने वाले शूद्र हैँ। इस प्रकार समस्त वर्ण
व्यवस्था कर्मानुसार संचालित है न कि जन्मानुसार।
च गिरीणां, सग्ड़मे च नदिनाम्। धिया विप्रो अजायत।।(यजु॰
26/15)
वेद मन्त्र यही बतलाता है
कि पर्वतोँ की उपत्यकाओँ, नदियोँ के
संगमो इत्यादि रमरीण प्रदेशोँ मेँ रहकर विद्याध्ययन करने
और उत्तम बुद्धि तथा अति श्रेष्ठ कर्म से मनुष्य ब्राह्मण बन
जाते हैँ।
कर्मणा वर्ण व्यवस्था पर बुद्ध विचार-- मित्रो, महात्मा बुद्ध ने
जन्मानुसार वर्ण मानने का खण्डन किया है किन्तु गुण-कर्मानुसार
ब्राह्मण आदि मानने का उन्होनेँ स्पष्ट प्रतिपादन किया है।
सुत्त निपात वसिठ्ठ सुत्त मेँ वर्णन है कि एक वसिठ्ठ और भारद्वाज
नामके दे ब्राह्मणोँ का वर्ण भेद के विषय मेँ विवाद हुआ। वसिठ्ठ
कर्मणा वर्ण के पक्ष मेँ था और भारद्वाज जन्मना। तब उन्होनेँ इस
पर महात्मा बुद्ध से व्यवस्था माँगी। महात्मा बुद्ध ने
जो कुछ कहा उसका सार मैँ लिखता हूं।
"जो व्यापार करता है वह
व्यापारी ही कहलायेगा और शिल्पकार हम
शिल्पी ही कहेँगे ब्राह्मण
नहीँ। अस्त्र-शस्त्रोँ से अपना निर्वाह
करनेवाला मनुष्य सैनिक कहा जायेगा ब्राह्मण नही।
अपने कर्म से कोई किसान है तो कोई शिल्पकार कोई
व्यापारी है तो कोई अनुचर। कर्म पर
ही जगत् स्थित है।" (समस्त प्रकरण देखेँ सुत्त
निपात श्लोक 596 से 610 तक) मित्रोँ, महात्मा बुद्ध ने श्लोक 650
मेँ जो कहा वो मैँ लिखता हूं।
"न जच्चा ब्राह्मणो होति, न जज्चा होति अब्राह्मणो।
कम्मना ब्राह्मणो होति, कम्मना होति अब्राह्मणोँ।। मुझे
नही लगता कि इसका अर्थ मैँ लिखू
धम्मपद के ब्राह्मण वग्ग मेँ महात्मा बुद्ध ने जो उपदेश ब्राह्मण
विषयक दिये हैँ वे भी देखे-
"न जटाहि न गोत्तेहि, न जच्चा होति ब्राह्मणो। यम्हि सच्चं च
धम्मो च, सो सुची सो च ब्राह्मणो।। (धम्मपद ब्राह्मण
वग्ग 11)
अर्थात् न जटा से, न गोत्र से, न जन्म से ब्राह्मण होता है, जिसमेँ
सत्य और धर्म है वही शुचि है और
वही ब्राह्मण है। ऋषि दयानन्द और महात्मा बुद्ध--
महात्मा बुद्ध ने अपने उपदेशोँ की पुष्टि मेँ
आश्चर्यजनक रूप से चाण्डाल पुत्र मातंग नामक व्यक्ति का उदाहरण
दिया है जो बाद कर्मानुसार ब्राह्मण हो गये थे। (देखेँ सुत्त निपात
हिन्दी अनुवाद पृ॰51) और अब देखिए ऋषि दयानन्द ने
भी अपने अमर ग्रन्थ "सत्यार्थ प्रकाश" मेँ एक प्रश्न
के उत्तर मेँ लिखा है कि "अन्य वर्णस्थ बहुत से लोग ब्राह्मण
हो गये हैँ जैसे जाबाल ऋषि अज्ञात कुल, विश्वामित्र क्षत्रिय वर्ण
से, और मांतग ऋषि चाण्डाल कुल से ब्राह्मण हो गये थे। अब
भी जो उत्तम विद्या स्वभाव वाला है
वही ब्राह्मण के योग्य और मूर्ख शूद्र के योग्य
होता है।(मातंग ऋषि महातपस्वी शबरी के
गुरू थे)
नोट- मित्रो, इस प्रकार हमने देखा कि महात्मा बुद्ध वैदिक
कर्मणा वर्णव्यवस्था के पोषक थे। उन्होनेँ केवल आडम्बरोँ का विरोध
किया था जो करना भी चाहिए था। इसलिए हम
श्री रमेशचन्द्रजी दत्त के परिणाम से
सर्वथा सहमत हैँ कि- "ऐतिहासिक दृष्टि से यह कथन अशुद्ध
है कि गौतम बुद्ध ने जान-बूझकर कोई नया मत चलाने का प्रयत्न
किया। उनका अन्त तक यही विश्वास
था कि ब्राह्मणोँ श्रमणोँ तथा अन्योँ मेँ प्रचलित धर्म
का प्राचीन और शुद्ध रूप मेँ प्रचार कर रहे है
जो पीछे से बिगड़ गया था।(Ancient india by R.C
Dutt Vol. II P.226)
स्वामी धर्मानन्द जी की पुस्तक
बोद्धमत और वैदिक धर्म से साभार।

बुध्द ओर वेद

प्रायः यह माना जाता है बुद्ध वेदोँ के घोर विरोधी थे किन्तु
निष्पक्षपात दृष्टि से इस विषय का अनुशीलन करने पर
इसमेँ यथार्थता नहीँ प्रतीत
होती।
सुत्त निपात के सभिय सुत्त मेँ महात्मा बुद्ध ने वेदज्ञ का लक्षण
इस प्रकार बताया है-
वेदानि विचेग्य केवलानि समणानं यानि पर अत्थि ब्राह्मणानं।
सब्बा वेदनासु वीतरागो सब्बं वेदमनिच्च वेदगू सो।।
(सुत्त निपात 529)
श्री जगत्मोहन वर्मा ने अपनी 'बुद्ध देव'
नामक पुस्तक के पृष्ठ 243 पर इसे उद्धत करके अनुवाद दिया है-
"जिसने सब वेदोँ और कैवल्य वा मोक्ष-विधायक उपनिषदोँ का अवगाहन
कर लिया है और जो सब वेदनाओँ से वीतराग होकर
सबको अनित्य जानता है वही वेदज्ञ है"।
श्री वियोगी हरि ने अपनी 'बुद्ध
वाणी' के पृ॰72 मेँ इसे निम्न अर्थ के साथ उद्धत
किया है- "श्रमण और ब्राह्मणोँ के जितने वेद हैँ उन
सबको जानकर और उन्हेँ पार करके जो सब वेदनाओँ के विषय मेँ
वीतराग हो जाता है, वह वेद पारग कहलाता
श्रोत्रिय का लक्षण-
प्रश्न- किन गुणोँ को प्राप्त करके मनुष्य श्रोत्रिय होता है?
बुद्ध का उत्तर-
"सुत्वा सब्ब धम्मं अभिञ्ञाय लोके सावज्जानवज्जं यदत्थि किँचि।
अभिभुं अकथं कथिँ विमुत्त अनिघंसब्बधिम् आहु 'सोत्तियोति"।।
लार्ड चैमर्स G.C.B.D.Litt ने Buddha's teaching सुत्त निपात
के अनुवाद मेँ इसका अर्थ योँ दिया है-
"जितने भी निन्दित और अनिन्दित धर्म हैँ उन
सबको सुनकर और जानकर जो मनुष्य उनपर विजय प्राप्त करके
निश्शंक, विमुक्त, और सर्वथा निर्दःख हो जाता है, उसे श्रोत्रिय
कहते हैँ"।
संस्कृत साहित्य मेँ श्रोत्रिय शब्द का प्रयोग 'श्रोत्रियछश्न्
दोऽधीते' इस अष्टाध्यायी के सूत्र के
अनुसार वेद पढ़नेवाले के लिए होता है। वेदज्ञ और श्रोत्रिय के
महात्मा बुद्ध ने सभिय के प्रश्न के उत्तर मेँ जो लक्षण किये हैँ
उनसे उनका वेदोँ के विषय मेँ आदर भाव ही प्रकट
होता है न कि अनादर, यह बात सर्वथा स्पष्ट है। दरअसल
जहां भी निन्दासूचक शब्द आये हैँ वे उन ब्राह्मणोँ के
लिए आये जो केवल वेद का अध्ययन करते हैँ पर तदनुसार आचरण
नहीँ करते हैँ। इसको वेद की निन्दा समझ
लेना बड़ी भूल है।
मित्रोँ, सब वैदिकधर्मी विद्वान इस बात को जानते हैँ
कि गायत्री मन्त्र 'सवितुर्वरेण्य भर्गो देवस्य
धीमहि। धियो यो नः प्रयोदयात्।' वेद माता तथा गुरूमंत्र के
रूप मेँ आदृत किया जाता है। महर्षि मनु अपनी स्मृति मेँ
गायत्री को सावित्री मंत्र के नाम से
भी पुकारते हैँ क्योँकि इसमेँ परमेश्वर को 'सविता' के नाम
से स्मरण किया गया है।
(मनुस्मृति 2/78)
इसी आर्ष परम्परा का अनुसरण करते हुए
महात्मा बुद्ध ने सुत्तनिपात महावग्ग सेलसुत्त श्लो॰21 मेँ
कहा है-
अग्गिहुत्तमुखा यज्ञाः सावित्री छन्दसो मुखम्।
अग्रिहोत्र मुखा यज्ञा, सावित्री छन्दसो मुखम्।।
इसका अनुवाद प्रायः लेखको ने छन्दोँ मेँ सावित्री छन्द
प्रधान है ऐसा किया है। किन्तु वह अशुद्ध है।
सावित्री किसी छन्द का नाम
नहीँ। छन्द का नाम तो गायत्री है। छन्द
का अर्थ वेद तो सुप्रसिद्ध है
ही अतः उसी अर्थ को लेने से
ही महात्मा बुद्ध की उक्ति अधिक सुसंगत
प्रतीत होती है। इसमेँ
उनकी सावित्री मन्त्र(गायत्री)
तथा अग्रिहोत्र विषयक श्रद्धा का भी आभास मिलता है।
क्या एक वेद विरोधी नास्तिक के मुख से
कभी इस प्रकार के शब्द निकल सकते हैँ?
सुत्तनिपात श्लो॰322 मेँ महात्मा बुद्ध ने कहा है-
एवं पि यो वेदगू भावितत्तो, बहुस्सुतो होति अवेध धम्मो।
सोखो परे निज्झपये पजानं सोतावधानूपनिसूपपत्रे।।
अर्थात् जो वेद जाननेवाला है, जिसने अपने को सधा रखा है,
जो बहुश्रुत है और धर्म का निश्चय पूर्वक जाननेवाला है वह
निश्चय से स्वयं ज्ञान बनकर अन्योँ को जो श्रोता सीखने
के अधिकारी हैँ ज्ञान दे सकता है।
लार्ड चैमर्स के अनुवाद मेँ 'वेदगु' का अर्थ वेद को जाननेवाला न देकर
केवल He who knows यह दे दिया है जो अपूर्ण है, शेष भाग
का अनुवाद ठीक है। वस्तुतः He who knows के
स्थान पर 'He who knows the Vedas' होना चाहिए।
सुन्दरिक भारद्वाज सुत्त मेँ कथा है कि सुन्दरिक भारद्वाज जब यज्ञ
समाप्त कर चुका तो वह किसी श्रेष्ठ ब्राह्मण
को यज्ञ शेष देना चाहता था। उसने संन्यासी बुद्ध
को देखा। उसने उनकी जाति पूछी उन्होनेँ
कहा कि मैँ ब्राह्मण हूं और उसे सत्य उपदेश देते हुए कहा-
"यदन्तगु वेदगु यञ्ञ काले। यस्साहुतिँल ले तस्स इज्झेति ब्रूमि।।"
अर्थात् वेद को जाननेवाला जिसकी आहुति को प्राप्त करे
उसका यज्ञ सफल होता है ऐसा मैँ कहता हूं। इसमेँ
जन्मना जाति का कोई मतलब नहीँ है। इस प्रकरण से
भी स्पष्ट ज्ञात होता है कि महात्मा बुद्ध सच्चे
वेदज्ञोँ के लिए बड़ा आदरभाव रखते थे।
यहां भी लार्ड चैमर्स नेँ अशुद्धि की है
और 'वेदगु' का अर्थ Saint किया है।
सुत्तनिपात श्लोक 1059 मेँ महात्मा बुद्ध की निम्न
उक्ति पाई जाती है-
यं ब्राह्मणं वेदगुं अभिजञ्ञा अकिँचनं कामभवे असत्तम्।
अद्धाहि सो ओघमिमम् अतारि तिण्णो च पारम् अखिलो अडंखो।।
अर्थात् जिसने उस वेदज्ञ ब्राह्मण को जान लिया जिसके पास कुछ
धन नहीँ और जो सांसरिक कामनाओँ मेँ आसक्त
नहीँ वह आकांक्षारहित सचमुच इस संसार सागर के पार
पहुंच जाता है। यहां भी लार्ड चैमर्स ने 'वेदगु'
का अर्थ Rich in lore किया है जो ठीक
नहीँ, इसका अर्थ Rich in Vedic lore होना चाहिए।
उपसंहार- मित्रोँ, तो हमने पाया कि महात्मा बुद्ध न सिर्फ
वेदो का सम्मान करते थे बल्कि सच्चे वेदज्ञोँ के
भी प्रेमी थे। बुद्ध गया के महन्त
स्वामी महाराज योगिराज ने अपने "बुद्ध
मीमांसा" नामक उत्तम अंग्रेजी ग्रन्थ मेँ
लिखा है कि- "त्विश्य जातक मेँ वेदोँ के अध्ययन को बौद्ध
गृहस्थोँ के आवश्यक कर्त्तव्य के रूप मेँ बताया गया है। इसके लिए
उन्होनेँ श्री शरत्चन्द्र दास कृत Indian Pandits in
the Land of snow P.87 का प्रतीक दिया है।
(Buddha  meemansa P.60)
बौद्धमत पर अनेक ग्रंथोँ के लेखक श्री राइसडेविड्स ने
अपनी 'Buddhism' नामक पुस्तक मेँ लिखा है कि-
बुद्ध के विषय मेँ यह एक अशुद्ध फैला हुआ है कि वह हिन्दू
धर्म का शत्रु है। बुद्ध भारतीय के रूप मेँ
ही उत्पन्न हुए, पालित हुए उसी रूप मेँ
जिये। उस समय प्रचलित धर्म से उनका कुछ ही विवाद
था। पर उनका उद्देश्य धर्म को सम्पुष्ट करना तथा प्रबल बनाना था,
उसका नाश करना नहीँ।
Buddhism by Rhys Davids P.182)
सुप्रसिद्ध पाश्चात्य विद्वान श्री मोनियर विलियम्म ने
अपनी Buddhism नामक किताब के P.206 पर
लिखा है कि-
बुद्ध का उद्देश्य हिन्दू धर्म का नाश करना नहीँ अपितु
अशुद्धियोँ से पवित्र करके प्राचीन शुद्ध रूप मेँ पुनरूद्धार
करना था।
मित्रोँ, इतने प्रमाणो के बाद अब अधिक कहने
की आवश्यकता नहीँ है। ईश्वर
सबको सद्बुद्धि प्रदान करेँ।

इसके अलावा सुत्तनिपात मे बुध्द के वेदो के सम्बन्ध मे अन्य कथन
(अ) "विद्वा च वेदेहि समेच्च धम्मम्|
न उच्चावचं गच्छति भूरिपञ्ञो|(सुत्तनिपात २९२)
बुध्द कहते है- जो विद्वान वेदो से धर्म का ज्ञान प्राप्त करता है,वह कभी विचलित नही होता है|
(आ) "विद्वा च सो वेदगू नरो इध, भवाभवे संगं इमं विसज्जा|
सो वीतवण्हो अनिघो निरासो,आतारि सो जाति जंराति ब्रमीति||(सुत्तनिपात१०६०)
वेद को जानने वाला विद्वान इस संसार मे जन्म ओर मृत्यु की आसक्ति का त्याग करके ओक इच्छा ,तृष्णा तथा पाप से रहित होकर जन्म मृत्यु से छुट जाता है|
इन सभी तर्को से यही स्पष्ट होता है कि बुध्द वेदो के विरोधी नही थे बल्कि तथाकथित ब्रह्माणो द्वारा वेदो के नाम पर जो पाखंड चलाया था उसके विरोधी थे|

Sunday, December 29, 2013

बुध्द ओर मांसाहार

बुध्द ओर सूअर का मास
मित्रो महाभारत के युध्द के बाद धर्म मे ओर धर्म ग्रंथो कर्मकांडो मे
कई तरह की अशुध्दिया आ गई ओर जो यञ
प्राणी मात्र के जीवन रछा ओर सुख
की कामना के लिए किया जाता था उनमे पशु बलि का प्रचलन
हो गया,,,
ऐसे मै गौतम बुध्द ने कई बार अपने प्राणो की परवाह
किए बिना यञ से पशु को बलि होने से बचाया लेकिन जिन बुध्द ने पशु
रछा मे अपना जीवन दिया आज कल उनके
ही अनुयायी ओर बौध्द देश मास भछण करते
है|
यहा तक नवनिर्मित
अम्बेडकरवादी भी कहते है कि बुध्द
भी मासाहारी थे ओर अम्बेडकर
वादी भी फुल मास भछण करते है|
इसके अलावा विदेशी मत के लोग जैसे इसाई ओर मुस्लिम
भी ये प्रचार करते है कि बुध्द की मृत्यु
सूअर का मास खाने से हुई|
असल मे बोध्द धर्म मे बुध्द के बाद भिछुको ने
अपनी सुविधानुसार परिवर्तन किए थे
इसी तरह एक बौध्द भिछु ने
किसी चील के मुह से गिरे हुए मास
का टुकडा खा लिया ओर ये प्रचार फैला दिया कि पशु को मारना पाप है
जबकि मास खाना नही वास्तव मे बुध्द ने
कभी मासाहार नही किया ओर न
कभी इसका समर्थन किया लेकिन विरोध अवश्य किया है|
अब हम आप को बताते है सूअर के मास के पीछै
का रहस्य-
"चुदस्स भत्त मुजित्वा कम्मारस्साति ये सुतं|
आबाधं सम्फुसो धीरो पबाव्ठे मारणान्तिकं|
भत्तस्स च सूकर मद्दवेन,व्याधि पवाह उदपादि सत्थुनो|
विरेचमानो मगवा आबोच गच्छामहं कुसिनारं नगरंति|{दीर्घ
निकाय}
इसका भावार्थ है कि चुन्नासा भट्ट ने महात्मा बुध्द को सूकर
का मद्दव खिला दिया|उससे उनके पेट मे अति पीडा हुई
और उनहे अतिसार हौ गया|तब उनहोने कहा ,"मै
कुसीनगर को जाउगा "
यहा सूकर मद्दव को लोग सूअर का मास समझते है विशेषकर
श्रीलंकाई बोध्दो ने इसे सुअर का मास बताया लेकिन ये सच
नही है
वास्तव मै यहा सूकर मद्दव पाली शब्द है जिसे
हिन्दी करे तो होगा सूकर कन्द ओर संस्कृत मे बराह
कन्द यदि आम भाषा मे देखे तो सकरकन्द चुकि ये दो प्रकार
का होता है १ घरेलु मीठा२ जंगली कडवा इस
पर छोटे सूकर जैसे बाल आते है इस लिए इसे बराह कन्द
या शकरकन्द कहते है|ये एक कन्द होता है जिसका साग
बनाया जाता है |इसके गुण यह है कि यह चेपदार मधुर और गरिष्ठ
होता है तथा अतिसार उत्पादक जिस जगह भगवान बुध्द ने यह
खाया ओर उनहे अतिसार हुआ उस गौरखपुर
देवरिया की तराई मे उस समय ओर आज
भी सकर कन्द
की खेती की जाती है|
वास्तव मै उसका अर्थ सूअर का मास
करना मुर्खता ही है
इस तरह अन्य चीजे भी है
जैसे एक औषधी अश्वशाल होती है
जिसका शाब्दिक अर्थ घौडे के बाल लेकिन वास्तव मे यै औषधिय
पौधा होता है
इसी तरह अंग्रेजी मे lady finger
जिसका अर्थ करे तो औरत की उंगली लेकिन
वास्तव मे यह भिंडी के लिए है
इसी तरह कुकरमुत्ता जिसका शाब्दिक अर्थ कुत्ते
का मूत्र लेकिन ये वास्तव मे एक साग होता है
इसी तरह अश्वगंधा जिसका घौडे की गंध
लेकिन वास्तव मे ये औषधिए पौधा होता है|
अत: सूकर मद्दव एक कन्द है न कि सूकर का मास|
इस लिंक को पढे अधिक जानकारी हैतु
https://vedictruth.blogspot.in/2013/12/blog-post_14.html?
m=1

नकल है मुहमद की कहानी

मुहम्मद की कहानी है
नकली
फारस में मुहम्मद से 1200 वर्ष पहले
ज़राथ्रुस्त्र (Zoraster) नाम के एक पैगम्बर हुए जिन्होंने
पारसी धर्म की स्थापना की
मुहम्मद ने ज़राथ्रुस्त्र कहानी चुराई है
ज़राथ्रुस्त्र को एक परी मिली जैसे
मुहम्मद को गेब्रियल
वह परी ज़राथ्रुस्त्र को इश्वर अहुरा मज़्दा के पास ले
गई
ठीक गेब्रियल भी मुहम्मद को अल्लह के
पास ले गया
अहुरा ज़राथ्रुस्त्र को अवेस्ता जो पारसी धर्म का ग्रंथ
है उसकी सिख दी
अल्लह ने भी मुहम्मद को कुरान का ज्ञान दिया
मुहम्मद के जन्म से 1200 वर्ष
पुराणी कहानी खुद मुहम्मद ने
चुरा ली ।