Thursday, June 26, 2014

सोम रस ओर शराब


कई पश्चमी विद्वानों की तरह भारतीय विद्वानों की ये आम धारणा है ,कि सोम रस एक तरह का नशीला पदार्थ होता है । ऐसी ही धारणा डॉ.अम्बेडकर की भी थी ,,डॉ.अम्बेडकर अपनी पुस्तक रेवोलुशन एंड काउंटर  रेवोलुशन इन असिएन्त इंडिया मे निम्न कथन लिखते है:-
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यहाँ अम्बेडकर जी सोम को वाइन कहते है ।लेकिन शायद वह वेदों मे सोम का अर्थ समझ नही पाए,या फिर पौराणिक इन्द्र ओर सोम की कहानियो के चक्कर मे सोम को शराब समझ बेठे ।सोम का वैदिक वांग्मय मे काफी विशाल अर्थ है ,
सोम को शराब समझने वालो को शतपत के निम्न कथन पर द्रष्टि डालनी चाहिए जो की शराब ओर सोम पर अंतर को स्पष्ट करता है :-शतपत (5:12 ) मे आया है :-सोम अमृत है ओर सूरा (शराब) विष है ..ऋग्वेद मे आया है :-” हृत्सु पीतासो मुध्यन्ते दुर्मदासो न सुरायाम् ।।अर्थात सुरापान करने या नशीला पदार्थ पीने वाला अक्सर उत्पाद मचाते है ,जबकि सोम के लिए ऐसा नही कहा है ।वास्तव मे सोम ओर शराब मे उतना ही अंतर है जितना की डालडा या गाय के घी मे होता है ,,
निरुक्त शास्त्र मे आया है ”  औषधि: सोम सुनोते: पदेनमभिशुण्वन्ति(निरूकित११-२-२)” अर्थात सोम एक औषधि है ,जिसको कूट पीस कर इसका रस निकलते है । लेकिन फिर भी सोम को केवल औषधि या कोई लता विशेष समझना इसके अर्थ को पंगु बना देता है ।
सोम का अर्थ बहुत व्यापक है जिसमे से कुछ यहाँ बताने का प्रयास किया है :-कौषितिकी ब्राह्मणों उपनिषद् मे सोम रस का अर्थ चंद्रमा का रस अर्थात चंद्रमा से आने वाला शीतल प्रकाश जिसे पाकर औषधीया पुष्ट होती है किया है ।
शतपत मे ऐश्वर्य को सोम कहा है -”श्री वै सोम “(श॰4/1/39) अर्थात ऐश्वर्य सोम है ।
शतपत मे ही अन्न को भी सोम कहा है -” अन्नं वै सोमः “(श ॰ 2/9/18) अर्थात इस अन्न के पाचन से जो शक्ति उत्पन्न होती है वो सोम है । कोषितिकी मे भी यही कहा है :-”अन्न सोमः”(कौषितिकी9/6)
ब्रह्मचर्य पालन द्वारा वीर्य रक्षा से उत्पन्न तेज को सोम कहा है .शतपत मे आया है :-”रेतो वै सोमः”(श ॰ 1/9/2/6)अर्थात ब्रहमचर्य से उत्पन्न तेज (रेत) सोम है .कौषितिकी मे भी यही लिखा है :-”रेतः सोम “(कौ॰13/7)
वेदों के शब्दकोष निघुंट मे सोम के अंनेक पर्यायवाची मे एक वाक् है ,वाक् श्रृष्टि रचना के लिए ईश्वर द्वारा किया गया नाद या ब्रह्मनाद था ..अर्थात सोम रस का अर्थ प्रणव या उद्गीत की उपासना करना हुआ ।
वेदों ओर वैदिक शास्त्रों मे सोम को ईश्वरीय उपासना के रूप मे बताया है ,जिनमे कुछ कथन यहाँ उद्रत किये है :-तैतरिय उपनिषद् मे ईश्वरीय उपासना को सोम बताया है ,ऋग्वेद (10/85/3) मे आया है :-”  सोमं मन्यते पपिवान्सत्सम्पिषन्त्योषधिम्|सोमं यं ब्राह्मणो विदुर्न तस्याश्राति कश्चन||” अर्थात पान करने वाला सोम उसी को मानता है ,जो औषधि को पीसते ओर कूटते है ,उसका रस पान करते है ,परन्तु जिस सोम को ब्रह्म ,वेद को जानने वाले ,वब्रह्मचारी लोग जानते है ,उसको मुख द्वारा कोई खा नही सकता है ,उस अध्यात्मय सोम को तेज ,दीर्घ आयु ,ओर आन्नद को वे स्वयं ही आनन्द ,पुत्र,अमृत रूप मे प्राप्त करते है ।
ऋग्वेद (8/48/3)मे आया है :-”   अपाम सोमममृता अभूमागन्मु ज्योतिरविदाम् देवान्|कि नूनमस्कान्कृणवदराति: किमु धृर्तिरमृत मर्त्यस्य।।” अर्थात हमने सोमपान कर लिया है ,हम अमृत हो गये है ,हमने दिव्य ज्योति को पा लिया है ,अब कोई शत्रु हमारा क्या करेगा ।
ऋग्वेद(8/92/6) मे आया है :-”  अस्य पीत्वा मदानां देवो देवस्यौजसा विश्वाभि भुवना भुवति” अर्थात परमात्मा के संबध मे सोम का पान कर के साधक की आत्मा ओज पराक्रम युक्त हो जाती है,वह सांसारिक द्वंदों से ऊपर उठ जाता है ।
गौपथ मे सोम को वेद ज्ञान बताया है :-  गोपथ*(पू.२/९) वेदानां दुह्म भृग्वंगिरस:सोमपान मन्यन्ते| सोमात्मकोयं वेद:|तद्प्येतद् ऋचोकं सोम मन्यते पपिवान इति|वेदो से प्राप्त करने योग्य ज्ञान को विद्वान भृगु या तपस्वी वेदवाणी के धारक ज्ञानी अंगिरस जन सोमपान करना जानते है|वेद ही सोम रूप है|
सोम का एक विस्तृत अर्थ ऋग्वेद के निम्न मन्त्र मे आता है :-”   अयं स यो वरिमाणं पृथिव्या वर्ष्माणं दिवो अकृणोदयं स:|अयं पीयूषं तिसृपु प्रवत्सु सोमो दाधारोर्वन्तरिक्षम”(ऋग्वेद 6/47/4) अर्थात व्यापक सोमका वर्णन ,वह सोम सबका उत्पादक,सबका प्रेरक पदार्थ व् बल है ,जो पृथ्वी को श्रेष्ट बनाता है ,जो सूर्य आकाश एवम् समस्त लोको को नियंत्रण मे करने वाला है ,ये विशाल अन्तरिक्ष मे जल एवम् वायु तत्व को धारण किये है ।
अतः उपरोक्त कथनों से स्पष्ट है की सोम का व्यापक अर्थ है उसे केवल शराब या लता बताना सोम के अर्थ को पंगु करना है ।चुकि डॉ अम्बेडकर अंगेरजी भाष्य कारो के आधार पर अपना कथन उदृत करते है,तो ऐसी गलती होना स्वाभिक है जैसे कि वह कहते है “यदि यह कहा जाये कि मै संस्कृत का पंडित नही हु ,तो मै मानने को तैयार हु।परन्तु संस्कृत का पंडित नही होने से मै इस विषय मे लिख क्यूँ नही सकता हु ? संस्कृत का बहुत थोडा अंश जो अंग्रेजी भाषा मे उपलब्ध नही है ,इसलिए संस्कृत न जानना मुझे इस विषय पर लिखने से अनधिकारी नही ठहरया जा सकता है ,अंग्रेजी अनुवादों के १५ साल अध्ययन करने के बाद मुझे ये अधिकार प्राप्त है ,(शुद्रो की खोज प्राक्कथ पृ॰ २)
मह्रिषी मनु बनाम अम्बेडकर के पेज न 198 व् 202 पर सुरेन्द्र कुमार जी अम्बेडकर का निम्नकथन उदृत करते है -”हिन्दू धर्म शास्त्र का मै अधिकारी ज्ञाता नही हू …
अतः स्पष्ट है की अंग्रेजी टीकाओ के चलते अम्बेडकर जी ने ऐसा लिखा हो लेकिन वो आर्य समाज से भी प्रभावित थे जिसके फल स्वरूप वो कई वर्षो तक नमस्ते शब्द का भी प्रयोग करते रहे थे ,,लेकिन फिर भी अंग्रेजी भाष्य से पुस्तके लिखना चिंता का विषय है की उन्होंने ऐसा क्यूँ किया ।
लेकिन अम्बेडकर जी के अलावा अन्य भारतीय विद्वानों ओर वैदिक विद्वानों द्वारा सोम को लता या नशीला पैय बताना इस बात का बोधक है कि अंग्रेजो की मानसिक गुलामी अभी भी हावी है जो हमे उस बारे मे विस्तृत अनुसंधान नही करने देती है |....
संधर्भित पुस्तके एवम ग्रन्थ :-
(१) ऋग्वेद -पंडित जयदेव शर्मा भाष्य
(२) बोलो किधर जाओगे -आचार्य अग्निव्रत नैष्टिक
(३) शतपत ओर कौषितिकी
(४)revoulation and counterrevoulation in acientindia by dr.ambedkar

Sunday, June 22, 2014

क्या चार्वाक दलित क्रांतिकारी थे ...

चार्वाक जिन्हें देख हम सब नास्तिक की छवि बना लेते है ,खेर चार्वाक नास्तिक अनीश्वर वादी थे ,,,लेकिन वो पहले से ही ऐसे थे या बाद मे ऐसे हुए कुछ कहा नहीं जा सकता है ,,,लेकिन आज कल एक हवा उड़ाई जा रही है कि चार्वाक मूलनिवासी आन्दोलन कारी थे ,,,इसका कारण है की दलितों ने जो भी वेदविरोधी देखा उसे मूलनिवासी क्रांतिकारी बना दिया चाहे कोई भी हो ,,,
अब हम चार्वाक के बारे मे कुछ जानेंगे ...चार्वाक असल मे ब्राह्मण वाद का विरोधी था लेकिन उनके दर्शन मे छुआछूत या वर्ण व्यवस्था के विरोध मे कुछ नही मिलता है तो चार्वाक को मूलनिवासी क्रांतिकारी नही कह सकते है ...हाँ पाखंड विरोधी कहा जा सकता है लेकिन चार्वाक की कुछ शिक्षाए पर नजर डालते है ...

चार्वाक का अनीश्वरवाद :-

जैसा की बताया है की चार्वाक ब्राह्मण विरोधी थे तो ब्राह्मणों के ईश्वर वाद का उन्होंने खंडन किया ओर राजा को ही ईश्वर कहा :-
"लोक सिध्दो राजा परमेश्वर:" 
राजा ही परमैश्वर है|

चार्वाक का अनात्मवाद :-

चार्वाक ने ब्राह्मणओ के द्वारा आत्मा की सत्ता के सिधान्त का खंडन किया अर्थात ब्राह्मण आत्मा को मानते है तो चार्वाक ने मानने से इंकार कर दिया :-
"तत् चैतन्यविशिष्टदेह एवात्म् देहातिरिक्त आत्मानि प्रमाणाभावात् प्रत्यक्षैकप्रमाणवादितया अनुमानदेरनड्गीकारेण प्रामाण्याभावात्||
चैतेन्यविशिष्ट देह ही आत्मा है,देह के अतिरिक्त आत्मा के होने मे कोई प्रमाण नही जिनलोगो के मत मे केवल एकमात्र प्रत्यक्ष ही प्रमाणरूप मे परिणत होता है अनुमानादि प्रमाण मे परिमाणित नही होता उ लोगो के मत मे देह के अतिरिक्त आत्मा मानने मे दुसरा कोई प्रमाण नही है|

चार्वाक द्वारा 4 भूतो को ही मानना :-

ब्राह्मण आदि 5 महाभूतो को मानते थे लेकिन चार्वाक ने इससे इंकार किया ओर केवल 4 भूत माने :-
तदेतत् सर्व्व समग्राहि" अत्र चत्वारि भूतानि स्यापवलानिला:||
इस जगत मे भूमि ,जल,अग्नि,वायु चार ही भूत है|

चार्वाक द्वारा पुनर्जनम को अमान्य बताना:-

ब्राहमणओ के पुनर्जनम के सिधान्त को चार्वाक ने गलत बताया :-
  भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुत:इति|| 
देह जलने पर किसी प्रकार का पुनरागमन नही हो सकता है|

चार्वाक द्वारा वेदों का विरोध :-

चार्वाक ने अपने ब्राह्मण विरोध के चलते वेदों का भी विरोध किया :-
"त्रयो वेदस्य कर्तारो भण्डधूर्तनिशाचरा:| जर्फरीतुर्फरीत्यादि पण्डितानां वच: स्मृतम्||
भंड,धूर्त,निशाचर ये लोग वेद के कर्ता है| जर्फरी तुर्फरी इत्यादि वाक्यो से वेद भरा है|
अब ये पता नही की चार्वाक को जाफरी तुर्फरी शब्द कोनसे वेद मे दिखे ,,खेर ब्राह्मण विरोध के चलते सब कुछ का विरोध करना शुरू कर दिया था ...

चार्वाक द्वारा पशु बलि ,श्राद्ध आदि का विरोध :-

चार्वाक ने पशु बलि ओर पाखंड का विरोध किया जिसे हम सही कहते है लेकिन इसका कारण ब्राह्मण वाद के विरोध की वजह से हुआ ,,जिसे आगे बताया जायेगा :-
पशुश्र्चेत्रित: स्वर्ग ज्योतिष्टोमे गमिष्यति| स्वपिता यजमानेन तत्र कस्मान्न हिंस्यते||
तुम लोग कहते हो जो ज्योतिष्टोमादि यज्ञ मे जिस पशु का वध किया जाता है वह स्वर्ग मे जाता है,तो तुम अपने पिता की बलि क्यु नही देते ऐसा करने से वह भी स्वर्ग मे जा सकता है|
"अग्निहोत्र त्रयो वेदास्त्रिदण्डं भस्मगुंठनम्| बुध्दिपौरुषहीनानां जीविकेति बृहस्पति:"||
त्रिवेद,यज्ञोपवीत्,भस्मलेपन ये सब बुध्दि ओर पौरूषहीन व्यक्तियो की जीविकामात्र है|

चार्वाक द्वारा संयम का विरोध ओर इन्द्रिय सुख को महत्व देना :-

चार्वाक जैसा की बताया ब्राह्मण विरोधी थे तो उन्होंने ब्राह्मणों के साथ साथ वैदिक सिधान्तो का भी विरोध किया जहा वेदों मे ब्रह्मचर्य का उपदेश है ओर इन्द्रिय सुख को दुःख का कारण बताया है ..लेकिन अपने ब्राह्मणवाद मे अंधे हुए चार्वाक ने इनका भी विरोध किया :-
अंगनालिकानादिजन्यं सुखमेव पुरूषार्थ:| न चास्य दुखसंभित्रतया पुरूषार्थत्वमेव नास्तीति मन्तव्यम्|अवर्ज्जनीयतया प्राप्तस्य दुखस्य परिहारेण सुखमात्रस्यैव भौक्तव्यत्वात् | तद्यथा मत्स्यार्थी सशल्कान् सकण्टकान् मत्स्यानुपादत्ते स यावदादेयं तावदादाय निवर्तते| यथा वा धान्यार्थी सपलालानि धन्यान्याहरित सयावदादेंय तावदादाय निवर्तेते|नहि मृगा: सन्तीति शालयो नोप्यन्ते नहि भिक्षुका: सन्तीति स्थाल्यो नाधिश्रीयन्ते यदि कश्चिद् भीरूदृष्टं सुखम् त्यजेत् तर्हि स पशुवन्मूर्खो भवेत्||"
कामिनीसंगजनित सुखही पुरूषार्थ है| स्त्रीसंगजनित सुखमे दु:खसम्पर्क है (यदि ऐसा) कहकर इसको पुरूषार्थ न कहे तो इसको नही मान सकते चाहे युवती के संसर्ग मे दुख हो तथापि उस दुख को छोड कर केवल सुख ही का भोग करना चाहिए|जिस प्रकार मछलीखाने वाले लोग छिलका ओर काटा निकली हुई मछली के छिलका ओर कांटे का परित्याग कर मास भाग ही ग्रहण करते है| तृणयुक्त धान्य मे से तृण परित्यागकर केवल सारभाग धान्य ग्रहण करते है,उसी प्रकार स्त्री संग मे दुख होने पर उस दुख का परित्यागकर सुख भौगा जा सकता है|इस लिए दुख के भय से सुख का परित्याग नही करना चाहिए| जिस देश मे मृग होते है क्या वहा धान नही बोए जाते है| एवं भिक्षुकभय से चूल्हे पर हांडी नही चढाई जाती?यदि कोई भीरू व्यक्ति इसप्रकार दुष्टमुख छोडे तो उसको पशुतुल्य मूर्खभिन्न ओर क्या कहा जाएगा
" यावज्जीवेत सुखं जीवेद्दणं कृत्वा घृतं पिवेत्| " भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुत:||
जब तक जियो सुख से जियो कर्जा लेकर भी घी पियो क्यु की मृत्यु के बाद पुनर्जन्म किसने देखा है
यदि उपरोक्त कथन देखे तो चार्वाक ब्राह्मणवाद के विरोधी थे ,,लेकिन उन्हें दलित क्रांतिकारी नही कह सकते है ,,क्यूँ की ब्राह्मण क्षत्रिय ,ब्राहमण वेश्यो मे भी विरोध चलता रहा है ,,शायद चार्वाक क्षत्रिय हो क्यूँ की उन्होंने अश्वमेध की गलत परम्परा का भी विरोध किया था देखे :-
"अश्वस्यात्र हि शिश्नं तु पत्नीग्राह्मं प्रकीर्त्तितम्| भण्डेस्तद्वत्परं चैव ग्राहजातं प्रकीर्त्तितम्|
अश्वमेध यज्ञ मे यचमान की पत्नि घोडे का शिश्न ग्रहण करे इत्यादि भंड रचित है|
अब यहाँ हम स्पष्ट नही कह सकते की चार्वाक कोन थे लेकिन वो ब्राह्मणवाद के विरोधी थे ये कह सकते है ..लेकिन दलित क्रांतिकारी कहना गलत है ...क्यूँ की चार्वाक दर्शन मे छुआछूत का विरोध नही दीखता है ...इसके अलावा चार्वाक ने राजा को ईश्वर बताया है मतलब जैसे ईश्वर को मानते है वेसे राजा को मानो अब यहाँ सोचने वाली बात है की क्या राजा लोग दलितों पर अत्याचार नही करते थे ...यदि चार्वाक दलित क्रांतिकारी होते तो राजा आदि का भी विरोध करते ,,,लेकिन ऐसा नही है जबकि क्षत्रिय तो सुवर्ण मे ही आते है ,,जिन्हें चार्वाक ने ईश्वर ही बताया ........

संधर्भित पुस्तके :- (१) चार्वाक दर्शन 

Saturday, June 21, 2014

रूद्र का वाहन वृषभ (Rudra's vehicle the bull (nandi) )

मित्रो अकसर सुना करते है कि नन्दी अर्थात  वृषभ  रूद्र (शिव) का वाहन है ये बात पौराणिक के द्वारा बनाई गयी है ,,लेकिन इसका एक अन्य अर्थ भी आता है ,,
जिसके बारे मे हम थोडा विशलेषण करेगे:-
 
वास्तव मे रूद्र के कई अर्थ है जैसे अग्नि ,रोग जंतु ,विद्युत् इत्यादि असल मे रूद्र उन सबको कह सकते है जिनसे प्राणी को पीड़ा पहुचे ,,इसी तरह विद्युत् को भी रूद्र कह सकते है क्यूँ की जब किसी पर बिजली गिरती है या कोई बिजली का झटका झेलता है तो उसे दुःख होता है या पीड़ा पहुचती है इस कारण विद्युत् को रूद्र कह सकते है ...इसके अलावा वेद ओर निरुक्त मे रूद्र को विद्युत् ओर अग्नि आदि नामो से भी बुलाया है ,विद्युत् अग्नि का ही एक रूप है ...

विद्युत् रूप रूद्र :-                                                                                                  

ऋग्वेद ७/४६/३ मे रूद्र को विद्युत् का देवता बताया है :-
है रूद्र ,तुम्हारी जो अन्तरिक्ष मे दूर फेंकी हुई बिजली है ओर जो प्रथ्वी पर विचरण कर रही है ,,वह हमें छोड़ दे ,हमारी हिंसा न करे ,है सोये हुए प्राणियों को जगाने वाले (गर्जन से ) रूद्र : तुम्हारे जो सह्श्त्र  औषध है वो हमें प्राप्त हो ,है रूद्र हमारे पुत्रो की हिंसा मत करो ।
यहाँ विद्युत् का देव रूद्र है अत: विद्युत् रूद्र का वाचक है ।                                                                        
अब एक अन्य मन्त्र भी देखे :-                                                                                                                  
 
यजु के इस १६/६२ मे कहा है :-" जो रूद्र अन्नो के ऊपर पात्रो पर गिर कर खाने पीने वाले प्राणियों का ताडन करते है उनके धनुषो को हमसे सहस्त्र योजन दूर फेंक ।                                                                             
यहा रूद्र को गिरने वाला कहा है ओर उसके धनुष को सहस्त्र योजन दूर गिरने को या उससे दूर रहने को कहा है ,यदि यहाँ रूद्र पौराणिक शिव होते तो उनके अस्त्रों से रक्षा की प्राथना की जाती लेकिन उपरोक्त दोनों मंत्रो मे रूद्र के शस्त्रों से दूर रहने ओर रूद्र से हिंसा न करने की प्राथना है ,अत: रूद्र विद्युत् ही है ।
 वृह्देवता मे रूद्र को विद्युत् कहा है :-                                                                                                          
"अरोदीइन्तरिक्षे यद्विद्युत वृष्टि ददत्रृणाम् ।
                                                  चतुर्भिऋफिभिस्तेन रूद्रा इत्याभि सस्तुत ।।"  (१२/३५)                                
जिस कारण अन्तरिक्ष मे यह विद्युत् देव रोता है ,ओर मनुष्यों के हितार्थ वर्ष्टि करता है इस लिए इसे रूद्र कहते है ।                                                                                                                                                
अत: रूद्र का अर्थ विद्युत् स्पष्ट होता है ....                                                                                                  

 मेघ रूप  वृषभ :-                                                                                                        

निरुक्त मे यास्क मुनि जी ने  वृषभ  को वर्षा कारने वाला या जिससे वर्षा होती है उसे  वृषभ  कहा है :
 
यहाँ  वृषभ   को वर्षा कराने वाला कहा है ओर प्रथ्वी पर  वृष्टि मेघ करते है अतः  वृषभ  को मेघ कह सकते है ।                                                                                                                                                                
एक अन्य जगह निरुक्त मे आया है " तद  वृषकर्मा  वर्षणादवृषभ: "(९/२२) अर्थात जो वर्षा के कर्मवाला या बरसने वाला से  वृषभ  है ,,,अत: यहाँ  वृषभ  मेघ को कहा है ।                                                                    

निष्कर्ष:-

 
उपरोक्त दोनों बातो से हम निम्न निष्कर्ष पर पहुचे :-                                                                                    
(१) रूद्र =विद्युत्                                                                                                                                     
(२)   वृषभ  =मेघ                                                                                                                                     
अर्थात रूद्र की सवारी  वृषभ  होने का अर्थ है मेघ पर विद्युत जो की आकाश मे देखी जा सकती है यही रूद्र के वाहन  वृषभ  का वास्तविक अर्थ है .....                                                                                                       
हालांकि बाद मे शिव नामक पोराणिक देव को रूद्र ओर उनके वाहन को  वृषभ  (नन्दी) रूप मे मूर्ति या चित्र रूप मे दर्शाना शुरू हो गया जैसे की बाद मे पुराणों मे वृत्र ओर इन्द्र की (मेघ ओर सूर्य) कथा बन गयी ओर अहिल्या ओर इन्द्र (सूर्य ओर रात्रि ) की कथा बना ली गयी ।                                             

संधर्भित पुस्तके एवम् ग्रन्थ :-(१) त्रिदेव निर्णय 

                         (२)ऋग्वेद 

                           (३) यजुर्वेद 

                                                                                      (4) निरुक्त :यास्क                                                               

  

Friday, June 20, 2014

क्या रूद्र मूल निवासी अनार्य राजा थे ...

अम्बेडकरवादी दावा-


कुछ दिन पहले एक अम्बेडकर वादी पेज पर एक चित्र देखा जिसमे लिखा था "रुद्रा द चमार "ओर रूद्र को मूलनिवासी राजा लिखा था ...ओर आर्यों (विदेशी ब्राह्मणों ) को सताने वाला लिखा था ..क्यूँ की वेदों मे कई मन्त्र रूद्र से अहिंसा की प्राथना को लेकर है ..इन्होने हडप्पा की एक सील को रूद्र बताया ओर आर्यों को विदेशी जो कि मूलनिवासियो पर अत्याचार करते थे ...

दावे का विश्लेषण :-

आर्यों के विदेशी होने की बात तो स्वयं इनके अम्बेडकर जी नकारते है लेकिन फिर भी राजनेतिक रोटिया जो सेकनी है। अब ऋग्वेद का ये मन्त्र देखे :
" नकिर्देवा मिनीमसि नकिरा योपयामसि मंत्रश्रुत्य चरामसि ।
पक्षेभिरपि कक्षभि सरभामहे।।ऋ॰ १०/१३४/७।।"
न तो हम हिंसा करते है ,न ही घात पात करते है ओर न ही फूट डालते है ,वरन मन्त्र के श्रवण अनुसार आचरण करते है,तिनको के सामान तुच्छ साथियो से भी एक होकर एक मत होकर ,मिल जुल कर प्रेम पूर्वक कार्य करते है ।
इस मन्त्र मे स्पष्ट कहा है कि हम अहिंसक है,किसी पर अत्याचार नही करते तो फिर ऐसे मे अत्याचारी बताना मात्र गोल गप्प है। हां लेकिन दुष्ट ओर हिंसक प्राणी को दण्डित करने का उपदेश आपको वेदों मे मिल जायेंगे।
रूद्र के सम्बन्ध मे एक प्राथना आती है :-
" है रूद्र हमारे बड़ो को ,छोटो को तथा वीर्य सिंचित मे समर्थ युवा को मत मार,हमारे माता पिता को मत मार ओर प्रिय शरीरो ओर शिशुओ की हिंसा मतकर "(ऋग्वेद १/११४/७)
इसी तरह अगले मन्त्र मे भी प्राथना है ।
यहाँ रूद्र को देख ये लोग एक मूलनिवासी राजा की काल्पनिक छवि बना लेते है ओर आर्यों को विदेशी बना देते है,जबकि यहाँ वास्तविक अर्थ कुछ अन्य ही है :-
वेदों मे चिकित्सा विज्ञानं है जिसमे विभिन्न तरह के रोगाणुओ कृमियो का भी उलेख है,जो निम्न प्रकार है :-
" अन्वान्त्र्यं शीर्षण्यमथो पाष्ठेयं क्रिमीन ।
अव्यस्कवं व्यध्वरं क्रिमीन वचसा जेभयमसि ।।अर्थ॰२/३१/४।।"
आंतो मे ,मस्तक मे ,पसलियों मे जाने वाले, व्यधर तथा अवयस्क क्रीमी होते है,इनका हम नाश करते है इनका निम्न प्रकार का वर्णन भी है :-
" दृष्टमद्दष्टमतृहमथो कुरुरुमतृहम् ।
अल्गण्डूकन्त्सर्वान् छलुनान् कृमीन वचसा जैभयामसि ।।अर्थ॰२/३/२१।।"
इस मन्त्र मे द्रश्य तथा अद्रश्य कुरुक ,अल्गणुक,तथा शलुन नाम के रोग जन्तुओ का नाम है ,
इसके आलावा एक ओर क्रिमी का उलेख है जिसे रूद्र कहा है ,
" ये अश्रेषु विविध्यंति पात्रेषु पिक्तो जनान् ।।यजु ।।"
यह रूद्र संज्ञक जंतु अन्न,पानी के द्वारा शरीर मे पहुच कर विभिन्न रोग उत्पन्न करते है :-
इन जीवो को रूद्र नाम क्यूँ दिया इसके लिए निरुक्त मे आया है " यदरोदीत्तद्रुद्रस्य"(निरुक्त १०;५)"
रुलाता है से रूद्र है ।
चुकि रोग फैला कर ये रोगी ओर उसके परिजनों को कष्ट पंहुचा कर दुखी करते है या रुलाते है इसी कारण इन्हें रूद्र कहा है ।
इनका निवास भी बताया है अर्थात ये कहा पाए जाते है :-
" नमो रुद्रेभ्यो ये पृथिव्यां ये अन्तरिक्षे मे दिवि ।
येषामन्नं वातो वर्षमिषवः ।।यजु॰ ।।"
रुद्रो के लिए नमन :जो प्रथ्वी, अन्तरिक्ष ,आकाश ,मे रहते है तथा वायु जिनका अन्न है तथा वृष्टि जिनका घर है ।अर्थात यहाँ इन रोग जन्तुओ का सर्वत्र होने का भी प्रमाण मिलता है ।
अतः यहाँ स्पष्ट है की उपरोक्त मन्त्र मे जो रूद्र से प्राथना की है वो वास्तव मे रोगाणुओ के लिए है न कि किसी राजा या किसी व्यक्ति के लिए।क्यूँ की रोग जंतु ही पशुओ ,बालको ,स्त्री ,पुरुष सब मे रोग फैला कर हिंसा करते है अतः यहाँ रोगाणु से बचने ओर स्वस्थ जीवन की प्राथना है ।
अतः वेदों मे आये इस रूद्र के वर्णन से राजा या मनुष्य समझना मुर्खता ओर कोरी कल्पना है ।

रूद्र पर पौराणिक विवेचन :-

               

अब हम पौराणिक देव शिव को देखते है ,लेकिन उससे पहले हम इनका धन्यवाद देते है कि इन्होने इस शील को रूद्र नाम दिया जो की सही है क्यूँकी इस शील मे योगी के ३ या 4 सिर है ,जो कि मेवाड़ के एक लिंग जी से मिलता जुलता सा है । 

 
लेकिन कुछ इसे प्रथम बुद्ध बताते है जबकि बुद्ध के चार सिर नही थे ओर न ही किसी किसी बोद्ध प्रतिमा के ,दूसरा ये लोग कहते है की इसके निचे धम्म चक्र है जो की इस चित्र मे देखने पर नजर नहीं आता है ,हा कुछ शीलो पर चक्र है लेकिन यहाँ हम पूछना चाहते है कि क्या धम्म चक्र मे पहले 4 या 6 आरे होते थे ।
तो कुछ इसे आदिनाथ बताते है जो की काफी हास्यापद है ,इस मोहर के रूद्र या शिव होने की सम्भावना एक प्रकार से ओर बड जाती है वो है लिंग पूजन से ,हडप्पा वासी भी आज की तरह लिंग पूजन करते थे कुछ रेखा चित्र यहाँ देखे :-lingam yoni indus   
अब पौराणिक देव शिव को देखते है ,पुराणों के अनुसार वे शत्रुओ को ओर दुष्टो को मारते थे जो की राक्षक ही होते थे ..जैसे की तारकासुर,जलंधर,अन्धक आदि ।चुकि ये दुष्टो को रुलाते थे इस कारण इन्हें भी रूद्र नाम दिया गया । इनका दक्ष को छोड़ किसी से बेर नही था ,वो भी दक्ष द्वारा अपमान किये जाने के कारण ।
अतः यहाँ स्पष्ट है की रूद्र के बारे मे ,हडप्पा के बारे मे मात्र इनकी कोरी कल्पना ही है ओर ये रोज रोज नयी नयी कल्पनाएँ बनाते रहते है न तो रूद्र आर्य विरोधी थे न वै स्वयं अनार्य थे । क्यूँ की आर्य कोई जाती नही बल्कि आर्य का अर्थ है श्रेष्ट कर्म करने वाला ।                                                                                     
इसके अलावा निघुंट मे रूद्र को विद्युत,अग्नि,इन्द्र,प्रजापति अन्य नामो से भी बुलाया है कुछ यहाँ देखे :-

 

सन्दर्भित पुस्तके :- (१) निरुक्त 

(२) ऋग्वेद मे आचार सामग्री -सत्यप्रिय शास्त्री 

(३) वेद मे रोग जंतु -श्री. दा. सातवलेकर 

(४ ) स्वाध्याय संदोह - बे.शा. स्वामी वेदानन्द सरस्वती 

(५ ) निघुंट 

संदर्भित साईट :- (१) http://prachinsabyata.blogspot.in/2013_08_01_archive.html

(२) http://tamilandvedas.com/2013/07/26/sex-worship-in-indus-valley/

                


   
                                                                  
          

Wednesday, June 11, 2014

यम यमी संवाद पर एक नजर

ऋग्वेद के दशवे मंडल के दशवे सूक्त १०|१० में यम
यमी शब्द आये हैं | जिसके मुर्ख मनुष्य अनर्गल
व्याख्या करते हैं | उसके अनुसार यम
तथा यमी विवस्वान् के पुत्र-पुत्री हैं
और वे एकांत में होते हैं, वहा यमी यम से
सहवास कि इच्छा प्रकट करती हैं |
यमी अनेक तर्क देती किन्तु यम उसके
प्रस्ताव को निषेध कर देता |
तो यमी कहती मेरे साथ तो तु ना कहे
रहा पर किसी अन्य तेरे साथ ऐसे
लिपटेगी जैसे वृक्ष से बेल, इत्यादि |
इस प्रकार के अर्थ दिखा के वेद निंदक नास्तिक वेद को व
आर्यो के प्रति दुष्प्रचार करते हैं | आर्यो का जीवन
सदैव मर्यादित रहा हैं, क्यों के वे वेद में वर्णित ईश्वर
कि आज्ञा का सदैव पालन करते रहे हैं | यहाँ तो यह
मिथ्या प्रचार किया जा रहा अल्पबुद्धि अनार्यों द्वारा के वेद पिता-
पुत्री, भाई-बहन के अवैध संबंधो कि शिक्षा देते
और वैदिक काल में इसका पालन होता रहा है |
वेदों के भाष्य के लिए वेदांगों का पालन करना होता हैं, निरुक्त ६
वेदांगों में से एक हैं | निघंटु के भाष्य निरुक्त में यस्कराचार्य
क्या कहते हैं यह देखना अति आवश्यक होता हैं व्याकरण
के नियमों के पालन के साथ-२ ही | व्याकरण
भी ६ वेदांगों में से एक हैं |* राथ यम-
यमी को भाई बहन मानते और
मनावजाती का आदि युगल किन्तु मोक्ष मुलर (प्रचलित
नाम मैक्स मुलर) तक ने इसका खंडन किया क्यों के उन्हें
भी वेद में इसका प्रमाण नहीं मिल पाया |
हिब्रू विचार में आदम और ईव मानव जाती में के
आदि माता-पिता माने जाते हैं | ये विचार ईसाईयों और मुसलमानों में
यथावत मान्य हैं | उनकी सर्वमान्य मान्यता के
अनुसार दुनिया भाई बहन के जोड़े से हि शुरू हुई | अल्लाह
(या जो भी वे नाम या चरित्र मानते हैं) उसने
दुनिया को प्रारंभ करने के लिए भाई को बहन पर चढ़ाया और
वो सही भी माना जाता और फिर उसने
आगे सगे भाई-बहनो का निषेध
किया वहा वो सही हैं | ये वे मतांध लोग हैं
जो अपने मत में प्रचलित हर मान्यता को सत्य मानते हैं और
दूसरे में अमान्य असत्य बात को सत्य सिद्ध करने पर लगे रहते
हैं | ये लोग वेदों के अनर्गल अर्थो का प्रचार करने में लगे
रहते हैं |
स्कन्द स्वामी निरुक्त भाष्य में यम
यमी कि २ प्रकार व्याख्या करते हैं |
१.नित्यपक्षे तु यम आदित्यो यम्यपि रात्रिः |५|२|
२.यदा नैरुक्तपक्षे
मध्यमस्थाना यमी तदा मध्यमस्थानों यमो वायुवैघुतो वा वर्षाकाले
व्यतीते तामाह | प्रागस्माद् वर्षकाले अष्टौ मासान्-
अन्यमुषू त्वमित्यादी | |११|५
आपने आदित्य को यम
तथा रात्री को यमी माना हैं
अथवा माध्यमिक
मेघवाणी यमी तथा माध्यमस्थानीय
वायु या वैधुताग्नी यम हैं | शतपथ ब्राहमण में
अग्नि तथा पृथ्वी को यम-यमी कहा हैं
|
सत्यव्रत राजेश अपनी पुस्तक “यम-
यमी सूक्त कि अध्यात्मिक व्याख्या” कि भूमिका में
स्पष्ट लिखते हैं के यम-यमी का परस्पर सम्बन्ध
पति-पत्नी हो सकता हैं भाई बहन
कदापि नहीं क्यों के यम पद “पुंयोगदाख्यायाम्” सूत्र
से स्त्रीवाचक डिष~ प्रत्यय पति-
पत्नी भाव में ही लगेगा | सिद्धांत
कौमुदी कि बाल्मानोरमा टिका में “पुंयोग” पद
कि व्याख्या करते हुए लिखा हैं –
“अकुर्वतीमपि भर्तकृतान्** वधबंधादीन्
यथा लभते एवं तच्छब्दमपि, इति भाष्यस्वारस्येन जायापत्यात्मकस्
यैव पुंयोगस्य विवाक्षित्वात् |”
यहा टिकाकर ने भी महाभाष्य के आधार पर
पति पत्नी भाव में डिष~ प्रत्यय माना हैं | और
स्वयं सायणाचार्य ने ताण्डय्-महाब्राहमण के भाष्य में
यमी यमस्य पत्नी, लिखा हैं ,
अतः जहा पत्नी भाव विवक्षित
नहीं होगा वहा – “अजाघतष्टाप्” से टाप् प्रत्यय
लगकर यमा पद बनेगा और अर्थ होगा यम कि बहन | जैसे गोप
कि पत्नी गोपी तथा बहन
गोपा कहलाएगी.,अतः यम-यमी पति-
पत्नी हो सकते हैं, भाई बहन
कदापि नहीं | सत्यव्रत राजेश जी ने
अपनी पुस्तक में यम को पुरुष-
जीवात्मा तथा यमी को प्रकृति मान कर
इस सूक्त कि व्याख्या कि हैं |
स्वामी ब्रह्मुनी तथा चंद्रमणि पालिरात्न
ने निरुक्तभाष्य ने यम-यमी को पति-
पत्नी ही माना हैं | सत्यार्थ प्रकाश में
महर्षि दयानंद कि भी यही मान्यता हैं
|
डा० रामनाथ वेदालंकार के अनुसार – आध्यात्मिक के यम-
यमी प्राण तथा तनु (काया) होने असंभव हैं |
जो तेजस् रूप विवस्वान् तथा पृथ्वी एवं आपः रूप
सरण्यु से उत्पन्न होते हैं | ये दोनों शरीरस्थ
आत्मा के सहायक एवं पोषक होते हैं | मनुष्य कि तनु
या पार्थिव चेतना ये चाहती हैं कि प्राण मुझ से
विवाह कर ले तथा मेरे ही पोषण में तत्पर रहे |
यदि ऐसा हो जाए तो मनुष्य कि सारी आतंरिक
प्रगति अवरुद्ध हो जाये तथा वह पशुता प्रधान
ही रह जाये | मनुष्य का लक्ष्य हैं पार्थिक
चेतना से ऊपर उठकर आत्मलोक तक पहुचना हैं |
श्री शिव शंकर काव्यतीर्थ ने यम-
यमी को सूर्य के पुत्र-पुत्री दिन रात
माना हैं तथा कहा हैं कि जैसे रात और दिन
इकठ्ठा नहीं हो सकते ऐसे ही भाई-
बहन का परस्पर विवाह भी निषिद्ध हैं |
पुरुष तथा प्रकृति का आलंकारिक वर्णन मानने पर,
प्रकृति जीव को हर प्रकार से
अपनी ओर अकार्षित करना चाहती हैं,
किन्तु जीव कि सार्थकता प्रकृति के प्रलोभन में न
फसकर पद्मपत्र कि भाति संयमित जीवन बिताने में हैं
|
इन तथ्यों के परिप्रेक्ष्य में वेद और लोक व्यहवार –विरुद्ध भाई
बहिन के सहवास सम्बन्धी अर्थ को करना युक्त
नहीं हैं | इसी सूक्त में
कहा हैं-“पापमाहुर्यः सवसारं निगच्छात्” बहिन भाई का अनुचित
सम्बन्ध पाप हैं | इसे पाप बताने वा वेद स्वयं इसके
विपरीत बात
कि शिक्षा कभी नहीं देता हैं |
सन्दर्भ ग्रन्थ – आर्य विद्वान वेद रत्न सत्यव्रत राजेश के
व्याख्यानों के संकलन “वेदों में इतिहास नहीं” नामक
पुस्तिका से व्याकरण प्रमाण सभारित |