Thursday, November 14, 2013

पोरस के हाथों धूल चाटा हुआ अलैक्जेंडर बन बैठा विश्व विजेता सिकंदर



जब पोरस ने सिकन्दर(Alexander) के सर से विश्व-विजेता बनने का भूत उतारा...
जितना बड़ा अन्याय और धोखा इतिहासकारों ने महान पौरस के साथ किया है उतना बड़ा अन्याय इतिहास में शायद ही किसी के साथ हुआ होगा।एक महान नीतिज्ञ,दूरदर्शी,शक्तिशाली वीर विजयी राजा को निर्बल और पराजित राजा बना दिया गया....
चूँकि सिकन्दर पूरे यूनान,ईरान,ईराक,बैक्ट्रिया आदि को जीतते हुए आ रहा था इसलिए भारत में उसके पराजय और अपमान को यूनानी इतिहासकार सह नहीं सके और अपने आपको दिलासा देने के लिए अपनी एक मन-गढंत कहानी बनाकर उस इतिहास को लिख दिए जो वो लिखना चाह रहे थे या कहें कि जिसकी वो आशा लगाए बैठे थे..यह ठीक वैसा ही है जैसा कि हम जब कोई बहुत सुखद स्वप्न देखते हैं और वो स्वप्न पूरा होने के पहले ही हमारी नींद टूट जाती है तो हम फिर से सोने की कोशिश करते हैं और उस स्वप्न में जाकर उस कहानी को पूरा करने की कोशिश करते हैं जो अधूरा रह गया था.. आलसीपन तो भारतीयों में इस तरह हावी है कि भारतीय इतिहासकारों ने भी बिना सोचे-समझे उसी यूनानी इतिहास को लिख दिया...
कुछ हिम्मत ग्रीक के फिल्म-निर्माता ओलिवर स्टोन ने दिखाई है जो उन्होंने कुछ हद तक सिकन्दर की हार को स्वीकार किया है..फिल्म में दिखाया गया है कि एक तीर सिकन्दर का सीना भेद देती है और इससे पहले कि वो शत्रु के हत्थे चढ़ता उससे पहले उसके सहयोगी उसे ले भागते हैं.इस फिल्म में ये भी कहा गया है कि ये उसके जीवन की सबसे भयानक त्रासदी थी और भारतीयों ने उसे तथा उसकी सेना को पीछे लौटने के लिए विवश कर दिया..चूँकि उस फिल्म का नायक सिकन्दर है इसलिए उसकी इतनी सी भी हार दिखाई गई है तो ये बहुत है,नहीं तो इससे ज्यादा सच दिखाने पर लोग उस फिल्म को ही पसन्द नहीं करते..वैसे कोई भी फिल्मकार अपने नायक की हार को नहीं दिखाता है.......
अब देखिए कि भारतीय बच्चे क्या पढ़ते हैं इतिहास में--"सिकन्दर ने पौरस को बंदी बना लिया था..उसके बाद जब सिकन्दर ने उससे पूछा कि उसके साथ कैसा व्यवहार किया जाय तो पौरस ने कहा कि उसके साथ वही किया जाय जो एक राजा के साथ किया जाता है अर्थात मृत्यु-दण्ड..सिकन्दर इस बात से इतना अधिक प्रभावित हो गया कि उसने वो कार्य कर दिया जो अपने जीवन भर में उसने कभी नहीं किए थे..उसने अपने जीवन के एक मात्र ध्येय,अपना सबसे बड़ा सपना विश्व-विजेता बनने का सपना तोड़ दिया और पौरस को पुरस्कार-स्वरुप अपने जीते हुए कुछ राज्य तथा धन-सम्पत्ति प्रदान किए..तथा वापस लौटने का निश्चय किया और लौटने के क्रम में ही उसकी मृत्यु हो गई.."
ये कितना बड़ा तमाचा है उन भारतीय इतिहासकारों के मुँह पर कि खुद विदेशी ही ऐसी फिल्म बनाकर सिकंदर की हार को स्वीकार कर रहे रहे हैं और हम अपने ही वीरों का इसतरह अपमान कर रहे हैं......!!
मुझे तो लगता है कि ये भारतीयों का विशाल हृदयतावश उनका त्याग था जो अपनी इतनी बड़ी विजय गाथा यूनानियों के नाम कर दी..भारत दयालु और त्यागी है यह बात तो जग-जाहिर है और इस बात का इससे बड़ा प्रमाण क्या हो सकता है..?क्या ये भारतीय इतिहासकारों की दयालुता की परिसीमा नहीं है..? वैसे भी रखा ही क्या था इस विजय-गाथा में; भारत तो ऐसी कितनी ही बड़ी-बड़ी लड़ाईयाँ जीत चुका है कितने ही अभिमानियों का सर झुका चुका है फिर उन सब विजय गाथाओं के सामने इस विजय-गाथा की क्या औकात.....है ना..?? उस समय भारत में पौरस जैसे कितने ही राजा रोज जन्मते थे और मरते थे तो ऐसे में सबका कितना हिसाब-किताब रखा जाय;वो तो पौरस का सौभाग्य था जो उसका नाम सिकन्दर के साथ जुड़ गया और वो भी इतिहास के पन्नों में अंकित हो गया(भले ही हारे हुए राजा के रुप में ही सही) नहीं तो इतिहास पौरस को जानती भी नहीं..
इतिहास सिकन्दर को विश्व-विजेता घोषित करती है पर अगर सिकन्दर ने पौरस को हरा भी दिया था तो भी वो विश्व-विजेता कैसे बन गया..? पौरस तो बस एक राज्य का राजा था..भारत में उस तरक के अनेक राज्य थे तो पौरस पर सिकन्दर की विजय भारत की विजय तो नहीं कही जा सकती और भारत तो दूर चीन,जापान जैसे एशियाई देश भी तो जीतना बाँकी ही था फिर वो विश्व-विजेता कहलाने का अधिकारी कैसे हो गया...?
जाने दीजिए....भारत में तो ऐसे अनेक राजा हुए जिन्होंने पूरे विश्व को जीतकर राजसूय यज्य करवाया था पर बेचारे यूनान के पास तो एक ही घिसा-पिटा योद्धा कुछ हद तक है ऐसा जिसे विश्व-विजेता कहा जा सकता है....तो.! ठीक है भाई यूनान वालों,संतोष कर लो उसे विश्वविजेता कहकर...!
महत्त्वपूर्ण बात ये कि सिकन्दर को सिर्फ विश्वविजेता ही नहीं बल्कि महान की उपाधि भी प्रदान की गई है और ये बताया जाता है कि सिकन्दर बहुत बड़ा हृदय वाला दयालु राजा था ताकि उसे महान घोषित किया जा सके क्योंकि सिर्फ लड़ कर लाखों लोगों का खून बहाकर एक विश्व-विजेता को महान की उपाधि नहीं दी सकती ना ; उसके अंदर मानवता के गुण भी होने चाहिए.इसलिए ये भी घोषित कर दिया गया कि सिकन्दर विशाल हृदय वाला एक महान व्यक्ति था..पर उसे महान घोषित करने के पीछे एक बहुत बड़ा उद्देश्य छुपा हुआ है और वो उद्देश्य है सिकन्दर की पौरस पर विजय को सिद्ध करना...क्योंकि यहाँ पर सिकन्दर की पौरस पर विजय को तभी सिद्ध किया जा सकता है जब यह सिद्ध हो जाय कि सिकन्दर बड़ा हृदय वाला महान व्यक्ति था..
अरे अगर सिकन्दर बड़ा हृदय वाला व्यक्ति होता तो उसे धन की लालच ना होती जो उसे भारत तक ले आई थी और ना ही धन के लिए इतने लोगों का खून बहाया होता उसने..इस बात को उस फिल्म में भी दिखाया गया है कि सिकन्दर को भारत के धन(सोने,हीरे-मोतियों) से लोभ था.. यहाँ ये बात सोचने वाली है कि जो व्यक्ति धन के लिए इतनी दूर इतना कठिन रास्ता तय करके भारत आ जाएगा वो पौरस की वीरता से खुश होकर पौरस को जीवन-दान भले ही दे देगा और ज्यादा से ज्यादा उसकी मूल-भूमि भले ही उसे सौंप देगा पर अपना जीता हुआ प्रदेश पौरस को क्यों सौंपेगा..और यहाँ पर यूनानी इतिहासकारों की झूठ देखिए कैसे पकड़ा जाती है..एक तरफ तो पौरस पर विजय सिद्ध करने के लिए ये कह दिया उन्होंने कि सिकन्दर ने पौरस को उसका तथा अपना जीता हुआ प्रदेश दे दिया दूसरी तरफ फिर सिकन्दर के दक्षिण दिशा में जाने का ये कारण देते हैं कि और अधिक धन लूटने तथा और अधिक प्रदेश जीतने के लिए सिकन्दर दक्षिण की दिशा में गया...बताइए कि कितना बड़ा कुतर्क है ये....! सच्चाई ये थी कि पौरस ने उसे उत्तरी मार्ग से जाने की अनुमति ही नहीं दी थी..ये पौरस की दूरदर्शिता थी क्योंकि पौरस को शक था कि ये उत्तर से जाने पर अपनी शक्ति फिर से इकट्ठा करके फिर से हमला कर सकता है जैसा कि बाद में मुस्लिम शासकों ने किया भी..पौरस को पता था कि दक्षिण की खूँखार जाति सिकन्दर को छोड़ेगी नहीं और सच में ऐसा हुआ भी...उस फिल्म में भी दिखाया गया है कि सिकन्दर की सेना भारत की खूँखार जन-जाति से डरती है ..अब बताइए कि जो पहले ही डर रहा हो वो अपने जीते हुए प्रदेश यनि उत्तर की तरफ से वापस जाने के बजाय मौत के मुँह में यनि दक्षिण की तरफ से क्यों लौटेगा तथा जो व्यक्ति और ज्यादा प्रदेश जीतने के लिए उस खूँखार जनजाति से भिड़ जाएगा वो अपना पहले का जीता हुआ प्रदेश एक पराजित योद्धा को क्यों सौंपेगा....? और खूँखार जनजाति के पास कौन सा धन मिलने वाला था उसे.....?
अब देखिए कि सच्चाई क्या है....
जब सिकन्दर ने सिन्धु नदी पार किया तो भारत में उत्तरी क्षेत्र में तीन राज्य थे-झेलम नदी के चारों ओर राजा अम्भि का शासन था जिसकी राजधानी तक्षशिला थी..पौरस का राज्य चेनाब नदी से लगे हुए क्षेत्रों पर था.तीसरा राज्य अभिसार था जो कश्मीरी क्षेत्र में था.अम्भि का पौरस से पुराना बैर था इसलिए सिकन्दर के आगमण से अम्भि खुश हो गया और अपनी शत्रुता निकालने का उपयुक्त अवसर समझा..अभिसार के लोग तटस्थ रह गए..इस तरह पौरस ने अकेले ही सिकन्दर तथा अम्भि की मिली-जुली सेना का सामना किया.."प्लूटार्च" के अनुसार सिकन्दर की बीस हजार पैदल सैनिक तथा पन्द्रह हजार अश्व सैनिक पौरस की युद्ध क्षेत्र में एकत्र की गई सेना से बहुत ही अधिक थी..सिकन्दर की सहायता फारसी सैनिकों ने भी की थी..कहा जाता है कि इस युद्ध के शुरु होते ही पौरस ने महाविनाश का आदेश दे दिया उसके बाद पौरस के सैनिकों ने तथा हाथियों ने जो विनाश मचाना शुरु किया कि सिकन्दर तथा उसके सैनिकों के सर पर चढ़े विश्वविजेता के भूत को उतार कर रख दिया..पोरस के हाथियों द्वारा यूनानी सैनिकों में उत्पन्न आतंक का वर्णन कर्टियस ने इस तरह से किया है--इनकी तुर्यवादक ध्वनि से होने वाली भीषण चीत्कार न केवल घोड़ों को भयातुर कर देती थी जिससे वे बिगड़कर भाग उठते थे अपितु घुड़सवारों के हृदय भी दहला देती थी..इन पशुओं ने ऐसी भगदड़ मचायी कि अनेक विजयों के ये शिरोमणि अब ऐसे स्थानों की खोज में लग गए जहाँ इनको शरण मिल सके.उन पशुओं ने कईयों को अपने पैरों तले रौंद डाला और सबसे हृदयविदारक दृश्य वो होता था जब ये स्थूल-चर्म पशु अपनी सूँड़ से यूनानी सैनिक को पकड़ लेता था,उसको अपने उपर वायु-मण्डल में हिलाता था और उस सैनिक को अपने आरोही के हाथों सौंप देता था जो तुरन्त उसका सर धड़ से अलग कर देता था.इन पशुओं ने घोर आतंक उत्पन्न कर दिया था.....
इसी तरह का वर्णन "डियोडरस" ने भी किया है --विशाल हाथियों में अपार बल था और वे अत्यन्त लाभकारी सिद्ध हुए..उन्होंने अपने पैरों तले बहुत सारे सैनिकों की हड्डियाँ-पसलियाँ चूर-चूर कर दी.हाथी इन सैनिकों को अपनी सूँड़ों से पकड़ लेते थे और जमीन पर जोर से पटक देते थे..अपने विकराल गज-दन्तों से सैनिकों को गोद-गोद कर मार डालते थे...
इन पशुओं का आतंक उस फिल्म में भी दिखाया गया है..
अब विचार करिए कि डियोडरस का ये कहना कि उन हाथियों में अपार बल था और वे अत्यन्त लाभकारी सिद्ध हुए ये क्या सिद्ध करता है..फिर "कर्टियस" का ये कहना कि इन पशुओं ने आतंक मचा दिया था ये क्या सिद्ध करता है...?
अफसोस की ही बात है कि इस तरह के वर्णन होते हुए भी लोग यह दावा करते हैं कि पौरस को पकड़ लिया गया और उसके सेना को शस्त्र त्याग करने पड़े...
एक और विद्वान ई.ए. डब्ल्यू. बैज का वर्णन देखिए-उनके अनुसार झेलम के युद्ध में सिकन्दर की अश्व-सेना का अधिकांश भाग मारा गया था.सिकन्दर ने अनुभव कर लिया कि यदि अब लड़ाई जारी रखूँगा तो पूर्ण रुप से अपना नाश कर लूँगा.अतः सिकन्दर ने पोरस से शांति की प्रार्थना की -"श्रीमान पोरस मैंने आपकी वीरता और सामर्थ्य स्वीकार कर ली है..मैं नहीं चाहता कि मेरे सारे सैनिक अकाल ही काल के गाल में समा जाय.मैं इनका अपराधी हूँ,....और भारतीय परम्परा के अनुसार ही पोरस ने शरणागत शत्रु का वध नहीं किया.----ये बातें किसी भारतीय द्वारा नहीं बल्कि एक विदेशी द्वारा कही गई है..
और इसके बाद भी अगर कोई ना माने तो फिर हम कैसे मानें कि पोरस के सिर को डेरियस के सिर की ही भांति काट लाने का शपथ लेकर युद्ध में उतरे सिकन्दर ने न केवल पोरस को जीवन-दान दिया बल्कि अपना राज्य भी दिया...
सिकन्दर अपना राज्य उसे क्या देगा वो तो पोरस को भारत के जीते हुए प्रदेश उसे लौटाने के लिए विवश था जो छोटे-मोटे प्रदेश उसने पोरस से युद्ध से पहले जीते थे...(या पता नहीं जीते भी थे या ये भी यूनानियों द्वारा गढ़ी कहानियाँ हैं)
इसके बाद सिकन्दर को पोरस ने उत्तर मार्ग से जाने की अनुमति नहीं दी.विवश होकर सिकन्दर को उस खूँखार जन-जाति के कबीले वाले रास्ते से जाना पड़ा जिससे होकर जाते-जाते सिकन्दर इतना घायल हो गया कि अंत में उसे प्राण ही त्यागने पड़े..इस विषय पर "प्लूटार्च" ने लिखा है कि मलावी नामक भारतीय जनजाति बहुत खूँखार थी..इनके हाथों सिकन्दर के टुकड़े-टुकड़े होने वाले थे लेकिन तब तक प्यूसेस्तस और लिम्नेयस आगे आ गए.इसमें से एक तो मार ही डाला गया और दूसरा गम्भीर रुप से घायल हो गया...तब तक सिकन्दर के अंगरक्षक उसे सुरक्षित स्थान पर लेते गए..
स्पष्ट है कि पोरस के साथ युद्ध में तो इनलोगों का मनोबल टूट ही चुका था रहा सहा कसर इन जनजातियों ने पूरी कर दी थी..अब इनलोगों के अंदर ये तो मनोबल नहीं ही बचा था कि किसी से युद्ध करे पर इतना भी मनोबल शेष ना रह गया था कि ये समुद्र मार्ग से लौटें...क्योंकि स्थल मार्ग के खतरे को देखते हुए सिकन्दर ने समुद्र मार्ग से जाने का सोचा और उसके अनुसंधान कार्य के लिए एक सैनिक टुकड़ी भेज भी दी पर उनलोगों में इतना भी उत्साह शेष ना रह गया था फलतः वे बलुचिस्तान के रास्ते ही वापस लौटे....
अब उसके महानता के बारे में भी कुछ विद्वानों के वर्णन देखिए...
एरियन के अनुसार जब बैक्ट्रिया के बसूस को बंदी बनाकर सिकन्दर के सम्मुख लाया गया तब सिकन्दर ने अपने सेवकों से उसको कोड़े लगवाए तथा उसके नाक और कान काट कटवा दिए गए.बाद में बसूस को मरवा ही दिया गया.सिकन्दर ने कई फारसी सेनाध्यक्षों को नृशंसतापूर्वक मरवा दिया था.फारसी राजचिह्नों को धारण करने पर सिकन्दर की आलोचना करने के लिए उसने अपने ही गुरु अरस्तु के भतीजे कालस्थनीज को मरवा डालने में कोई संकोच नहीं किया.क्रोधावस्था में अपने ही मित्र क्लाइटस को मार डाला.उसके पिता का विश्वासपात्र सहायक परमेनियन भी सिकन्दर के द्वारा मारा गया था..जहाँ पर भी सिकन्दर की सेना गई उसने समस्त नगरों को आग लगा दी,महिलाओं का अपहरण किया और बच्चों को भी तलवार की धार पर सूत दिया..ईरान की दो शाहजादियों को सिकन्दर ने अपने ही घर में डाल रखा था.उसके सेनापति जहाँ-कहीं भी गए अनेक महिलाओं को बल-पूर्वक रखैल बनाकर रख लिए...
तो ये थी सिकन्दर की महानता....इसके अलावे इसके पिता फिलिप की हत्या का भी शक इतिहास ने इसी पर किया है कि इसने अपनी माता के साथ मिलकर फिलिप की हत्या करवाई क्योंकि फिलिप ने दूसरी शादी कर ली थी और सिकन्दर के सिंहासन पर बैठने का अवसर खत्म होता दिख रहा था..इस बात में किसी को संशय नहीं कि सिकन्दर की माता फिलिप से नफरत करती थी..दोनों के बीच सम्बन्ध इतने कटु थे कि दोनों अलग होकर जीवन बीता रहे थे...इसके बाद इसने अपने सौतेले भाई को भी मार डाला ताकि सिंहासन का और कोई उत्तराधिकारी ना रहे...
तो ये थी सिकन्दर की महानता और वीरता....
इसकी महानता का एक और उदाहरण देखिए-जब इसने पोरस के राज्य पर आक्रमण किया तो पोरस ने सिकन्दर को अकेले-अकेले यनि द्वंद्व युद्ध का निमंत्रण भेजा ताकि अनावश्यक नरसंहार ना हो और द्वंद्व युद्ध के जरिए ही निर्णय हो जाय पर इस वीरतापूर्ण निमंत्रण को सिकन्दर ने स्वीकार नहीं किया...ये किमवदन्ती बनकर अब तक भारत में विद्यमान है.इसके लिए मैं प्रमाण देने की आवश्यकता नहीं समझता हूँ..
अब निर्णय करिए कि पोरस तथा सिकन्दर में विश्व-विजेता कौन था..? दोनों में वीर कौन था..?दोनों में महान कौन था..?
यूनान वाले सिकन्दर की जितनी भी विजय गाथा दुनिया को सुना ले सच्चाई यही है कि ना तो सिकन्दर विश्वविजेता था ना ही वीर(पोरस के सामने) ना ही महान(ये तो कभी वो था ही नहीं)....
जिस पोरस ने सिकन्दर जो लगभग पूरा विश्व को जीतता हुआ आ रहा था जिसके पास उतनी बड़ी विशाल सेना थी जिसका प्रत्यक्ष सहयोग अम्भि ने किया था उस सिकन्दर के अभिमान को अकेले ही चकना-चूरित कर दिया,उसके मद को झाड़कर उसके सर से विश्व-विजेता बनने का भूत उतार दिया उस पोरस को क्या इतिहास ने उचित स्थान दिया है......!...?
भारतीय इतिहासकारों ने तो पोरस को इतिहास में स्थान देने योग्य समझा ही नहीं है.इतिहास में एक-दो जगह इसका नाम आ भी गया तो बस सिकन्दर के सामने बंदी बनाए गए एक निर्बल निरीह राजा के रुप में..नेट पर भी पोरस के बारे में पर्याप्त जानकारी उपलब्ध नहीं है.....
आज आवश्यकता है कि नेताओं को धन जमा करने से अगर अवकाश मिल जाय तो वे इतिहास को फिर से जाँचने-परखने का कार्य करवाएँ ताकि सच्चाई सामने आ सके और भारतीय वीरों को उसका उचित सम्मान मिल सके..मैं नहीं मानता कि जो राष्ट्र वीरों का इस तरह अपमान करेगा वो राष्ट्र ज्यादा दिन तक टिक पाएगा...मानते हैं कि ये सब घटनाएँ बहुत पुरानी हैं इसके बाद भारत पर हुए अनेक हमले के कारण भारत का अपना इतिहास तो विलुप्त हो गया और उसके बाद मुसलमान शासकों ने अपनी झूठी-प्रशंसा सुनकर आनन्द प्राप्त करने में पूरी इतिहास लिखवाकर खत्म कर दी और जब देश आजाद हुआ भी तो कांग्रेसियों ने इतिहास लेखन का काम धूर्त्त अंग्रेजों को सौंप दिया ताकि वो भारतीयों को गुलम बनाए रखने का काम जारी रखे और अंग्रेजों ने इतिहास के नाम पर काल्पनिक कहानियों का पुलिंदा बाँध दिया ताकि भारतीय हमेशा यही समझते रहें कि उनके पूर्वज निरीह थे तथा विदेशी बहुत ही शक्तिशाली ताकि भारतीय हमेशा मानसिक गुलाम बने रहें विदेशियों का,पर अब तो कुछ करना होगा ना..???
इस लेख से एक और बात सिद्ध होती है कि जब भारत का एक छोटा सा राज्य अगर अकेले ही सिकन्दर को धूल चटा सकता है तो अगर भारत मिलकर रहता और आपस में ना लड़ता रहता तो किसी मुगलों या अंग्रेजों में इतनी शक्ति नहीं थी कि वो भारत का बाल भी बाँका कर पाता.कम से कम अगर भारतीय दुश्मनों का साथ ना देते तो भी उनमें इतनी शक्ति नहीं थी कि वो भारत पर शासन कर पाते.भारत पर विदेशियों ने शासन किया है तो सिर्फ यहाँ की आपसी दुश्मनी के कारण..
भारत में अनेक वीर पैदा हो गए थे एक ही साथ और यही भारत की बर्बादी का कारण बन गया क्योंकि सब शेर आपस में ही लड़ने लगे...महाभारत काल में इतने सारे महारथी,महावीर पैदा हो गए थे तो महाभारत का विध्वंशक युद्ध हुआ और आपस में ही लड़ मरने के कारण भारत तथा भारतीय संस्कृति का विनाश हो गया उसके बाद कलयुग में भी वही हुआ..जब भी किसी जगह वीरों की संख्या ज्यादा हो जाएगी तो उस जगह की रचना होने के बजाय विध्वंश हो जाएगा...
पर आज जरुरत है भारतीय शेरों को एक होने की...........क्योंकि अभी भारत में शेरों की बहुत ही कमी है और जरुरत है भारत की पुनर्रचना करने की......

विश्वप्रसिद्ध नालंदा विश्वविद्यालय को क्यों जलाया गया था ?


लेकिन... जानने से पहले..... हम एक झलक नालंदा विश्वविधालय के अतीत और उसके गौरवशाली इतिहास पर डाल लेते हैं....... फिर, बात को समझने में आसानी होगी....!

यह प्राचीन भारत में उच्च् शिक्षा का सर्वाधिक महत्वपूर्ण और विश्व विख्यात केन्द्र था...।
महायान बौद्ध धर्म के इस शिक्षा-केन्द्र में हीनयान बौद्ध-धर्म के साथ ही अन्य धर्मों के तथा अनेक देशों के छात्र पढ़ते थे।
यह... वर्तमान बिहार राज्य में पटना से 88.5 किलोमीटर दक्षिण--पूर्व और राजगीर से 11.5 किलोमीटर उत्तर में एक गाँव के पास अलेक्जेंडर कनिंघम द्वारा खोजे गए इस महान बौद्ध विश्वविद्यालय के भग्नावशेष इसके प्राचीन वैभव का बहुत कुछ अंदाज़ करा देते हैं।
अनेक पुराभिलेखों और सातवीं सदी में भारत भ्रमण के लिए आये चीनी यात्री ह्वेनसांग तथा इत्सिंग के यात्रा विवरणों से इस विश्वविद्यालय के बारे में विस्तृत जानकारी प्राप्त होती है।
प्रसिद्ध चीनी यात्री ह्वेनसांग ने 7वीं शताब्दी में यहाँ जीवन का महत्त्वपूर्ण एक वर्ष एक विद्यार्थी और एक शिक्षक के रूप में व्यतीत किया था.. तथा, प्रसिद्ध 'बौद्ध सारिपुत्र' का जन्म यहीं पर हुआ था।
इस महान विश्वविद्यालय की स्थापना व संरक्षण इस विश्वविद्यालय की स्थापना का श्रेय गुप्त शासक कुमारगुप्त प्रथम ४५०-४७० को प्राप्त है..... और, इस विश्वविद्यालय को कुमार गुप्त के उत्तराधिकारियों का पूरा सहयोग
मिला।
यहाँ तक कि... गुप्तवंश के पतन के बाद भी आने वाले सभी शासक वंशों ने इसकी समृद्धि में अपना योगदान जारी रखा... और, इसे महान सम्राट हर्षवर्द्धन और पाल शासकों का भी संरक्षण मिला... तथा , स्थानीय शासकों तथा भारत के विभिन्न क्षेत्रों के साथ ही इसे अनेक विदेशी शासकों से भी अनुदान मिला।
आपको यह जानकार ख़ुशी होगी कि... यह विश्व का प्रथम पूर्णतः आवासीय विश्वविद्यालय था.... और, विकसित स्थिति में इसमें विद्यार्थियों की संख्या करीब 10 ,000 एवं अध्यापकों की संख्या 2 ,000 थी....।
इस विश्वविद्यालय में भारत के विभिन्न क्षेत्रों से ही नहीं बल्कि कोरिया, जापान, चीन, तिब्बत, इंडोनेशिया, फारस तथा तुर्की से भी विद्यार्थी शिक्षा ग्रहण करने आते थे.... और, नालंदा के विशिष्ट शिक्षाप्राप्त स्नातक बाहर जाकर बौद्ध धर्म का प्रचार करते थे।
इस विश्वविद्यालय की नौवीं शती से बारहवीं सदी तक अंतरर्राष्ट्रीय ख्याति रही थी।
उसी समय बख्तियार खिलजी नामक एक सनकी और चिड़चिड़े स्वभाव वाला तुर्क मुस्लिम लूटेरा था ....!.
उसी मूर्ख मुस्लिम ने इसने 1199 इस्वी में इसे जला कर पूर्णतः नष्ट कर दिया।
हुआ कुछ यूँ था कि..... उसने उत्तर भारत में बौद्धों द्वारा शासित कुछ क्षेत्रों पर कब्ज़ा कर लिया था.
और..... एक बार वह बहुत बीमार पड़ा... जिसमे उसके मुस्लिम हकीमों ने उसको बचाने की पूरी कोशिश कर ली ... मगर वह ठीक नहीं हो सका...! और, मरणासन्न स्थिति में पहुँच गया....!
तभी उसे किसी ने उसको सलाह दी... नालंदा विश्वविद्यालय के आयुर्वेद विभाग के प्रमुख आचार्य राहुल श्रीभद्र जी को बुलाया जाय और उनसे भारतीय विधियों से इलाज कराया जाय....!
हालाँकि.... उसे यह सलाह पसंद नहीं थी कि कोई हिन्दू और भारतीय वैद्य ... उसके हकीमों से उत्तम ज्ञान रखते हो और वह किसी काफ़िर से .उसका इलाज करवाया जाए.... फिर भी उसे अपनी जान बचाने के लिए
उनको बुलाना पड़ा....!
लेकिन..... उस बख्तियार खिलजी ने वैद्यराज के सामने एक अजीब सी शर्त रखी कि.... मैं एक मुस्लिम हूँ ... इसीलिए, मैं तुम काफिरों की दी हुई कोई दवा नहीं खाऊंगा... लेकिन, किसी भी तरह मुझे ठीक करों ...वर्ना ...मरने के लिए तैयार रहो....!
यह सुनकर.... बेचारे वैद्यराज को रातभर नींद नहीं आई...!
उन्होंने बहुत सा उपाय सोचा ..... और, सोचने के बाद...... वे वैद्यराज अगले दिन उस सनकी के पास कुरान लेकर चले गए...... और, उस बख्तियार खिलजी से कहा कि ...इस कुरान की पृष्ठ संख्या ... इतने से इतने तक पढ़ लीजिये... ठीक हो जायेंगे...!
बख्तियार खिलजी ने.... वैसे ही कुरान को पढ़ा ....और ठीक हो गया ..... तथा, उसकी जान बच गयी.....!
इस से .... उस पागल को...... कोई ख़ुशी नहीं..... बल्कि बहुत झुंझलाहट हुई .... और, उसे बहुत गुस्सा आया कि..... उसके मुसलमानी हकीमों से इन भारतीय वैद्यों का ज्ञान श्रेष्ठ क्यों है...??????
और..... उस एहसानफरामोश .... बख्तियार खिलजी ने ....... बौद्ध धर्म और आयुर्वेद का एहसान मानने के बदले ...उनको पुरस्कार देना तो दूर ... उसने नालंदा विश्वविद्यालय में ही आग लगवा दिया ....... और. पुस्तकालयों को ही जला के राख कर दिया..... ताकि.... फिर कभी कोई ज्ञान ही ना प्राप्त कर सके.....!
कहा जाता है कि...... वहां इतनी पुस्तकें थीं कि ...आग लगने के बाद भी .... तीन माह तक पुस्तकें धू धू करके जलती रहीं..!
सिर्फ इतना ही नहीं...... उसने अनेक धर्माचार्य और बौद्ध भिक्षुओं को भी मार डाले.
-------अब आप भी जान लें कि..... वो एहसानफरामोश मुस्लिम (हालाँकि, सभी मुस्लिम एहसानफरामोश ही होते हैं) ..... बख्तियार खिलजी ...... कुरान पढ़ के ठीक कैसे हो गया था.....
हुआ दरअसल ये था कि...... जहाँ...हम हिन्दू किसी भी धर्म ग्रन्थ को जमीन पर रख के नहीं पढ़ते... ना ही कभी, थूक लगा के उसके पृष्ठ नहीं पलटते हैं....!
जबकि.... मुस्लिम ठीक उलटा करते हैं..... और, वे कुरान के हर पेज को थूक लगा लगा के ही पलटते हैं...!
बस... वैद्यराज राहुल श्रीभद्र जी ने कुरान के कुछ पृष्ठों के कोने पर एक दवा का अदृश्य लेप लगा दिया था...
इस तरह..... वह थूक के साथ मात्र दस बीस पेज के दवा को चाट गया... और, ठीक हो गया ...!
परन्तु..... उसने इस एहसान का बदला ..... अपने मुस्लिम संस्कारों को प्रदर्शित करते हुए...... नालंदा को नेस्तनाबूत करके दिया...!
हद तो ये है कि...... आज भी हमारी बेशर्म और निर्ल्लज सरकारें...उस पागल और एहसानफरामोश बख्तियार खिलजी के नाम पर रेलवे स्टेशन बनाये पड़ी हैं... !
शर्मिन्दिगी नाम की चीज ही नहीं बची है.... इन तुष्टिकरण में आकंठ डूबी हमारी तथाकथित सेकुलर सरकारों में ...!
जय महाकाल...!!!
नोट: लेख इतिहास पर आधारित है... फिर भी अगर किसी सज्जन या दुर्जन को लेख से शिकायत है तो.... पूरे प्रमाणों के साथ लेख पर चर्चा कर सकता है...!
कृपया ... फालतू में लेख को गालियाँ देकर.... अपने पारिवारिक संस्कारों का प्रदर्शन ना करें...!

हिंदुओं को ईसाई बनाने के लिए हो रहे हैं कैसे-कैसे कारनामे !


साभार-http://www.hindujagruti.org/hindi/news/3579.html
इलाहाबाद- बीते पांच दिनो में पीटर यंगरीन का 'मित्रता महोत्सव' 'ओझाई महोत्सव' ज्यादा नज़र आया। पहले से यंगरीन से खफ़ा भाजपा व विहिप कार्यकर्ताओं ने उनका जमकर विरोध किया। दूसरी तरफ उनके इस महोत्सव में कई महिलाएं ने ड्रामा शुरू कर दिया।
ठीक वैसे ही जैसे किसी ओझा के यहां भूत-प्रेत उतारने के दौरान महिलाएं करती हैं। कभी वह जमीन पर लेटकर बाल झटकती हैं तो कभी कुछ और स्वांग करती हैं।
ऐसा ही नज़ारा अमेरिका से इंडिया आए पीटर यंगरीन के मित्रता महोत्सव में देखने को मिला। यंगरीन ने सारी प्रक्रिया पूरी कर कहा कि उनके बीच के लूले-लंगड़े, अंधे, गूंगे बहरे जो अब देख सकते हैं मंच के पास आ जाएं।
हालांकि इस दौरान कुछ लोग सर पर बैसाखी रखकर आगे आते दिखे। कुछ ने दावा किया कि उनकी आंख की रोशनी वापस आ गई है। लेकिन इस दौरान करीब आधा दर्जन महिलाएं आवेशित हो उठी।
वह भीड़ को चीर कर आगे आकर बालों को झटकती, ज़मीन पर लोटती मंच की और जाने लगी। इनमें से एक महिला में लोगों को दांत काटना भी शुरू कर दिया। बमुश्किल लोग उसे काबू कर पाए लेकिन उसने कई लोगों के अस्पताल पहुंचने का इंतज़ाम कर दिया था।
ऐसे आम दृश्य ओझाओं की ओझाई के दौरान देखने को मिलते हैं। लेकिन किसी ने यह नहीं सोचा था कि अमेरिका के पीटर यंगरीन का यह महोत्सव, ओझाई महोत्सव बनकर रह जाएगा। 

मो.क.गाँधी एक वीर इंग्लिश सैनिक!


बोअर युद्ध १८९९ दक्षिण अफ्रिका
क्या आप इस सैनिक को जानते है! क्या? आपने नही पहचाना?
अरे ये तो वो है जिनका जन्म दिवस आप आज मना रहे है! आप जानते है इनकी महानता इन्होने भारत वासीयो के मनमे अंग्रेजो के प्रती अहिंसा की भावना निर्माण की! क्या आप जानते है इनको?
ये बड़े महान अहिसवादी थे! इन्होने जिस बोअर युद्ध में (१८९९) एक अहिंसक (?) सैनिक का कार्य किया था वो अद्वितीय है! अंग्रेज और दक्षिण अफ्रिका के बोअर गण राज्यों में जो भयानक युद्ध १८९९ में हुआ वह कुविख्यत है अंग्रेजो के अत्याचारों के लिए! इस युद्ध में अंग्रजो की सारे विश्व भर में निर्भात्सना हुई, क्यों की अंग्रेजी सैनिको ने युद्ध में अगणित अफ़्रीकी प्रजाजनों को मृत्यु के घाट उतार दिया, उनकी स्त्रियों के साथ बलात्कार करके उन्ही क़त्ल कर दिया! अंग्रेजो की इस बदनाम सेना में ये अहिंसावादी क्या कर रहे थे? अब ये अहिंसात्मक लढाई थी? सब कुछ क्या बताना पड़ेगा? समझदार के लिए एक संकेत ही बहुत है!
और एक महत्वपूर्ण बात सुनिए! ये चित्र भारत सरकार द्वारा संचालित सैनिक समाचार नामक पत्रिका में प्रसारित हुए है! जब इस चित्रों को देख के बवाल खड़ा हुआ तो लोगों को मुर्ख बनाने के लिए एक कुतर्क दिया गया! ये महात्मा युद्ध में अहिंसक सैनिक थे! जो युद्ध फसे घायल अंग्रेजी सैनिको को युद्ध भूमि से बाहर निकलते थे! आप सोचिए सैनिक फिर वो कोई भी कार्य करता हो चाहे धोबी का या रसोइये का कभी अहिंसक होता है?
ये महान आत्मा महात्माजी गांधीजी, केवल अंग्रेजो के अब्युलंस कोर्प नामक टुकड़ी के लिए सेवा नहीं दे रहे थे! किन्तु इन्होने युद्ध में अंग्रजो की सहायता करने के लिए एक स्वतंत्र सेना स्वयसेवको की टुकड़ी खड़ी की थी! युद्ध काल में इस निस्पृह सेवा से प्रसन्न हो कर अंग्रेज सरकार ने महान आत्मा महात्माजी गाँधीजी को कैसर-ए-हिंद का पुरस्कार दिया था! क्या आप जानते है ये क्या पुरस्कार है! ये पुरस्कार उस समय का अंग्रेजो का सर्वोच्च पुरस्कार था मानो परमवीर चक्र!!!!!
फिर आप कहोगे की गांधीजीने अंग्रजो के विरोध में अपना पहला आन्दोलन तो दक्षिण अफ्रिका में किये था, फिर ये अंग्रेजो की सेना में क्या कर रहे है! तो वो ये बात है की १९४७ के उपरांत किस की सत्ता भारत में आई? और एसी पक्षपाती सत्ता के चलते ये सब लोगों के सामने आ सकता है क्या? पर वो बेचारे ये क्या जानते थे के आगे चल कर इंटरनेट का अविष्कार होगा और फेस बुक चलेगी!
हमें बताया ये गया के अंग्रेजो ने हमरे भगवान स्वरूप महात्माजी का अपमान किया, उनके पास १ श्रेणी के रेल डिब्बे की टिकिट होने के उपरांत उन्हें अपमान पूर्वक उतारा गया! महात्माजी के भीतर इस अपमान से स्वाभिमान जागा और उन्होंने अहिंसा और असहकार की लड़ाई अंग्रजो के विरुद्ध छेद दी! एक मिनिट रुकिय क्या आप जानते है जिस समय ये घटना घटी ऐसा हमे बताया जाता है, उस समय दक्षिण अफ्रिका में अंग्रजी शासन था और वहा की रेलवे में केवल गोरो को प्रवेश था जिसका अरक्ष्ण लन्दन से किया जाता था! जब प्रथम श्रेणी गोरो के लिए आरक्षित होती थी तो हमारे महात्माजी के पास उसकी टिकिट आयी कैसे? ये मूल भुत प्रश्न उठता है!
कुछ इतिहासकारो का कहना है की ये घटना काल्पनिक है और भारत में क्रांति की अग्नि को दबाने के लिए अंग्रेज सुरक्षा छिद्र (सेफ्टी वाल्व) का निर्माण करना चाहते थे! ये घटना उसी की कड़ी है! ६५ बरसो तक हम ठगे गए अब समय है इसे शेअर करके जागने का!
सन्दर्भ:
http://en.wikipedia.org/wiki/File:Gandhi_Boer_War_1899.jpg
http://en.wikipedia.org/wiki/Second_Boer_War
http://en.wikipedia.org/wiki/Gandhi_Under_Cross_Examination
http://en.wikipedia.org/wiki/Gandhi_Behind_the_Mask_of_Divinity

वृक्ष आयुर्वेद से मिला ज्ञान


वैदिक काल से ही भारत वर्ष में प्रकृति के निरीक्षण, परीक्षण एवं विश्लेषण की प्रवृत्ति रही है। इसी प्रक्रिया में वनस्पति जगत का भी विश्लेषण किया गया। प्राचीन वांगमय में इसके अनेक संदर्भ ज्ञात होते हैं। अथर्ववेद में पौधों को आकृति तथा अन्य लक्षणों के आधार पर सात उपविभागों में बांटा गया, यथा- (१) वृक्ष (२) तृण (३) औषधि (४) गुल्म (५) लता (६) अवतान (७) वनस्पति।

आगे चलकर महाभारत, विष्णु पुराण, मत्स्य पुराण, शुक्रनीति, वृहत् संहिता, पाराशर, चरक, सुश्रुत, उदयन आदि द्वारा वनस्पति, उसकी उत्पत्ति, उसके अंग, क्रिया, उनके विभिन्न प्रकार, उपयोग आदि का विस्तार से वर्णन किया गया, जिसके कुछ उदाहरण हम निम्न संदर्भों में देख सकते हैं।

पौधों में जीवन
पौधे जड़ नहीं होते अपितु उनमें जीवन होता है। वे चेतन जीव की तरह सर्दी-गर्मी के प्रति संवेदनशील रहते हैं, उन्हें भी हर्ष और शोक होता है। वे मूल से पानी पीते हैं, उन्हें भी रोग होता है इत्यादि तथ्य हजारों वर्षों से हमारे यहां ज्ञात थे तथा अनेक ग्रंथों में इसका उल्लेख मिलता है।

महाभारत के शांतिपर्व के १८४वें अध्याय में महर्षि भारद्वाज व भृगु का संवाद है। उसमें महर्षि भारद्वाज पूछते हैं कि वृक्ष चूंकि न देखते हैं, न सुनते हैं, न गन्ध व रस का अनुभव करते हैं, न ही उन्हें स्पर्श का ज्ञान होता है, फिर वे पंच भौतिक व चेतन कैसे हैं? इसका उत्तर देते हुए महर्षि भृगु कहते हैं- हे मुने, यद्यपि वृक्ष ठोस जान पड़ते हैं तो भी उनमें आकाश है, इसमें संशय नहीं है, इसी से इनमें नित्य प्रति फल-फूल आदि की उत्पत्ति संभव है।

वृक्षों में जो ऊष्मा या गर्मी है, उसी से उनके पत्ते, छाल, फल, फूल कुम्हलाते हैं, मुरझाकर झड़ जाते हैं। इससे उनमें स्पर्श ज्ञान का होना भी सिद्ध है।

यह भी देखा जाता है कि वायु, अग्नि, बिजली की कड़क आदि होने पर वृक्षों के फल-फूल झड़कर गिर जाते हैं। इससे सिद्ध होता है कि वे सुनते भी हैं।

लता वृक्ष को चारों ओर से लपेट लेती है और उसके ऊपरी भाग तक चढ़ जाती है। बिना देखे किसी को अपना मार्ग नहीं मिल सकता। अत: इससे सिद्ध है कि वृक्ष देखते भी हैं।

पवित्र और अपवित्र गन्ध से तथा नाना प्रकार के धूपों की गंध से वृक्ष निरोग होकर फूलने लगते हैं। इससे सिद्ध होता है कि वृक्ष सूंघते हैं।

वृक्ष अपनी जड़ से जल पीते हैं और कोई रोग होने पर जड़ में औषधि डालकर उनकी चिकित्सा भी की जाती है। इससे सिद्ध होता है कि वृक्ष में रसनेन्द्रिय भी हैं।

जैसे मनुष्य कमल की नाल मुंह में लगाकर उसके द्वारा ऊपर को जल खींचता है, उसी प्रकार वायु की सहायता से वृक्ष जड़ों द्वारा ऊपर की ओर पानी खींचते हैं।

सुखदु:खयोश्च ग्रहणाच्छिन्नस्य च विरोहणात्।
जीवं पश्यामि वृक्षाणां चैतन्यं न विद्यते॥

वृक्ष कट जाने पर उनमें नया अंकुर उत्पन्न हो जाता है और वे सुख, दु:ख को ग्रहण करते हैं। इससे मैं देखता हूं कि कि वृक्षों में भी जीवन है। वे अचेतन नहीं हैं।

वृक्ष अपनी जड़ से जो जल खींचता है, उसे उसके अंदर रहने वाली वायु और अग्नि पचाती है। आहार का परिपाक होने से वृक्ष में स्निग्धता आती है और वे बढ़ते हैं।

इसके अतिरिक्त महर्षि चरक तथा उदयन आचार्य ने भी वृक्षों में चेतना तथा चेतन होने वाली अनुभूतियों के संदर्भ में वर्णन किया है।

महर्षि चरक कहते हैं- ‘तच्येतनावद् चेतनञ्च‘
अर्थात्-प्राणियों की भांति उनमें (वृक्षों में) भी चेतना होती है।
आगे कहते हैं ‘अत्र सेंद्रियत्वेन वृक्षादीनामपि चेतनत्वम् बोद्धव्यम्‘

अर्थात्-वृक्षों की भी इन्द्रिय है, अत: इनमें चेतना है। इसको जानना चाहिए। उसी प्रकार उदयन कहते हैं-

‘वृक्षादय: प्रतिनियतभोक्त्रयधिष्ठिता: जीवनमरणस्वप्नजागरणरोगभेषज
प्रयोगबीजजातीयानुबन्धनुकूलोपगम प्रतिकूलापगमादिभ्य: प्रसिद्ध शरीरवत्।‘
(उदयन-पृथ्वीनिरुपणम्।)

अर्थात्-वृक्षों की भी मानव शरीर के समान निम्न अनुभव निश्चित होते हैं- जीवन, मरण, स्वप्न, जागरण, रोग, औषधि प्रयोग, बीज, सजातीय अनुबन्ध, अनुकूल वस्तु स्वीकार व प्रतिकूल वस्तु का अस्वीकार।

एक अद्भुत ग्रंथ-पाराशर वृक्ष आयुर्वेद
बंगाल के प्रसिद्ध वनस्पति शास्त्री डा. गिरिजा प्रसन्न मजूमदार ने ‘हिस्ट्री ऑफ साइंस इन इंडिया‘ में वनस्पति शास्त्र से संबंधित अध्याय में महामुनि पाराशर द्वारा रचित ग्रंथ ‘वृक्ष आयुर्वेद‘ का वर्णन किया है। बंगाल के एन.एन. सरकार के पिता, जो आयुर्वेद के प्रसिद्ध विद्वान थे, ने इसकी पांडुलिपि खोजी थी। मजूमदार महोदय ने जब इस प्राचीन ग्रंथ को पढ़ा तो वे आश्चर्यचकित हो गए, क्योंकि उसमें बीज से वृक्ष बनने तक का इतना वैज्ञानिक विश्लेषण

शम्बूक वध का सत्य

मर्यादापुरुषोतम श्री रामचंद्र जी महाराज के जीवन को सदियों से आदर्श और पवित्र माना जाता हैं। कुछ विधर्मी और नास्तिकों द्वारा श्री रामचन्द्र जी महाराज पर शम्बूक नामक एक शुद्र का हत्यारा होने का आक्षेप लगाया जाता हैं।
सत्य वही हैं जो तर्क शास्त्र की कसौटी पर खरा उतरे। हम यहाँ तर्कों से शम्बूक वध की कथा की परीक्षा करके यह निर्धारित करेगे की सत्य क्या हैं।
सर्वप्रथम शम्बूक कथा का वर्णन वाल्मीकि रामायण में उत्तर कांड के 73-76 सर्ग में मिलता हैं।
शम्बूक वध की कथा इस प्रकार हैं-
एक दिन एक ब्राह्मण का इकलौता बेटा मर गया। उस ब्राह्मण ने लड़के के शव को लाकर राजद्वार पर डाल दिया और विलाप करने लगा। उसका आरोप था की बालक की अकाल मृत्यु का कारण राज का कोई दुष्कृत्य हैं। ऋषि- मुनियों की परिषद् ने इस पर विचार करके निर्णय दिया की राज्य में कहीं कोई अनधिकारी तप कर रहा हैं। रामचंद्र जी ने इस विषय पर विचार करने के लिए मंत्रियों को बुलाया। नारद जी ने उस सभा में कहा- राजन! द्वापर में भी शुद्र का तप में प्रवत होना महान अधर्म हैं (फिर त्रेता में तो उसके तप में प्रवत होने का प्रश्न ही नहीं उठता?)। निश्चय ही आपके राज्य की सीमा में कोई खोटी बुद्धिवाला शुद्र तपस्या कर रहा हैं। उसी के कारण बालक की मृत्यु हुई हैं। अत: आप अपने राज्य में खोज कीजिये और जहाँ कोई दुष्ट कर्म होता दिखाई दे वहाँ उसे रोकने का यतन कीजिये। यह सुनते ही रामचन्द्र जी पुष्पक विमान पर सवार होकर शुम्बुक की खोज में निकल पड़े और दक्षिण दिशा में शैवल पर्वत के उत्तर भाग में एक सरोवर पर तपस्या करते हुए एक तपस्वी मिल गया जो पेड़ से उल्टा लटक कर तपस्या कर रहा था।
उसे देखकर श्री रघुनाथ जी उग्र तप करते हुए उस तपस्वी के पास जाकर बोले- “उत्तम तप का पालन करते हए तापस! तुम धन्य हो। तपस्या में बड़े- चढ़े , सुदृढ़ पराक्रमी पुरुष! तुम किस जाति में उत्पन्न हुए हो? मैं दशरथ कुमार राम तुम्हारा परिचय जानने के लिए ये बातें पूछ रहा हूँ। तुम्हें किस वस्तु के पाने की इच्छा हैं? तपस्या द्वारा संतुष्ट हुए इष्टदेव से तुम कौन सा वर पाना चाहते हो- स्वर्ग या कोई दूसरी वस्तु? कौन सा ऐसा पदार्थ हैं जिसे पाने के लिए तुम ऐसी कठोर तपस्या कर रहे हो जो दूसरों के लिए दुर्लभ हैं?
तापस! जिस वस्तु के लिए तुम तपस्या में लगे हो, उसे मैं सुनना चाहता हूँ। इसके सिवा यह भी बताओ की तुम ब्राह्मण हो या अजेय क्षत्रिय? तीसरे वर्ण के वैश्य हो या शुद्र हो?”
कलेश रहित कर्म करने वाले भगवान् राम का यह वचन सुनकर नीचे मस्तक करके लटका हुआ वह तपस्वी बोला – हे श्री राम ! मैं झूठ नहीं बोलूँगा। देव लोक को पाने की इच्छा से ही तपस्या में लगा हूँ। मुझे शुद्र जानिए। मेरा नाम शम्बूक हैं।
वह इस प्रकार कह ही रहा था की रामचन्द्र जी ने म्यान से चमचमाती तलवार निकाली और उसका सर काटकर फेंक दिया।
शम्बूक वध की कथा की तर्क से परीक्षा
इस कथा को पढ़कर मन में यह प्रश्न उठता हैं की
क्या किसी भी शुद्र के लिए तपस्या धर्म शास्त्रों में वर्जित हैं?
क्या किसी शुद्र के तपस्या करने से किसी ब्राह्मण के बालक की मृत्यु हो सकती हैं?
क्या श्री रामचन्द्र जी महाराज शूद्रों से भेदभाव करते थे?
इस प्रश्न का उत्तर वेद, रामायण ,महाभारत और उपनिषदों में अत्यंत प्रेरणा दायक रूप से दिया गया हैं।
वेदों में शूद्रों के विषय में कथन
1. तपसे शुद्रम- यजुर्वेद 30/5
अर्थात- बहुत परिश्रमी ,कठिन कार्य करने वाला ,साहसी और परम उद्योगों अर्थात तप को करने वाले आदि पुरुष का नाम शुद्र हैं।
2. नमो निशादेभ्य – यजुर्वेद 16/27
अर्थात- शिल्प-कारीगरी विद्या से युक्त जो परिश्रमी जन (शुद्र/निषाद) हैं उनको नमस्कार अर्थात उनका सत्कार करे।
3. वारिवस्कृतायौषधिनाम पतये नमो- यजुर्वेद 16/19
अर्थात- वारिवस्कृताय अर्थात सेवन करने हारे भृत्य का (नम) सत्कार करो।
4. रुचं शुद्रेषु- यजुर्वेद 18/48
अर्थात- जैसे ईश्वर ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र से एक समान प्रीति करता हैं वैसे ही विद्वान लोग भी ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र से एक समान प्रीति करे।
5. पञ्च जना मम – ऋग्वेद
अर्थात पांचों के मनुष्य (ब्राह्मण , क्षत्रिय, वैश्य, शुद्र एवं अतिशूद्र निषाद) मेरे यज्ञ को प्रीतिपूर्वक सेवें। पृथ्वी पर जितने मनुष्य हैं वे सब ही यज्ञ करें।
इसी प्रकार के अनेक प्रमाण शुद्र के तप करने के, सत्कार करने के, यज्ञ करने के वेदों में मिलते हैं।
वाल्मीकि रामायण से शुद्र के उपासना से महान बनने के प्रमाण
मुनि वाल्मीकि जी कहते हैं की इस रामायण के पढ़ने से ()स्वाध्याय से ) ब्राह्मण बड़ा सुवक्ता ऋषि होगा, क्षत्रिय भूपति होगा, वैश्य अच्छा लाभ प्राप्त करेगा और शुद्र महान होगा। रामायण में चारों वर्णों के समान अधिकार देखते हैं देखते हैं। -सन्दर्भ- प्रथम अध्याय अंतिम श्लोक
इसके अतिरिक्त अयोध्या कांड अध्याय 63 श्लोक 50-51 तथा अध्याय 64 श्लोक 32-33 में रामायण को श्रवण करने का वैश्यों और शूद्रों दोनों के समान अधिकार का वर्णन हैं।
महाभारत से शुद्र के उपासना से महान बनने के प्रमाण
श्री कृष्ण जी कहते हैं -
हे पार्थ ! जो पापयोनि स्त्रिया , वैश्य और शुद्र हैं यह भी मेरी उपासना कर परमगति को प्राप्त होते हैं। गीता 9/32
उपनिषद् से शुद्र के उपासना से महान बनने के प्रमाण
यह शुद्र वर्ण पूषण अर्थात पोषण करने वाला हैं और साक्षात् इस पृथ्वी के समान हैं क्यूंकि जैसे यह पृथ्वी सबका भरण -पोषण करती हैं वैसे शुद्र भी सबका भरण-पोषण करता हैं। सन्दर्भ- बृहदारण्यक उपनिषद् 1/4/13
व्यक्ति गुणों से शुद्र अथवा ब्राह्मण होता हैं नाकि जन्म गृह से।
सत्यकाम जाबाल जब गौतम गोत्री हारिद्रुमत मुनि के पास शिक्षार्थी होकर पहुँचा तो मुनि ने उसका गोत्र पूछा। उन्होंने उत्तर दिया था की युवास्था में मैं अनेक व्यक्तियों की सेवा करती रही। उसी समय तेरा जन्म हुआ, इसलिए मैं नहीं जानती की तेरा गोत्र क्या हैं। मेरा नाम सत्यकाम हैं। इस पर मुनि ने कहा- जो ब्राह्मण न हो वह ऐसी सत्य बात नहीं कर सकता। सन्दर्भ- छान्दोग्य उपनिषद् 3/4
महाभारत में यक्ष -युधिष्ठिर संवाद 313/108-109 में युधिष्ठिर के अनुसार व्यक्ति कूल, स्वाध्याय व ज्ञान से द्विज नहीं बनता अपितु केवल आचरण से बनता हैं।
कर्ण ने सूत पुत्र होने के कारण स्वयंवर में अयोग्य ठह राये जाने पर कहा था- जन्म देना तो ईश्वर अधीन हैं, परन्तु पुरुषार्थ के द्वारा कुछ का कुछ बन जाना मनुष्य के वश में हैं।
आपस्तम्ब धर्म सूत्र 2/5/11/10-11 – जिस प्रकार धर्म आचरण से निकृष्ट वर्ण अपने से उत्तम उत्तम वर्ण को प्राप्त होता हैं जिसके वह योग्य हो। इसी प्रकार अधर्म आचरण से उत्तम वर्ण वाला मनुष्य अपने से नीचे वर्ण को प्राप्त होता हैं।
जो शुद्र कूल में उत्पन्न होके ब्राह्मण के गुण -कर्म- स्वभाव वाला हो वह ब्राह्मण बन जाता हैं उसी प्रकार ब्राह्मण कूल में उत्पन्न होकर भी जिसके गुण-कर्म-स्वाभाव शुद्र के सदृश हों वह शुद्र हो जाता हैं- मनु 10/65
चारों वेदों का विद्वान , किन्तु चरित्रहीन ब्राह्मण शुद्र से निकृष्ट होता हैं, अग्निहोत्र करने वाला जितेन्द्रिय ही ब्राह्मण कहलाता हैं- महाभारत वन पर्व 313/111
ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र सभी तपस्या के द्वारा स्वर्ग प्राप्त करते हैं।महाभारत अनुगीता पर्व 91/37
सत्य,दान, क्षमा, शील अनृशंसता, तप और दया जिसमें हो वह ब्राह्मण हैं और जिसमें यह न हों वह शुद्र होता हैं। वन पर्व 180/21-26
श्री रामचन्द्र जी महाराज का चरित्र
वाल्मीकि रामायण में श्री राम चन्द्र जी महाराज द्वारा वनवास काल में निषाद राज द्वारा लाये गए भोजन को ग्रहण करना (बाल कांड 1/37-40) एवं शबर (कोल/भील) जाति की शबरी से बेर खाना (अरण्यक कांड 74/7) यह सिद्ध करता हैं की शुद्र वर्ण से उस काल में कोई भेद भाव नहीं करता था।
श्री रामचंद्र जी महाराज वन में शबरी से मिलने गए। शबरी के विषय में वाल्मीकि मुनि लिखते हैं की वह शबरी सिद्ध जनों से सम्मानित तपस्वनी थी। अरण्यक 74/10
इससे यह सिद्ध होता हैं की शुद्र को रामायण काल में तपस्या करने पर किसी भी प्रकार की कोई रोक नहीं थी।
नारद मुनि वाल्मीकि रामायण (बाल कांड 1/16) में लिखते हैं राम श्रेष्ठ, सबके साथ समान व्यवहार करने वाले और सदा प्रिय दृष्टी वाले हैं।
अब पाठक गन स्वयं विचार करे की श्री राम जी कैसे तपस्या में लीन किसी शुद्र कूल में उत्पन्न हुए शम्बूक की हत्या कैसे कर सकते हैं?
जब वेद , रामायण, महाभारत, उपनिषद्, गीता आदि सभी धर्म शास्त्र शुद्र को तपस्या करने, विद्या ग्रहण से एवं आचरण से ब्राह्मण बनने, समान व्यवहार करने का सन्देश देते हैं तो यह वेद विरोधी कथन तर्क शास्त्र की कसौटी पर असत्य सिद्ध होता हैं।
नारद मुनि का कथन के द्वापर युग में शुद्र का तप करना वर्जित हैं असत्य कथन मात्र हैं।
श्री राम का पुष्पक विमान लेकर शम्बूक को खोजना एक और असत्य कथन हैं क्यूंकि पुष्पक विमान तो श्री राम जी ने अयोध्या वापिस आते ही उसके असली स्वामी कुबेर को लौटा दिया था-सन्दर्भ- युद्ध कांड 127/62
जिस प्रकार किसी भी कर्म को करने से कर्म करने वाले व्यक्ति को ही उसका फल मिलता हैं उसी किसी भी व्यक्ति के तप करने से उस तप का फल उस तप कप करने वाले dव्यक्ति मात्र को मिलेगा इसलिए यह कथन की शम्बूक के तप से ब्राह्मण पुत्र का देहांत हो गया असत्य कथन मात्र हैं।
सत्य यह हैं की मध्य काल में जब वेद विद्या का लोप होने लगा था, उस काल में ब्राह्मण व्यक्ति अपने गुणों से नहीं अपितु अपने जन्म से समझा जाने लगा था, उस काल में जब शुद्र को नीचा समझा जाने लगा था, उस काल में जब नारी को नरक का द्वार समझा जाने लगा था, उस काल में मनु स्मृति में भी वेद विरोधी और जातिवाद का पोषण करने वाले श्लोकों को मिला दिया गया था,उस काल में वाल्मीकि रामायण में भी अशुद्ध पाठ को मिला दिया गया था जिसका नाम उत्तर कांड हैं।
इस प्रकार के असत्य के प्रचार से न केवल अवैदिक विचाधारा को बढावा मिला अपितु श्री राम को जाति विरोधी कहकर कुछ अज्ञानी लोग अपने स्वार्थ की सिद्धि के लिए हिन्दू जाति की बड़ी संख्या को विधर्मी अथवा नास्तिक बनाने में सफल हुए हैं।
इसलिए सत्य के ग्रहण और असत्य के त्याग में सदा तत्पर रहते हुए हमें श्री रामचंद्र जी महाराज के प्रति जो अन्याय करने का विष वमन किया जाता हैं उसका प्रतिकार करना चाहिए तभी राम राज्य को सार्थक और सिद्ध किया जा सकेगा।

“आर्य” हिन्दू राजाओं का चारित्रिक आदर्श


26_ Maharana Pratap
भारत देश की महान वैदिक सभ्यता में नारी को पूजनीय होने के साथ साथ “माता” के पवित्र उद्बोधन से संबोधित किया गया हैं।

मुस्लिम काल में भी आर्य हिन्दू राजाओं द्वारा प्रत्येक नारी को उसी प्रकार से सम्मान दिया जाता था जैसे कोई भी व्यक्ति अपनी माँ का सम्मान करता हैं।

यह गौरव और मर्यादा उस कोटि के हैं ,जो की संसार के केवल सभ्य और विकसित जातियों में ही मिलते हैं।

महाराणा प्रताप के मुगलों के संघर्ष के समय स्वयं राणा के पुत्र अमर सिंह ने विरोधी अब्दुरहीम खानखाना के परिवार की औरतों को बंदी बना कर राणा के समक्ष पेश किया तो राणा ने क्रोध में आकर अपने बेटे को हुकुम दिया की तुरंत उन माताओं और बहनों को पूरे सम्मान के साथ अब्दुरहीम खानखाना के शिविर में छोड़ कर आये एवं भविष्य में ऐसी गलती दोबारा न करने की प्रतिज्ञा करे।

ध्यान रहे महाराणा ने यह आदर्श उस काल में स्थापित किया था जब मुग़ल अबोध राजपूत राजकुमारियों के डोले के डोले से अपने हरम भरते जाते थे। बड़े बड़े राजपूत घरानों की बेटियाँ मुगलिया हरम के सात पर्दों के भीतर जीवन भर के लिए कैद कर दी जाती थी। महाराणा चाहते तो उनके साथ भी ऐसा ही कर सकते थे पर नहीं उनका स्वाभिमान ऐसी इज़ाज़त कभी नहीं देता था।



औरंगजेब के राज में हिन्दुओं पर अत्याचार अपनी चरम सीमा पर पहुँच गया था। हिन्दू या काफ़िर होना तो पाप ही हो गया था। धर्मान्ध औरंगजेब के अत्याचार से स्वयं उसके बाप और भाई तक न बच सके , साधारण हिन्दू जनता की स्वयं पाठक कल्पना कर सकते हैं। औरंगजेब की स्वयं अपने बेटे अकबर से अनबन हो गयी थी। इसी कारण उसका बेटा आगरे के किले को छोड़कर औरंगजेब के प्रखर विरोधी राजपूतों से जा मिला था जिनका नेतृत्व वीर दुर्गादास राठोड़ कर रहे थे।



कहाँ राजसी ठाठ बाठ में किलो की शीतल छाया में पला बढ़ा अकबर , कहाँ राजस्थान की भस्म करने वाली तपती हुई धुल भरी गर्मियाँ। शीघ्र सफलता न मिलते देख संघर्ष न करने के आदि अकबर एक बार राजपूतों का शिविर छोड़ कर भाग निकला। पीछे से अपने बच्चों अर्थात औरंगजेब के पोता-पोतियों को राजपूतों के शिविर में ही छोड़ गया। जब औरंगजेब को इस बात का पता चला तो उसे अपने पोते पोतियों की चिन्ता हुई क्यूंकि वह जैसा व्यवहार औरों के बच्चों के साथ करता था कहीं वैसा ही व्यवहार उसके बच्चों के साथ न हो जाये। परन्तु वीर दुर्गा दास राठोड़ एवं औरंगजेब में भारी अंतर था। दुर्गादास की रगो में आर्य जाति का लहू बहता था। दुर्गादास ने प्राचीन आर्य मर्यादा का पालन करते हुए ससम्मान औरंगजेब के पोता पोती को वापिस औरंगजेब के पास भेज दिया जिन्हें पाकर औरंगजेब अत्यंत प्रसन्न हुआ। वीर दुर्गादास राठोड़ ने इतिहास में अपना नाम अपने आर्य व्यवहार से स्वर्णिम शब्दों में लिखवा लिया।



वीर शिवाजी महाराज का सम्पूर्ण जीवन आर्य जाति की सेवा,रक्षा, मंदिरों के उद्धार, गौ माता के कल्याण एवं एक हिन्दू राष्ट्र की स्थापना के रूप में गुजरा जिन्हें पढ़कर प्राचीन आर्य राजाओं के महान आदर्शों का पुन: स्मरण हो जाता हैं। जीवन भर उनका संघर्ष कभी बीजापुर से, कभी मुगलों से चलता रहा। किसी भी युद्ध को जितने के बाद शिवाजी के सरदार उन्हें नजराने के रूप में उपहार पेश करते थे। एक बार उनके एक सरदार ने कल्याण के मुस्लिम सूबेदार की अति सुन्दर बीवी शिवाजी के सम्मुख पेश की। उसको देखते ही शिवाजी महाराज अत्यंत क्रोधित हो गए और उस सरदार को तत्काल यह हुक्म दिया की उस महिला को ससम्मान वापिस अपने घर छोड़ आये। अत्यंत विनम्र भाव से शिवाजी उस महिला से बोले ” माता आप कितनी सुन्दर हैं , मैं भी आपका पुत्र होता तो इतना ही सुन्दर होता। अपने सैनिक द्वारा की गई गलती के लिए मैं आपसे माफी मांगता हूँ”। यह कहकर शिवाजी ने तत्काल आदेश दिया की जो भी सैनिक या सरदार जो किसी भी ऊँचे पद पर होगा अगर शत्रु की स्त्री को हाथ लगायेगा तो उसका अंग छेदन कर दिया जायेगा।

कहाँ औरंगजेब की सेना के सिपाही जिनके हाथ अगर कोई हिन्दू लड़की लग जाती या तो उसे या तो अपने हरम में गुलाम बना कर रख लेते थे अथवा उसे खुले आम गुलाम बाज़ार में बेच देते थे और कहाँ वीर शिवाजी का यह पवित्र आर्य आदर्श।

इतिहास में शिवाजी की यह नैतिकता स्वर्णिम अक्षरों में लिखी गई हैं।

इन ऐतिहासिक प्रसंगों को पढ़ कर पाठक स्वयं यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं की महानता और आर्य मर्यादा व्यक्ति के विचार और व्यवहार से होती हैं।

सम्वत्सर की वैज्ञानिकता

बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध तक पश्चिमी देशों में उनके अपने धर्म-ग्रन्थों के अनुसार मानव सृष्टि को मात्र पांच हजार वर्ष पुराना बताया जाता था। जबकि इस्लामी दर्शन में इस विषय पर स्पष्ट रूप से कुछ भी नहीं कहा गया है। पाश्चात्य जगत के वैज्ञानिक भी अपने धर्म-ग्रन्थों की भांति ही यही राग अलापते रहे कि मानवीय सृष्टि का बहुत प्राचीन नहीं है। इसके विपरीत हिन्दू जीवन-दर्शन के अनुसार इस सृष्टि का प्रारम्भ हुए १ अरब, ९७ करोड़, २९ लाख, ४९ हजार, १० वर्ष बीत चुके हैं और अब चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से उसका १ अरब, ९७ करोड़, २९ लाख, ४९ हजार, ११वां वर्ष प्रारम्भ हो रहा है। भूगर्भ से सम्बन्धित नवीनतम आविष्कारों के बाद तो पश्चिमी विद्वान और वैज्ञानिक भी इस तथ्य की पुष्टि करने लगे हैं कि हमारी यह सृष्टि प्राय: २ अरब वर्ष पुरानी है।

अपने देश में हेमाद्रि संकल्प में की गयी सृष्टि की व्याख्या के आधार पर इस समय स्वायम्भुव, स्वारोचिष, उत्तम, तामस, रैवत और चाक्षुष नामक छह मन्वन्तर पूर्ण होकर अब वैवस्वत मन्वन्तर के २७ महायुगों के कालखण्ड के बाद अठ्ठाइसवें महायुग के सतयुग, त्रेता, द्वापर नामक तीन युग भी अपना कार्यकाल पूरा कर चौथे युग अर्थात कलियुग के ५०११वें सम्वत् का प्रारम्भ हो रहा है। इसी भांति विक्रम संवत् २०६६ का भी श्रीगणेश हो रहा है।

हिन्दू जीवन-दर्शन की मान्यता है कि सृष्टिकर्ता भगवान् व्रह्मा जी द्वारा प्रारम्भ की गयी मानवीय सृष्टि की कालगणना के अनुसार भारत में प्रचलित सम्वत्सर केवल हिन्दुओं, भारतवासियों का ही नहीं, अपितु सम्पूर्ण संसार या समस्त मानवीय सृष्टि का सम्वत्सर है। इसलिए यह सकल व्रह्माण्ड के लिए नव वर्ष के आगमन का सूचक है।

व्रह्मा जी प्रणीत यह कालगणना निसर्ग अथवा प्रकृति पर आधारित होने के कारण पूरी तरह वैज्ञानिक है। अत: नक्षत्रों को आधार बनाकर जहां एक ओर विज्ञानसम्मत चैत्र, वैशाख, ज्येष्ठ, आषाढ़, श्रावण, भाद्रपद, आश्विन, कात्तिर्क, मार्गशीर्ष, पौष, माघ और फाल्गुन नामक १२ मासों का विधान एक वर्ष में किया गया है, वहीं दूसरी ओर सप्ताह के सात दिवसों यथा रविवार, सोमवार, मंगलवार, बुधवार, बृहस्पतिवार, शुक्रवार तथा शनिवार का नामकरण भी व्रह्मा जी ने विज्ञान के आधार पर किया है।

आधुनिक समय में सम्पूर्ण विश्व में प्रचलित ईसाइयत के ग्रेगेरियन कैलेण्डर को दृष्टिपथ में रखकर अज्ञानी जनों द्वारा प्राय: यह प्रश्न किया जाता है कि व्रह्मा जी ने आधा चैत्र मास व्यतीत हो जाने पर नव सम्वत्सर और सूर्योदय से नवीन दिवस का प्रारम्भ होने का विधान क्यों किया है? इसी भांति सप्ताह का प्रथम दिवस सोमवार न होकर रविवार ही क्यों निर्धारित किया गया है? जैसा ऊपर कहा जा चुका है, व्रह्मा जी ने इस मानवीय सृष्टि की रचना तथा कालगणना का पूरा उपक्रम निसर्ग अथवा प्रकृति से तादात्म्य रखकर किया है। इसके साथ ही यह भी कहा गया है कि ‘चैत्रमासे जगत् व्रह्मा संसर्ज प्रथमेऽहनि, शुक्ल पक्षे समग्रे तु तदा सूर्योदय सति।‘ चैत्र मास के शुक्ल पक्ष के प्रथम दिवस को सूर्योदय से कालगणना का औचित्य इस तथ्य में निहित है कि सूर्य, चन्द्र, मंगल, पृथ्वी, नक्षत्रों आदि की रचना से पूर्व सम्पूर्ण त्रैलोक्य में घटाटोप अन्धकार छाया हुआ था। दिनकर की सृष्टि के साथ इस धरा पर न केवल प्रकाश प्रारम्भ हुआ अपितु भगवान् आदित्य की जीवनदायिनी ऊर्जा शक्ति के प्रभाव से पृथ्वी तल पर जीव-जगत का जीवन भी सम्भव हो सका। चैत्र कृष्ण प्रतिपदा के स्थान पर चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से वर्ष का आरम्भ, अर्द्धरात्रि के स्थान पर सूर्योदय से दिवस परिवर्तन की व्यवस्था तथा रविवार को सप्ताह का प्रथम दिवस घोषित करने का वैज्ञानिक आधार तिमिराच्छन्न अन्धकार को विदीर्ण कर प्रकाश की अनुपम छटा बिखेरने के साथ सृजन को सम्भव बनाने की भगवान् भुवन भास्कर की अनुपमेय शक्ति में निहित है। वैसे भी इंग्लैण्ड के ग्रीनविच नामक स्थान से दिन परिवर्तन की व्यवस्था में अर्द्ध रात्रि के १२ बजे को आधार इसलिए बनाया गया है; क्योंकि जब इंग्लैण्ड में रात्रि के १२ बजते हैं, तब भारत में भगवान् सूर्यदेव की अगवानी करने के लिए प्रात: ५.३० बजे होते हैं।

वारों के नामकरण की विज्ञान सम्मत प्रक्रिया में व्रह्मा जी ने स्पष्ट किया कि आकाश में ग्रहों की स्थिति सूर्य से प्रारम्भ होकर क्रमश: बुध, शुक्र, चन्द्र, मंगल, गुरु और शनि की है। पृथ्वी के उपग्रह चन्द्रमा सहित इन्हीं अन्य छह ग्रहों को साथ लेकर व्रह्मा जी ने सप्ताह के सात दिनों का नामकरण किया है। उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि पृथ्वी अपने उपग्रह चन्द्रमा सहित स्वयं एक ग्रह है, किन्तु पृथ्वी पर उसके नाम से किसी दिवस का नामकरण नहीं किया जायेगा; किन्तु उसके उपग्रह चन्द्रमा को इस नामकरण में इसलिए स्थान दिया जायेगा; क्योंकि पृथ्वी के निकटस्थ होने के कारण चन्द्रमा आकाशमण्डल की रश्मियों को पृथ्वी तक पहुँचाने में संचार उपग्रह का कार्य सम्पादित करता है और उससे मानवीय जीवन बहुत गहरे रूप में प्रभावित होता है। लेकिन पृथ्वी पर यह गणना करते समय सूर्य के स्थान पर चन्द्र तथा चन्द्र के स्थान पर सूर्य अथवा रवि को रखा जायेगा।

हम सभी यह जानते हैं कि एक अहोरात्र या दिवस में २४ होरा या घण्टे होते हैं। व्रह्मा जी ने इन २४ होरा या घण्टों में से प्रत्येक होरा का स्वामी क्रमश: सूर्य, शुक्र, बुध, चन्द्र, शनि, गुरु और मंगल को घोषित करते हुए स्पष्ट किया कि सृष्टि की कालगणना के प्रथम दिवस पर अन्धकार को विदीर्ण कर भगवान् भुवन भास्कर की प्रथम होरा से क्रमश: शुक्र की दूसरी, बुध की तीसरी, चन्द्रमा की चौथी, शनि की नौवीं, गुरु की छठी तथा मंगल की सातवीं होरा होगी। इस क्रम से इक्कीसवीं होरा पुन: मंगल की हुई। तदुपरान्त सूर्य की बाईसवीं, शुक्र की तेईसवीं और बुध की चौबीसवीं होरा के साथ एक अहोरात्र या दिवस पूर्ण हो गया। इसके बाद अगले दिन सूर्योदय के समय चन्द्रमा की होरा होने से दूसरे दिन का नामकरण सोमवार किया गया। अब इसी क्रम से चन्द्र की पहली, आठवीं और पंद्रहवीं, शनि की दूसरी, नववीं और सोलहवीं, गुरु की तीसरी, दशवीं और उन्नीसवीं, मंगल की चौथी, ग्यारहवीं और अठ्ठारहवीं, सूर्य की पाचवीं, बारहवीं और उन्नीसवीं, शुक्र की छठी, तेरहवीं और बीसवीं, बुध की सातवीं, चौदहवीं और इक्कीसवीं होरा होगी। बाईसवीं होरा पुन: चन्द्र, तेईसवीं शनि और चौबीसवीं होरा गुरु की होगी। अब तीसरे दिन सूर्योदय के समय पहली होरा मंगल की होने से सोमवार के बाद मंगलवार होना सुनिश्चित हुआ। इसी क्रम से सातों दिवसों की गणना करने पर वे क्रमश: बुधवार, गुरुवार, शुक्रवार तथा शनिवार घोषित किये गये; क्योंकि मंगल से गणना करने पर बारहवीं होरा गुरु पर समाप्त होकर बाईसवीं होरा मंगल, तेईसवीं होरा रवि और चौबीसवीं होरा शुक्र की हुई। अब चौथे दिवस की पहली होरा बुध की होने से मंगलवार के बाद का दिन बुधवार कहा गया। अब बुधवार की पहली होरा से इक्कीसवीं होरा शुक्र की होकर बाईसवीं, तेईसवीं और चौबीसवीं होरा क्रमश: बुध, चन्द्र और शनि की होगी। तदुपरान्त पांचवें दिवस की पहली, होरा गुरु की होने से पांचवां दिवस गुरुवार हुआ। पुन: छठा दिवस शुक्रवार होगा; क्योंकि गुरु की पहली, आठवीं, पन्द्रहवीं और बाईसवीं होरा के पश्चात् तेईसवीं होरा मंगल और चौबीसवीं होरा सूर्य की होगी। अब छठे दिवस की पहली होरा शुक्र की होगी। सप्ताह का अन्तिम दिवस शनिवार घोषित किया गया; क्योंकि शुक्र की पहली, आठवीं, पन्द्रहवीं और बाईसवीं होरा के उपरान्त बुध की तेईसवीं और चन्द्रमा की चौबीसवीं होरा पूर्ण होकर सातवें दिवस सूर्योदय के समय प्रथम होरा शनि की होगी।

संक्षेप में व्रह्मा जी प्रणीत इस कालगणना में नक्षत्रों, ऋतुओं, मासों, दिवसों आदि का निर्धारण पूरी तरह निसर्ग अथवा प्रकृति पर आधारित वैज्ञानिक रूप से किया गया है। दिवसों के नामकरण को प्राप्त विश्वव्यापी मान्यता इसी तथ्य का प्रतीक है।
http://scienceofhinduism.blogspot.in/2010/10/indian-calendar-panchang_29.html

वेद विज्ञान


एक मुस्लिम ने सात आसमान के प्रश्न के उत्तर मे प्रतिप्रश्न करते हुए अथर्ववेद के काण्ड 4 के 20वे सूक्त के मन्त्र 2 पर आक्षेप किया है । उसका उत्तर

अथर्ववेद काण्ड 4 सूक्त 2 का अर्थ –
ये सूक्त औषधि के विषय मे है – मन्त्र 1 - (देवि) विशेष गुण वाली [औषधि ] को [वैद्य] (पश्यति) देखता है अर्थात सामान्य रूप से देखता है , (आ पश्यति) [मुख्य गुणो के आधार पर] विशेष रूप से देखता है, (प्रति पश्यति) वि...परीत गुणो को देखता है (परा पश्यति) दूरगामी प्रभाव को देखता है। भूमि, अंतरिक्ष, सूर्य को देखता है। विशेष- भूमि को देखना आयुर्वेद मे जिस भूमि मे औषधि उत्पन्न होती है उसका का भी विचार क्या गया है जैसे पर्वत पर उत्पन्न औषधि अधिक गुणकारी है तथा मरुस्थल मे उत्पन्न कम गुण वाली । अन्तरिक्ष = वायुमंडल प्रभाव जैसे हवा मे नमी धूल आदि का होना। दिव = सूर्य का प्रभाव जैसे गर्मी सर्दी। (सुश्रुत संहिता मे लिखा है की सभी औषधियों मे अग्नि और सोम का संतुलन होता है जैसे आक, चित्रक आदि अग्नि गुण प्रधान औषध हैं और कमल, गिलोय आदि सोम गुण प्रधान औषध हैं )। सूर्य के प्रकाश का प्रभाव – आधुनिक उद्भिद विज्ञान (BOTANY) के अनुसार पौधों को सूर्य के प्रकाश की दृष्टि से 2 विभागों मे बांटा गया है । Long Day Light तथा Short Day Light। अनेक पौधों पर सूर्य के प्रकाश के कम या अधिक होने पर प्रभाव होता है। अधिक समय तक अंधेरे मे रहने पर गन्ने की पोरिया (INTER NODE) आदि लम्बी होती हैं तथा अधिक समय तक प्रकाश मे रहने से गन्ने की पोरिया inter nodes छोटी होती हैं ।
मन्त्र 2 - (तिस्र दिवः) तीन प्रकार का सूर्य का प्रभाव = गर्मी, सर्दी और वर्षा, (तिस्र पृथिवी) तीन प्रकार भूमि = अनूप, जांगल और साधारण (षट च इमाः प्रदिश पृथक ) औषधि से संबन्धित छह दिशाएँ - जैसे नीचे की दिशा मे समुद्र के निकट नीचे स्थान पर उत्पन्न औषधि , उच्च स्थान पर अर्थात पर्वतों पर उत्पन्न औषधि तथा पूर्व आदि 4 दिशाओं मे उत्पन्न औषधि। (देवि ओषधे)- हे प्रभावशाली औषध (त्वया) तुझे (सर्वा भूतानि) सभी जीवधारियों मे (जीवधारियों के रोगों मे ) (पश्यानि ) [उपयोगी] देखूँ - विशेष - आयुर्वेद मे मनुष्य के रहने वाली भूमि को 3 भागों मे बांटा गया है - अनूप अर्थात जहां जल की अधिकता ही जैसे केरल प बंगाल आदि ऐसे स्थानों मे कफ के रोग अधिक होते हैं । जांगल जहां पर जल कम हो जैसे हरियाणा, राजस्थान आदि वहाँ पर वात के रोग अधिक होते है । साधारण अनूप और जांगल दोनों के गुण जैसे हिमाचल पंजाब आदि । तीनों स्थानो पर रहने वालों को अलग अलग किस्म के रोग होने की सम्भावना है। औषधि को तू कहने का अर्थ ये नहीं है कि औषधि चेतन है अपितु यहाँ मानवीकरण किया गया है। आयुर्वेद केवल मनुष्य के लिए नहीं है। गो। अश्व, हस्ती और वृक्षायुर्वेद भी होता है

महाभारत में क्लोनिंग


क्या आपको यकीन होगा कि अब शरीर के अंदर ही नया गर्भाशय या किडनी तैयार किए जा सकते हैं? 25 साल पहले डाक्टर मातापुरकर की बात पर भी कोई यकीन नहीं करता था। पर उन्होंने साबित कर दिया कि जैसे पेड़ की डाल काट देने पर या छिपकली की पूंछ कट जाने पर वह फिर से आ जाती है, वैसा ही आदमी के शरीर के साथ भी संभव है। बीज कोशिका के आधार पर गर्भाशय, किडनी और यहां तक कि आंतें भी बनाई जा सकती हैं। एक ओर अमरीकी वैज्ञानिक प्रयोगशाला में भ्रूण से मानव क्लोन तैयार करने का दावा कर रहे हैं, वहीं दूसरी ओर भारत के डाक्टर बालकृष्ण गणपत मातापुरकर को किसी भी अंग से बीज कोशिका निकालकर अंग को पुन: उत्पादित करने का पेटेंट मिल चुका है। 1991 में उन्होंने इस तकनीकी पर पहला लेख लिखा, पर उसमें यह नहीं बताया कि यह किस प्रकार संभव होगा। वजह यह थी कि विश्व समुदाय स्टेम सेल यानी बीज कोशिका के आधार पर अंग या ऊतक निर्माण की बात पचाने के लिए उस समय तैयार नहीं था। यह लेख उनकी 15 साल की कड़ी मेहनत का नतीजा था। उन्होंने 1999 में जाकर यह खुलासा कर दिया कि 1991 में शरीर के अंदर ही अंग निर्माण का जो उल्लेख किया गया था, उसका आधार बीज कोशिका ही थी। यह बीज कोशिका का सिद्धांत ही है जिस पर क्लोनिंग का सारा दारोमदार टिका है।
मानव भ्रूण का निर्माण तीन कोशिकाओं से होता है। यही कोशिकाएं आगे चलकर पूरे शरीर का निर्माण करती हैं। स्टेम सैल यानी बीज कोशिका इन्हीं में से एक है और यह शरीर के हर अंग में पाई जाती है। मातापुरकर ने इसी कोशिका का उपयोग कर नए अंग व ऊतक बनाए। बंदरों व कुत्तों पर उनके द्वारा किए गए प्रयोग सफल रहे और इस विधि से सिर्फ तीन माह में उन्होंने एक गर्भाशय विकसित कर दिखाया। अब मानव पर प्रयोग शुरू हो गया है। जैविक गड़बड़ी की आशंका को ये पूरी तरह नकारते हुए कहते हैं "आदमी का स्वयं का शरीर एक ऐसा कारखाना है जो नया अंग बनाने के लिए कच्चा माल देता है, इसलिए गड़बड़ी की बात ही नहीं उठती। गुर्दा अथवा यकृत जैसे अंगों के खराब हो जाने पर प्रतिवर्ष लाखों लोगों की मौत हो जाती है। पर यह तकनीक स्थित बदल देगी।" यह पढ़कर शायद आपको और भी आश्चर्य होगा कि मातापुरकर अपने शोध को बिल्कुल भी नया नहीं मानते। वे कहते हैं "मैंने जो कुछ भी किया है उसमें कुछ भी नया नहीं है। हमारे पूर्वजों ने इसे महाभारत काल में ही कर दिखाया था। एक दिन अचानक मेरे मन में प्रश्न उठा कि हम महाभारत को सच मानें तो गांधारी ने किस तरह 100 बच्चों को जन्म दिया होगा? इस प्रश्न का उत्तर मुझे महाभारत के आदि पर्व के अध्याय 115 में मिल गया। मैं यह पढ़कर हैरान रह गया कि बीज कोशिका यानी स्टेम सैल के द्वारा 100 कौरवों को जन्म देने की पूरी वैज्ञानिक प्रक्रिया का उसमें वर्णन था। उस दिन मुझे अहसास हो गया है कि मैं कुछ भी नया नहीं कर रहा हूं।"
महाभारत के आदि पर्व में इसका वर्णन निम्नानुसार है-कुंती को सूर्य के समान तेजस्वी पुत्र प्राप्त हुआ है, यह सुनकर गांधारी-जिसे दो वर्षों से गर्भ होने के बावजूद संतान प्राप्ति नहीं हुई, ने परेशान हो स्वयं गर्भपात कर लिया। गर्भपात के बाद लोहे के गोले के समान मांसपेशी निकली। इस समय द्वैपायन व्यास ऋषि को बुलाया गया। उन्होंने इस ठोस मांसपेशी का निरीक्षण किया। व्यास ऋषि ने इस मांसपेशी को एक कुंड में ठंडा कर विशेष दवाओं से सिंचित कर सुरक्षित किया। बाद में इस मांसपेशी को 100 पर्वों में बांटा तथा 100 कुण्ड घी से भरे हुए थे, उनमें इन्हें रखकर दो वर्ष तक सुरक्षित रखा। दो वर्ष बाद क्रमानुसार 100 कौरवों का जन्म हुआ।
ग्वालियर में 1941 में जन्मे मातापुरकर ने गजरा राजे मेडिकल कालेज से सर्जरी में डिग्री हासिल की। फिर मौलाना आजाद मेडिकल कालेज (दिल्ली) में काम करते हुए उन्होंने अंग प्रत्यारोपण के स्थान पर अंग निर्माण की तकनीक विकसित की। वे कहते हैं कि "इससे बड़ी विडम्बना और क्या होगी कि लोगों ने मेरे काम को तब माना जब मुझे अमरीका का पेटेंट मिल गया। क्या यह मानसिक गुलामी नहीं है?" उनके कार्य को देखकर अमरीका में तीन संस्थान खोले जा चुके हैं और बहुराष्ट्रीय कंपनियां अरबों डालर इस प्रोजेक्ट पर खर्च कर रही हैं। 1996 में जब उन्होंने अमरीका के पेटेंट के लिए आवेदन किया, तभी अमरीका में पहली बार स्टेम सैल पर काम शुरू हो गया था। उनके शोध के बाद ही पहली बार स्टेम सैल शब्द का चलन शुरू हुआ।
"मानव क्लोंनिग" एक नए हमशक्ल को पैदा करने की कोशिश है, मगर मातापुरकर की तकनीक अंगों को दोबारा बनाने के लिए है। हमशक्ल पैदा करना न सिर्फ प्रकृति विरोधी है बल्कि अनैतिक भी है। मातपुरकर कहते हैं, "तकनीक ऐसी होनी चाहिए जो आदमी की जिंदगी को बेहतर करे।" 

2600 साल पहले भी चलता था भगवान् श्री राम का सिक्का


क्या भगवान राम की जगह सिर्फ आस्था में है। क्या रामायण महर्षि वाल्मीकि की कल्पना की उपज है। ये सवाल काफी समय से लोगों को मथते रहे हैं। इस इतिहास का एक पन्ना पहली बार खोला है एक मुस्लिम आर्कियोलॉजिस्ट ने। राजस्थान के इस आर्कियोलॉजिस्ट ने देश के सबसे पुराने पंचमार्क सिक्कों से ये साबित कर दिया है कि राम में आस्था ढाई हजार साल पहले भी वैसी ही थी, जैसी आज है। इतिहास में सबसे ज्यादा सिक्का, सिक्कों का ही चलता है। वो इतिहास को एक दिशा देते हैं। घटनाओं के सबूत देते हैं और यही सबूत बाद में इतिहास की किताबों में जुड़ जाते हैं। हिंदुस्तान के इतिहास के लिए ऐसी ही अहमिय है पंचमार्क सिक्कों की। वो सिक्के जिन्हें सबसे पुराना माना जाता है। ये हजारों साल पहले पीट-पीटकर बनाए गए। इतिहासकार इन्हें आहत सिक्के भी कहते हैं। इन्हीं सिक्कों में कुछ ऐसे भी थे, जिन्होंने देशी- विदेशी आर्कियोलॉजिस्ट्स को करीब 100 साल तक उलझाए रखा।
उन पर नजर आती थीं तीन अबूझ मानव आकृतियां। आखिर वो कौन थे। उन्हें अब तक कोई नहीं पहचान सका था। इतिहासकार पिछली एक सदी से इस सवाल पर जूझते रहे लेकिन अब ये पहेली सुलझ गई है। विदेशी आर्कियोलॉजिस्ट जॉन ऐलन ने जिन्हें थ्री मैन कहा था उन्हें एक भारतीय ने पहचान लिया है। ये भारतीय हैं राजस्थान के आमेर किले के सुपरिटेंडेंट जफरुल्ला खां। इनका कहना है कि अगर किसी की हिंदू संस्कृति और इतिहास पर पकड़ हो तो इस पहेली को सुलझाना मुश्किल नहीं। उनका दावा है कि ये आकृतियां राम, लक्ष्मण और सीता की हैं। जफरुल्ला खां ने इस फैसले तक आने से पहले कई साल खोजबीन की। हिंदू मान्यताओं, रामायण और दूसरे धर्मग्रंथों को पढ़ा-समझा। साथ ही राम के चरित्र और पंचमार्क सिक्कों की बारीकी से पड़ताल की। जफरुल्ला ने पाया कि तीनआकृतियों में दो के एक-एक जूड़ा है जबकि एक की दो चोटियां हैं। तीसरी आकृति किसी महिला की लगती है।
ये महिला दूसरे पुरुष के बांयी ओर खड़ी है। हिंदू धर्म के मुताबिक स्त्री हमेशा पुरुष के बांयी ओर खड़ी होती है। तब जफरुल्ला खां इस नतीजे पर पहुंचे कि ये राम, सीता और लक्ष्मण के सिवा कोई नहीं हो सकता।
उनकी बात इससे भी साबित होती है कि सभी पंचमार्क सिक्कों पर सूर्य का निशान होता है लेकिन तीन मानव आकृतियों वाले इन सात तरह के पंचमार्क सिक्कों पर सूर्य का निशान नहीं मिला। इसकी वजह थी कि भगवान राम खुद सूर्यवंशी थे इसलिए अगर किसी सिक्के पर राम की तस्वीर होती है, तो वहां सूर्य के निशान की जरूरत नहीं होती थी। जफरुल्ला यहीं नहीं रुके। उन्होंने यूनानी और इस्लामिक सिक्कों में दिखाए गए धार्मिक चरित्रों को भी देखा-परखा। उनका दावा है कि हिंदू धर्म में राम, सीता और लक्ष्मण शुरू से ही आस्था के सबसे बड़े प्रतीक हैं। इसलिए पंचमार्क सिक्कों पर मौजूद ये थ्री-मैन भगवान राम, सीता और लक्ष्मण ही हैं।
जफरुल्ला ने इन सिक्कों पर मौजूद एक और आकृति को पहचाना। उन्होंने इसे हनुमान की आकृति बताया है। राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय सेमिनारों में उन्होंने अपनी खोज के नतीजे रखे। इसके बाद भारतीय मुद्रा परिषद ने जफरुल्ला का दावा मान लिया और उनका पेपर भी छाप दिया। जफरुल्ला के दावे ने अब हकीकत का चोला पहन लिया है। उनकी खोज ने राम को इतिहास पुरुष बना दिया है। उन्होंने साबित कर दिया है कि राम कुछ सौ साल पुराने चरित्र नहीं हैं।
आस्थाओं में राम ढाई हजार साल पहले भी थे और इसका सबूत हैं ये सिक्के। जफरुल्ला खां की इस खोज पर भरोसा करें तो तय है कि ढाई हजार साल पहले भी राम की पूजा होती थी, यानी राम केवल रामायण में ही नहीं, इतिहास के दस्तावेजों में भी हैं। जय श्री राम

रूस के उत्खनन में भगवान श्री विष्णु की प्राचीन मूर्ति मिली


मॉस्को (रूस)- यहांके वोल्गा भागमें बसे हुए प्राचीन स्तरके मायना गांवमें उत्खननके समय भगवान श्रीविष्णुकी प्राचीन मूर्ति पाई गई ।
१ . उत्खननके समय श्रीविष्णुकी प्राचीन मूर्ति लगभग सातवीं अथवा दसवीं शताब्दीकी होगी ।
२. उत्खनन समूहके डॉ. कोजविनका कहना है कि यद्यपि मायना नामक गांवकी लोकसंख्या ८ सहस्र है, तब भी ऐसा अनुमान है कि १ सहस्र ७०० वर्षोंपूर्व वह बहुत अधिक होगी । अर्थात ये सर्व सिद्धांतोंपर आधारित है ।
३. डॉ. कोजवीन, इस क्षेत्रमें ७ वर्षोंसे उत्खनन कर रहे हैं । अबतक किए गए उत्खननमें उन्हें प्राचीन सिक्के, पदक, अंगूठियां और शस्त्र मिले हैं ।
४. इस प्राचीन गांवकी वास्तविक उत्पत्ति कब और वैâसे हुई, इसके लिए अंतरराष्ट्रीय स्तरपर एक चर्चासत्रका आयोजन किया गया है । उसमें श्रीविष्णुकी मूर्तिपर भी मतप्रदर्शन होनेवाला है ।
५. ऋग्वेदमें इस भागका उल्लेख ७२२ उडनेवाले वाहनोंका प्राचीन और पवित्र प्रदेश किया गया है ।
६. उत्खननमें मिली श्रीविष्णुकी मूर्तिके कारण रूसकी और भारतके रूस एवं भारतके प्राचीन कालमें संबंध थे, इसकी भी पुष्टि हुई है ।
७. श्रीविष्णुके मंदिरमें जिस प्रकार पूजा की जाती है, वैसी ही पूजा-अर्चा रूसकी चर्चमें आज भी वहां की जाती है । वैकुंठ एकादशीके नामसे उनका भी एक उत्सव है ।
स्त्रोत :http://www.hindujagruti.org/hindi/news/3655.html
http://www.dainiksanatanprabhat.blogspot.in/2013/11/blog-post_9144.html 

हडप्पा संस्कृति से प्राप्त एक मुद्रा(सील)



मित्रो उपर्युक्त जो चित्र है वो हडप्पा संस्कृति से प्राप्त एक मुद्रा(सील) का फोटोस्टेट प्रतिकृति है।ये सील आज सील नं 387 ओर प्लेट नंCXII के नाम से सुरक्षित है,,
इस सील मे एक वृक्ष पर दो पक्षी दिखाई दे रहे है,जिनमे एक फल खा रहा है,जबकि दूसरा केवल देख रहा है।
यदि हम ऋग्वेद देखे तो उसमे एक मंत्र इस प्रकार है-
द्वा सुपर्णा सुयजा सखाया समानं वृक्ष परि षस्वजाते।
तयोरन्य: पिप्पलं स्वाद्वत्तयनश्नन्नन्यो अभिचाकशीति॥
-ऋग्वेद 1/164/20
इस मंत्र का भाव यह है कि एक संसाररूपी वृक्ष पर दो लगभग एक जैसे पक्षी बैठे है।उनमे एक उसका भोग कर रहा है,जबकि दूसरा बिना उसे भोगे उसका निरीक्षण कर रहा है।
उस चित्र ओर इस मंत्र मे इस तरह की समानता से आप लोगो को क्या लगता है???
क्युकि हमारे कई पुराने मंदिरो पर या कृष्ण जी के मन्दिरो पर रामायण ओर कृष्ण जी की कुछ लीलाए चित्र रूप मे देखी होगी,जिनका आधार रामायण ओर महाभारत जैसे ग्रंथ है।
तो क्या ये चित्र बनाने वाला व्यक्ति या बन वाने वाले ने ऋग्वेद के इस मंत्र को चित्र रूप दिया हो ताकि लोगो को इस मंत्र को समझा सके ।
क्या हडप्पा वासी वेद पढते थे।ऋग्वेद मे स्वस्तिक शब्द है ओर उसका चित्र रूप जो हम आज शुभ कार्यो मे बनाते है वो हडप्पा सभ्यता से प्राप्त हुआ है।
तो क्या हडप्पा वासी भी वेद पढते थे।वे वेदो को मानते थे।
आप लोग अपनी राय दे- 

चीन के एक गाँव में हिन्दू प्रतीकों का प्रयोग करते ग्रामीण


चीन के एक गाँव में हिन्दू प्रतीकों का प्रयोग करते ग्रामीण
फ्रांस के मीडिया संस्थान TF1 ने एक डाक्यूमेंट्री बनायीं, वे गए चीन के मोसुओ गाँव में, वहां उन्होंने प्राचीन भारतीय पवित्र हिन्दू प्रतीकों को, ग्रामीणों द्वारा अपने घरों पर बनाते हुए देखा, ठीक उसी तरह जैसे भारत में लोग बनाते हैं,
चित्र में देखिये किस प्रकार ग्रामीणों ने स्वास्तिक तथा शंख जैसे पवित्र प्रतीक अपने घरों में बनायें है
"भारतीय संस्कृति के पुरातन एवं सर्वव्यापी होने का एक और प्रमाण"
फ्रेंच भाषा में बनी इस डाक्यूमेंट्री का नाम है, The Kingdom of the Women, (महिलाओं का साम्राज्य)
निम्न वीडियो देंखे -
http://videos.tf1.fr/sept-a-huit/le-royaume-des-femmes-8289801.html
http://www.youtube.com/watch?v=ZZvLWS5xnl0
http://www.dailymotion.com/video/xbpnjm_matriarcat-moso-le-royaume-des-femm_news
जय श्री राम

ग्रीक पेंटिंग में चित्रित भगवान श्री कृष्ण .



ग्रीक पेंटिंग में चित्रित भगवान श्री कृष्ण . Shri Krishna Portrayed in a Greek Mosaic
ये पेंटिंग ली गयी है, ग्रीस की राजधानी एथेन्स, से ६० किलोमीटर दूर कोरिंथ शहर के म्यूजियम से क्लिक कीजिये -http://www.ancientcorinth.net/museum.aspx
सीधी दृष्टि में देखकर कोई भी बता देगा की ये भगवान श्री कृष्ण की पेंटिंग है (मोज़ेक कला में), इनके बाल देखिये बिल्कुल ग्रीक शैली में उकेरे गए हैं, -http://www.fashionclutter.com/wp-content/uploads/2012/08/ancient-greek-fashion-4.jpg
इसके अलावा पैरों को क्रॉस करके पेड़ के नीचे खड़ा होना, हाँथ में क्षैतिज बांसुरी, आसपास गायें एवं वन का दृश्य, उसी तरह है, जिस तरह हम अक्सर कान्हा को देखते व पूजते है. ये पेंटिंग दूसरी शताब्दी ईसा पश्चात् (2nd century A.D.) की है. और म्यूजियम ऑफ़ कोरिंथ में अवस्थित है.
इससे सिद्ध होता है की सम्पूर्ण विश्व की जड़ में सनातन धर्म है.

सिद्धियाँ 8 प्रकार की होती हैं



1. अणिमा -
जिसके पास ये सिद्धि होती है वो व्यक्ति अपने शरीर को अनु या एटम जितना छोटा बना सकता है l

2. महिमा -
इस सिद्धि से व्यक्ति अपने शरीर को जितना चाहे बड़ा बना सकता है l

3. गरिमा -
इस सिद्धि से व्यक्ति अपने शरीर को जितना चाहे उतना भारी कर सकता है l

4. लघिमा -
इस सिद्धि से मनुष्य अपने शरीर को बिलकुल हल्का बना सकता है l

5. प्राप्ति -
इस सिद्धि से व्यक्ति किसी भी स्थान में बिना रोक टोक जा सकता है l

6. प्राकाम्य -
इस सिद्धि को प्राप्त करने से मनुष्य जिस भी चीज की इच्छा करता
है वो उसे प्राप्त कर लेता है l

7. इशित्वा -
इस सिद्धि की प्राप्ति से मनुष्य किसी भी व्यक्ति पर स्वामित्व
प्राप्त करने की शक्ति प्राप्त कर लेता है

8. वशित्वा -
इस सिद्धि को प्राप्त करने से मनुष्य हर प्रकार के युद्ध में
विजय प्राप्त करता है l

देवी माँ सिद्धिदात्री की कृपा से इन 8 सिद्धियों को प्राप्त किया जा सकता है
जय माता दी

देवी दुर्गा जी के नौवें रूप का नाम देवी सिद्धिधात्री है , वे सभी
प्रकार की सिद्धियों को देने में समर्थ हैं मार्कंडेय पुराण के अनुसार आठ
प्रकार की सिद्धियाँ होती हैं : अणिमा, महिमा, गरिमा, लघिमा, प्राप्ति,
प्राकाम्य, इशित्वा, वाशित्वा l

इनकी पूजा करने से साधक को सभी सिद्धियों की प्राप्ति होती है साधक का
संपूर्ण जगत पर अधिकार हो जाता है उसके लिए कुछ भी दुर्लभ नहीं रहता l

ॐॐ