Tuesday, July 28, 2015

क्या श्री कृष्ण ने रुकमनी का अपहरण कर विवाह किया था ?

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पुराण ,महाभारत आदि ग्रन्थ इस बात को कहते है कि रुकमनी का अपहरण श्री कृष्ण ने किया ओर विवाह किया था | लेकिन अपहरण कर विवाह करणा मनु के अनुसार राक्षसी विवाह के अंतर्गत आता है जो वेद विरुद्ध ओर निकृष्ट कोटि का है | तो क्या धर्मात्मा श्री कृष्ण ऐसा कर्म कर सकते है ? इसका उत्तर यही है श्री कृष्ण जो वैदिक पद्धति अनुसार जीवन निर्वाह करते थे | संध्या आदि पंच महायज्ञ जो मनु प्रोक्त है में बिलकुल भी ढीलाई नही देते थे | तो वो मनु के विवाह सम्बन्धी उपदेशो की अवेहलना कैसे कर सकते है ? वास्तव में महाभारत में उतरोत्तर बहुत परिवर्तन हुए है कई श्लोक निकले गये है कई कल्पित जोड़े गये है इससे सत्य इतिहास पता लगाने में बाधा होती है | (इस विषय में फिर कभी पोस्ट करेंगे ) लेकिन हमे शंकरदिग्विजय पढ़ते समय निम्न श्लोक श्री कृष्ण जी पर मिला –
“ नैव नियन्तुमनघे तव शक्यमेतत 
तां रुक्मणी यदुकुलाय कुशस्थलीशे |
प्रादात स भीष्मकनृप: खलु कुण्डीनेश 
-स्तीर्थापदेशमटते त्वपरीक्षिताय || ३/३४ ||”
अर्थ – कन्या के पिता विष्णुमित्र ने कहा – अनघे ! तुम ऐसा नियम नही कर सकती हो | क्या कुण्डीनपुर के स्वामी राजा भीष्मक ने तीर्थ के बहाने पहुचने वाले कुशस्थली (द्वारका ) के स्वामी यदुवंशी भगवान कृष्ण को अपनी पुत्री रुक्मणी को नही प्रदान किया ? किन्तु महाराज भीष्मक को कृष्ण के न कुल का पता था ओर न शील का |
इस कथन से स्पष्ट है कि माधवाचार्य या शंकराचार्य तक रुकमनी के भगाने की जगह श्री कृष्ण का राजा भीष्मक ने स्वयम रुक्मणी के साथ विवाह करवाना ही प्रसिद्ध था | बाद में इसे भगाने का रूपान्तरण कर दिया | जिसका पालन कुछ राजपूत राजाओं ने भी किया | 
(ये ऐतिहासिक बात है जिसपर कोई भी पक्ष पूर्ण अंतिम सत्य होने का दावा नही कर सकते | मै भी इस सिद्धांत को अंतिम सत्य नही मानता लेकिन सैधांतिक रूप से ओर श्री कृष्ण जी की धर्मनिष्ठा से इस तथ्य से अन्य व्रतांत (महाभारत ,पुराण आदि ) की तुलना में अधिक सहमत हु |)

Wednesday, July 15, 2015

अन्य लोको पर प्राणी (एलियन )

एलियन आज कल समस्त प्रथ्वी के मानव के लिए एक आकर्षण का विषय है हर कोई अपनी अपनी परिकल्पना के अनुसार एलियन के अस्तित्व पर विचार करता है | हमारे शास्त्रों में एलिय्नो के स्पष्ट प्रमाण है उनके शरीर आदि के बारे में भी है जिसे आज का विज्ञान भी मान रहा है | स्वामी दयानंद सरस्वती ने अपने ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाश में अन्य लोको पर प्राणियों के अस्तित्व का उलेख किया है ऐसा उन्होंने अपने स्वयम के मत से नही बल्कि शतपत आदि ग्रंथो के प्रमाण से कहा है – “ एतेषु हीद सर्व वसु हितमेते हीद सर्व वास्यन्ते तद्यदिद सर्व वास्यनते तस्माद्वसव इति “ – शत.का. १४/६/६/४ 
पृथ्वी ,जल ,अग्नि ,वायु ,आकाश ,चन्द्र ,नक्षत्र ओर सूर्य इनका वसु नाम इसलिए है कि इन्ही में सब पदार्थ ओर प्रजा वसती है ओर ये ही सबको व्साते है |
हालकी कुछ लोग सूर्य पर प्राणी होने की बात पर शंका करते है | लेकिन जेसा की हम जानते है कि हिन्दू दर्शन के अनुसार शरीर पंच भूतो से बना होता है प्रथ्वी ,जल ,अग्नि ,वायु ,आकाश से..इन पांच तत्वों में कोई न कोई तत्व प्रधान रूप से शरीर के निर्माण में होता है हम प्रथ्वी वासियों में प्रथ्वी तत्व की प्रधानता होती है अन्य तत्व अत्यन्ताभाव रूप या उनकी प्रधानता कम होती है | तो इससे एक सम्भावना भी होती है कि सूर्य आदि कुछ लोको पर वायु शरीर या अग्नि तत्व प्रधान शरीर हो सकते है| अन्य लोको पर जीवन की पुष्टि न्याय दर्शन के (३/१/२८ ) सूत्र के ऋषि वात्सायन द्वरा किये हुए भाष्य से होती है |(जिसे चित्र में देख सकते है ) इसमें स्पष्टतय: अग्नि ओर वायु प्रधान शरीर के अस्तित्व को दर्शाया है | ओर वायु ओर अग्नि प्रधान शरीर आसानी से सूर्य पर अपना जीवन निर्वाह कर सकते है | ऐसे शास्त्रीय प्रमाण होने पर शास्त्रों को मानने वालो को इस विषय पर शंका नही करनी चाहिए | 
हम लोगो में यह कमजोरी या अंग्रेजी मानसिक गुलामी का प्रभाव है की यदि यह बात जब तक कोई फिरंगी वैज्ञानिक जेसे स्टीफेन हाव्किंग आदि न कहे तो हम उसे मानते नही है | चाहे हमारे ग्रंथो नया ऋषि मह्रिषी इस बात को पहले से ही कह चुके हो .. लगभग यही बात की वायु शरीर प्रधान प्राणी होते है महान वैज्ञानिक स्टीफेन हाव्किंग ने डिस्कवरी चेनल पर शुक्रवार दिनाक ०९/७/२०१० में कहा है उन्होंने जो बातें कही वो इस प्रकार है –
(१) जल के अभाव में -१९६ डिग्री तापमान पर प्राणी तरल नाइट्रोजन पर जीवन निर्वाह कर सकते है | यहा इस वैज्ञानिक ने यह स्पष्ट किया की जल के बिना भी जीवन निर्वाह हो सकता है | यदि किसी ग्रह पर जल नही है तो उस ग्रह की अन्य व्यवस्था से वह प्राणी जीवन निर्वाह करता होगा |
(२) परग्रह वासी गेस के बने हो सकते है ओर वे बिजली से ऊर्जा प्राप्त करते है |
-(यहा स्पष्टय हाव्किंग ने वही कल्पना दी है जो की मह्रिषी वात्सायन ने दी वायु प्रधान शरीर की )
इस तरह हमारे ग्रंथो में ही परग्रह वासियों के बारे में काफी गूढ़ जानकारिय है | यदि ओर शोध हो तो अन्य ऐसी जानकारिय भी मिल सकती है जो विज्ञान के पास भी उपलब्ध न हो | प्राचीन काल में आर्यावर्त वासियों के लोक लोकान्तर में गमन का उलेख भी महाभारत आदि में मिलता है | पुराण में ब्रह्मांड पुराण में प्रथ्वी वासी देवो का अपने अपने विमान में बैठ अन्य ग्रहों पर जाने के उलेख है जो निम्न लिंक (*http://bharatiyasans.blogspot.in/2014/01/space-jourey-in-acient-time.html*) में देखे | इसका कुछ सार यहा भी लिख देते है – (*ब्रह्माण्डपुराण के छठे अध्याय का निम्न उल्लेख देखे-
"चतुर्युगसहस्त्रान्ते.......................दधिरे मन:|
इसका अर्थ है" सहस्त्र चतुर्युग के अन्त मे,मन्वन्तरो का अन्त हो गया,कल्पनाश का समय आ गया,दहकाल आ गया अत: उदास,निराश ओर विवश होकर जिन देवो के पास विमान(अंतरिक्षयान) थे वे उनमे सवार हो कर महलोक मे बसने चले गए|"
इसी तरह अन्य जगह भी दूसरे ग्रह पर जा कर बसने का उल्लेख आया है-
त्रीणिकोटि शतान्यासन्.....
......वैमानिका: स्मृता:|
अर्थात् तीन अरब ब्यान्नवे करोड बहत्तर सहस्त्र वैमानिक देवगणो के (इस उल्लेख से यह न समझे कि प्रत्येक देव का एक एक स्वतंत्र विमान था)इतने सारे व्यक्ति विभिन्न विमानो द्वारा अन्य प्रस्थान कराए गए थे|
हालाकि इस संख्या तीन अरब पर विश्वास नही कर सकते लेकिन इस वर्णन से यह तो स्पष्ट होता है कि कभी हमारे पूर्वज अंतरिक्ष गमन कर गए थे|*)
इतना ही नही अनार्ष ग्रन्थ जो अन्य मतो के है उनमे भी एलियनो के बारे में है अल्लाह , हुर ,फरिश्ते,जिन ये सब दुसरे लोक के निवासी ही है ऐसे प्रमाण इनके मत ग्रन्थ ही देते है | कुरान भी अग्नि शरीर प्रधान वाले जीवो ओर प्रथ्वी वासियों के प्रथ्वी शरीर प्रधान का सबूत कुछ अलग अंदाज़ में देती है – सूरतु साद ३८ पारा २३ आयत ७६ में आया है कि मानव को अल्लाह ने मिटटी से बनाया ओर शेतान (जो की एक जिन्नाद ) था को आग से बनाया है | यदि यहा मिटटी मतलब प्रथ्वी तत्व प्रधान ओर आग मतलब अग्नि तत्व प्रधान शरीर माने तो कुरान भी मह्रिषी वात्सायन ओर दयानंद जी की तरह अन्य लोक में प्राणियों की पुष्टि करती है ओर साथ ही इस बात की पुष्टि भी करती है की अग्नि आदि तत्वों के शरीर होते है | 
बाकि मै अपने अन्य आर्य(श्रेष्ट ) मित्रो से अनुरोध करूंगा की वो इस सन्धर्भ में महाभारत ,दर्शन ,पुराण ,रामायण,ब्राह्मणआदि इतिहासओर दार्शनिक ग्रंथो से अन्य लोको में प्राणियों के प्रमाण ओर उनकी संरचना आदि के विज्ञान को खोज कर इस लेख में ओर संकलित करने का प्रयास करे |

क्या अन्य देशो की भाषा सीखनी चाहिए या नही ?

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कई मित्र यह कहते है की केवल हिंदी या संस्कृत ही बोलनी सीखनी चाहिए अन्य भाषा नही | उनका यह कथन उनकी अल्प मानसिकता ओर ऋषि सिद्धान्त से अनभिज्ञता दर्शाता है | चाणक्य ने तो व्यापार विद्या की प्राप्ति के लिए दूर देशो के भ्रमण को भी लिखा है | मह्रिषी पातंजली (महाभाष्यकार ) अपने महाभाष्य में लिखते है – “ अपशब्दज्ञानपूर्वके शब्दज्ञाने धर्म:” जिसका अभिप्राय यह है अपशब्द का अभ्यास अवश्य करना चाहिए | यहा अन्य भाषाओ के शब्दों को अपशब्द बोला है इसका कारण यह है कि विश्व की सभी भाषाए संस्कृत से ही निकली है उनके शब्द संस्कृत भाषा से बिगड़ कर बने है जिन्हें तद्भव शव्द कहते है | ऐसे कई शब्द आपको सभी भाषाओ में मिल जायेंगे जो संस्कृत से समानता रखते है | पोस्ट की विस्तृता के भय से उनका उलेख यहा नही करेंगे लेकिन इसे आप निम्न पुस्तको – (१) वैदिक विश्व राष्ट्र का इतिहास – पी ऍन ओक 
(२) वैदिक सम्पति – रघुनन्दन प्रसाद शर्मा 
(३) भाषा का इतिहास – भगवतदत्त जी 
(४) भाषा का विज्ञान – रघुनन्दन प्रसाद शर्मा 
(५) मत मतान्तर का मूल स्रोत वेद – लक्ष्मण जी आर्योपदेशक 
इन पुस्तको में पढ़ सकते है ये सभी पुस्तक गोविंदारामहासानंद प्रकाशन नयी सडक delhi में मिल जायेंगी |
इस तरह संस्कृत से विकृत रूप में अन्य भाषा के शब्द बने इसलिए भाष्यकार ने उन्हें अपशब्द (बिगड़े शब्द ) की संज्ञा दी ओर उनका अभ्यास करने को अर्थात सीखने को कहा | चुकी इससे भी संस्कृत भाषा में ही ज्ञान बढ़ता है क्यूंकि सही तरह से अन्य भाषा सीखने को अनुसन्धान करने से हम ये समझ जाते है की ये शब्द इस तरह संस्कृत से बना इसी लिए सूत्र में कहा है अपशब्द ज्ञान के द्वारा शब्द का ज्ञान करे | 
हमारे इतिहास में भी राजाओ ,ओर विद्वानों का अन्य देशो में गमन लिखा है क्या वे बिना उस देश की भाषा सीखे वहा व्यवहार कर सकते थे ?: कदापि नही महाभारत आदिपर्व १४४ .२० में राजसूय ओर अश्वमेध यज्ञ में देशदेशान्त्र के राजा आये थे क्या बिना भाषा सीखे उन्हें आमंत्रित किया जा सकता है ? नही ! इससे स्पष्ट है की आज जोश में जेसा अन्य भाषाओं के सीखने का विरोध हो रहा है वो हमारी संस्कृत ओर ऋषियों के सिद्धांत के विरुद्ध ही है | क्यूंकि कोई भाषा सीखने में दोष नही होता बल्कि गुण ही होता है ओर नई जानकारिय भी प्राप्त होती है |
लेकिन मै इस बात समर्थन अवश्य करता हु की प्राथमिकता सभी को संस्कृत को देनी चाहिए | ओर तकनीकी शिक्षा .राजनेति आदि कार्यो में हिंदी या मातृभाषा में ही होने चाहिए | हमे किसी देश की संस्कृति की नकल या पश्चिम सभ्यता की नकल नही करनी चाहिए बल्कि अपनी ही संस्कृति ओर सभ्यता को अपनाना चाहिए | भाषा सीखना तो ज्ञान का विषय है लेकिन अन्धाधुन अनुसरण करना मात्र मुर्खता ओर नकलची बन्दर होने का गुण है | अत: भाषा जितनी हो सके सीखे लेकिन नकल या अन्धाधुन अनुसरण कर अपनी संस्कृति को आघात न करे |
(नोट – इस लेख के प्रमाण स्वामी दयानंद जी कृत सत्यार्थ प्रकाश के प्रथमं संस्करण से है जो आज के संस्करण में नही छपते है )

Tuesday, July 14, 2015

यज्ञोपवीत अन्य मतो में

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यज्ञोपवीत का महत्व आप सभी जानते है ओर ये अन्य मतो में भी किसी न किसी रूप में प्रचलन में है चुकी सभी मत वैदिक धर्म से ही निकले है इसलिए संस्कार रूप में यह उनमे विद्यमान है | इन्ही में से एक यज्ञोपवीत नामक संस्कार है जो अन्य मतो में किस रूप में है वो आप नीचे पढिये –
(१) पारसी मत 
पारसी मत जो वैदिक धर्म का अत्यधिक निकटवर्ती समझा जाता है यज्ञोपवीत को ‘कुस्ती ‘ कहते है | पंडित गंगाप्रसाद जी (चीफ जज ) ने अपनी पुस्तक ‘ fountainhead of religion ‘ में लिखा है – “it is intresting to note in this conmection that like the twice-born (the first three classes ) among the follower of vedic religion, the parsees are also enjoined to wear the sacred thread which they call ‘kusti’ we quote from the vendiad,the sacred book of the parasees-
“ Zarathushtra asked Ahura mazda : O Ahura mazada ! what is one a criminal worthy of death?” Then said Ahura Mazada : By teaching an evil religion . spitama Zarathushtra ! Whosoever during spring seasons does not put on the sacred thread (kusti) does not recite the gathas,does not reverence the good waters,etc.”
अर्थात पारसियों के पैगम्बर जरथुश्त्र्थ को पारिसियो के भगवान् अहुरमज्दा ने कहा कि जो कुस्ती को धारण नही करता उसे म्रत्यु दंड दिया जाना चाहिए | पारसियों के यहा कुस्ती सात साल में दी जाती है ओर उसे बालक के चारो तरफ लपेटा जाता है | यह एक महत्वपूर्ण संस्कार है |
वैदिक धर्म में यज्ञोपवीत धारण करने का मन्त्र ओर पारसियों में कुस्ती धारण करने का मन्त्र समान अर्थ का घोतक है – 
हमारे यहा निम्न मन्त्र है 
– “यज्ञोपवीत परम पवित्रं प्रजापतेर्यत्सहज पुरस्तात् |
आयुष्यमगन्य प्रतिमुञ्च शुभ्र यज्ञोपवीत बलमस्तु तेज: ||-पा. ग्र. २/२/११ 
अर्थात यज्ञोपवीत परम पवित्र है ,आदिकाल से यह प्रजापति के साथ रहा ,यह आयु ओर तेज आदि को देने वाला है |
“फ्राते मज्दाओ वरत पौरवनीम एयाओ धनिम्स्ते हर –पाये सन्घेम मैन्युतस्तेम बन्धुहिम दयेनीम मज्बवास्नाम “
इसका अर्थ है –है डोरे ! तु बहुत बड़ा उज्व्व्ल है ,आयुबल का देने वाला है | तुझे मज्दा ने आरोपित किया मै तुझे पहनता हु |
यहा बिलकुल ऐसा लगता है की यज्ञोपवीत वाले मन्त्र का पारसी में अनुवाद कर दिया हो |
मुस्लिम मत –
मुसलमानों में बिस्मिल्ला पढ़ा जाना कहते है | उनके यहा ४ साल ४ महीने ४ दिन ४ घड़ी ४ पल हो जाने पर बालक को बिस्मिलाह सुनाकर पढने बैठाया जाता है | बिस्मिल्लाह पढ़ते हुए उसे “ बिसिमिलाह हिर्रहमान हुर्रहीम “ पढने को कहा जाता है जेसे की गृह्सुत्रो से अनुसार यज्ञोपवीत संस्कार के बाद सावित्री मन्त्र की दीक्षा दी जाती है वेसे ही |
इसाई मत –
ईसाइयों में बच्चो को बपिस्मा देते है जो उपनयन का ही एक रूप है | बपिस्मा इन साय्क्लोपीडीया ऑफ़ रिलिजन के अनुसार यूनानी भाषा का एक शब्द माना है जिसका अर्थ है पुनरुत्पत्ति (regeneration ) है | यही पुनरुत्पत्ति द्विज शब्द की अभिव्यक्ति है | द्विज उसी को कहते है जिसका उपनयन संस्कार हो चूका हो |
बोद्ध मत – 
बोद्ध मत वेसे नास्तिक्वादी मत है लेकिन इसमें भी एक पब्ज्जा नाम का एक सन्सकार होता है जो कि भिक्षु बनने से पूर्व शिक्षा ग्रहण करने में होता है | ये प्राचीन नालंदा विश्वविद्यालय में भी होता था आज कल कई बोद्ध देशो में भी होता है | इसमें कुष्ट रोगी ,चर्म का व्यापार करने वाला , चांडाल का निषेध था जो सम्भवत यज्ञोपवीत की पवित्रता का भाव ग्रहण करते हुए किया होगा क्यूंकि उक्त व्यक्ति पवित्रता की निरन्तरता नही रख सकते है |
नोट – यहा सिख मत का उलेख नही किया है उस पर अलग से एक पोस्ट बनाई जायेगी |

Thursday, July 2, 2015

विद्यार्थियों को मह्रिषी नारद की शिक्षा

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ओ३म् || 
विद्यार्थियों को मह्रिषी नारद की शिक्षा –
(१) क्रोध ओर चिडचिड़ा पन छोडो – पञ्च विद्या न गृहन्ति चण्डा: स्तब्धाश च ये नरा: |
अलसाश चाsनरोगाश च येषा च विसृत मन: ||नारदीय शिक्षा २/८/१४ ||
चिडचिडा मनुष्य,ढीठ मनुष्य, आलसी मनुष्य,व्याधिग्रस्त मनुष्य ओर चंचलचित वाला मनुष्य ये पांच प्रकार के मनुष्य कभी विद्या ग्रहण नही कर सकते है |
(२) विद्या को धैर्य पूर्वक बिना जल्दबाजी के धीरे धीरे प्राप्त करे –
“शनैर विद्या शनैरर्थानारोहेत पर्वत शनै: |
शनैरध्वसू वर्तेत योजनाना परम् व्रजेत ||नारदीय शिक्षा २/८/१५ ||
विद्या को आहिस्ता से सिद्ध करे ,धन को आहिस्ता से सिद्ध करे ,पर्वत को आहिस्ता से चढ़े |जो व्यक्ति आहिस्ता से चलेगा वह चार कोष की दुरी वाले कई योजन से दूर रहे स्थान को प्र्राप्त कर लेगा |
(३) नित्य अध्ययन करे –
“ अंजनस्य क्षय दृष्टा वाल्मीकस्य तु संचयम |
अवन्ध्यम् दिवस कुर्याद दानाsध्ययनकर्मसु ||नारदीय शिक्षा २/८/२० ||”
यत कीट: पांसुभि: श्लक्षणेर वाल्मीक: क्रियते महान |
न तत्र बलसामर्थ्यमुद्योगस तत्र कारणम्|| नारदीय शिक्षा २/८/२१ ||
विचारशील मनुष्य बहुत थोडा थोडा ही हास होने पर भी अंजन का पूर्ण क्षय ओर प्रतिदिन बहुत थोड़ी थोड़ी वृद्धि होने पर भी दीमको से बनाए गए मिटटी के टीले के संचय को देखकर दान अध्ययन इत्यादि सत्कर्म से दिन को अशून्य बनाए |
दीमको से चकनी मिटटी के सूक्ष्म कणों से बहुत बडा टीला बनाया जाता है उसमे बल कारण नही बल्कि निरंतर उद्योग कारण है |
(४) विद्या का बार बार दोहराव अर्थात अभ्यास करे –
“ सहस्त्रगुणिता विद्या शतश: परिकीर्तिता |
आगमिष्यति जिह्वाग्रे स्थलान निम्नमिवोदकम || नारदीय शिक्षा २/८/२२ ||”
हजार बार अभ्यास की हुई ओर सेकड़ो बार शिष्यों को पढाई गयी विद्या उच्च स्थान से नीचे स्थान की ओर पानी की भान्ति जिह्वा पर आ जाती है |
(५) कम सोना चाहिय –
“ हयनामिव जात्यानामर्धरात्रार्धशायिनाम|
न हि विध्यार्थिना निंद्रा चिर नेत्रेषु तिष्ठति || नारदीय शिक्षा २/८/२३ ||
रात के आधे भाग समय में ही एक पार्श्व से ही सोने वाले घोड़ो की भान्ति विद्याभिलाषी छात्रो की निंद्रा आँखों में बहुत देर तक नही रहती है |
(६) समय पर भोजन करना ,स्वाद का लालसी न होना ,ओर विद्या प्राप्ति के लिए दूर जाने वाला –
“ न भोजनविलम्बी स्यान च चाsशननिबंधन: |
सुदूरमपि विद्यार्थी व्रजेद गरुणहंसवत || नारदीय शिक्षा २/८/२४ ||”
विद्यार्थी भोजन में विलम्ब करने वाला न हो, विद्यार्थी अधिक ओर स्वादु भोजन के लिए कही ठहरने वाला न हो ,विद्यार्थी हंस ओर गरुण की भान्ति दूर देश में विद्या प्राप्ति हेतु पहुचे |
(७) अधिक भीड़ भाड़,अति भोजन ओर स्त्री से दूर रहे – 
“ योsहेरिव गणाद भीत: सौहित्यान नरकादिव|
राक्षसीभ्य इव स्त्रीभ्य: स विद्यामधिगच्छति ||नारदीय शिक्षा २/८/२५ ||”
जो जनसमूह से सर्प से डरने की भान्ति डरे ,अतिभोजन से नर्क से डरने की भान्ति डरने की भान्ति डरे ,स्त्रियों से राक्षसी की भान्ति डरने की भान्ति डरे ,वह विद्या को प्राप्त करता है |
(८) जुआ खेलने वाला ,अश्लील प्रसंग सुनने वाला ,भांड पृभति के नाटक देखने वाला (जेसे आज की फिल्मे ओर सीरियल ) स्त्री में अनुराग लेने ओर आलस्य लेने वाले को विद्या की अप्राप्ति होना –
“ धुतं पुस्तकवाच्य च नाटकेषु च सक्तिका |
स्त्रियस तन्द्रा च निंद्रा च विद्याविघ्नकराणि षट || नारदीय शिक्षा २/८/३० ||
जुआ .अश्लील कथा,पुस्तक आदि श्रवण ओर अध्ययन , भाण प्रभृति के नाटक देखने सुनना (जेसे आज कल की फिल्मे ओर टीवी सीरियल आदि ) स्त्री में अनुराग रखना ,आलस्य ओर निंद्रा यह छह पदार्थ विद्या प्राप्ति में विघ्नकारी है | अत: इनका त्याग करे |