Sunday, March 8, 2015

आयुर्वेद और मांसाहार

शोधकर्ता - संजय कुमार जी
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कुछ दिन पहले एक मित्र ने आयुर्वेद मे मांसाहार पर प्रश्न किया था। क्योंकि यह विषय बहुत विवादित है इसलिए इस पर मैं अपनी जानकारी को सबके साथ साझा रहा हूँ। 
वर्षों तक आयुर्वेद का विशेष रूप से चरक संहिता व सुश्रुत संहिता का स्वाध्याय करने के बाद मैं इस निर्णय पर पहुंचा हूँ कि आयुर्वेद के विशेषज्ञ महर्षि ना तो स्वयम मांस खाते थे और ना ही चिकित्सा के लिए पशुओ को मारते थे। यद्यपि आज जो चरक संहिता व सुश्रुत संहिता मिलती हैं वह उसमे मांस का स्पष्ट प्रयोग मिलता है परंतु वह बाद मे मिलाया गया है। 
एसी बहुत सी बाते हैं जो संशोधन के नाम पर आयुर्वेद के ग्रन्थों मे मिला दी या पाठ ही बदल दिया। उसका सबसे बड़ा कारण वह टीकाकार थे जो आयुर्वेद को नहीं जानते थे। उदाहरण – 
चरक संहिता मे पक्षाघात (Paralysis) कि चिकित्सा मे शिरावस्ति का स्पष्ट वर्णन है। शिरा = VEIN अतः शिरावस्ति = IV Infusion (जैसे आजकल सुई से ग्लूकोज नस मे पहुंचाया जाता है।)
अब टीकाकारों की करतूत देखे- 
11वीं शताब्दी के चरक के टीकाकार चक्रपाणि ने इस पर टीका करते समय शिरावस्ति का अर्थ किया – शिरावेध अर्थात शिरा से खून निकालना 
19 वीं शताब्दी के टीकाकार गंगाधर तो इससे भी आगे निकल गए। उन्होने इस पाठ को ही बदल कर शिरोवस्ति कर दिया। शिरोवस्ति का अर्थ है सिर पर चमड़े कि टोपी पहना कर उसमे कुछ समय के लिए तेल भरना। 
इस तरह की धृष्टता सुधार के नाम पर लगातार होती रही। इस तरह के अनेक उदाहरण दिए जा सकते है। कहीं शब्द बदल दिया कहीं श्लोक आगे पीछे कर दिए कहीं नए श्लोक बना कर मिला दिए। 
एक और उदाहरण – चरक संहिता मे जंगल मे जड़ी बूटी ढूँढने मे ग्वाले निषाद आदि की सहायता लेने का विवरण है। 
दुष्टों ने वहाँ पर निषाद के स्थान पर शब्द बदल कर व्याध कर दिया जब कि दोनों शब्द एक दूसरे से बिलकुल अलग हैं। 
व्याध—शिकारी/ कसाई 
निषाद – वन रक्षक 
वाल्मीकि रामायण मे निषाद का जो विवरण आता है वह भी वन रक्षक के रूप मे आता है। 
वाल्मीकि रामायण मे वानप्रस्थी जटायु जी सीता जी के हार्न के बाद श्रीराम जी व श्री लक्ष्मण जी को कहते है- जिसे तुम वन मे बूटी की तरह खोज रहे हो वह सीता रावण द्वारा हर ली गई है। 
इससे पता चलता है कि प्राचीन समय मे वनो मे से जड़ी बूटी ढूंढ कर लाने कि परम्परा थी।
अब बात करते हैं मांसाहार की –
1-
सुश्रुत संहिता सूत्र स्थान अध्याय 2 मे महर्षि अपने शिष्य को जनेऊ देते समय उपदेश देते है- 
ब्राह्मण, गुरु, दरिद्र, मित्र, सन्यासी, पास मे नम्रता पूर्वक आए, सज्जन, अनाथ, दूर से आए सज्जनों की चिकित्सा स्वजनों (अपने परिवार के सदस्य) की भांति अपनी औषधियों से करनी चाहिए। यह करना साधु (श्रेष्ठ ) है। 
व्याध (शिकारी/ कसाई ), चिड़िमार, पतित (नीच आचरण वाला) पाप करने वालो की चिकित्सा धन का लाभ होने पर भी नहीं करनी चाहिए। 
ऐसा करने से विद्या सफल होती है, मित्र, यश, धर्म, अर्थ और काम की प्राप्ति होती है। ऐसा ही विवरण चरक संहिता मे मिलता है। 
यहाँ पर व्याध कि चिकित्सा से ही माना किया गया है तो फिर पशुओं को मारने का प्रश्न नहीं होता। 
2-
आयुर्वेद मे महर्षि धन्वन्तरी कि सुश्रुत संहिता मे शल्य चिकित्सा (सर्जरी) का वर्णन है। 
वहाँ पर सर्जरी का अभ्यास करवाने के लिए महर्षि उपदेश देते है – शिष्य को *कूष्माण्ड (कद्दू)* पर *खीरे *पर एरण्ड नाल* पर *कमलनाल* पर *कपड़े व तिनके* पर प्रारम्भिक अभ्यास करवाए। जब इसमे निपुण हो जाए तो शव पर अभ्यास करवाए। 
यदि आयुर्वेद के ऋषि मांस खाने का के पक्ष मे होते तो वह बहुत आसानी से कह देते पशुओं को पक्षियो को चूहो व खरगोशो को काट कर शल्य चिकित्सा का अभ्यास करो जैसा आज के मेडिकल कोलिज मे होता है। 
3-
आयुर्वेद मे औषधियों के परीक्षण के लिए भी पशुओं का प्रयोग नहीं किया गया है। बवासीर, रसौली आदि की चिकित्सा के लिए एक टिकसन औषधि क्षार का प्रयोग मिलता है। उसकी तेजी को जाँचने के लिए उसे कमलनाल पर प्रयोग करके देखने को कहा गया है । 
4
चरक संहिता व सुश्रुत संहिता मे कहीं भी “कस्तूरी (Musk)” का प्रयोग नहीं किया गया है क्योंकि कस्तुरी के लिए हिरण को मारना पड़ता है।
जो जानकारी मेरे पास थी वह मैंने सार्वजनिक की आगे पाठको के विवेक पर ।