Wednesday, June 24, 2015

हिन्दुओं की मुर्खता का एक और उदाहरण



नोट - यह लेख विश्वप्रिय वेदानुरागी जी के फेसबुक अकाउंट से प्रतिलिपि किया गया है |
आज विश्व-योग-दिवस है अतः कई-कई योगी संस्थायें सड़कों पर थीं |
इन्हीं योगी संस्थाओं में से एक सहजयोग - माता निर्मला देवी जी वाले भी सक्रिय थे और अपना प्रचार कर रहे थे | इस प्रचार में एक परिपत्र बांटा जा रहा था जिसमें लिखीं बातें पढ़ कर मैं आश्चर्यचकित रह गया |
माता-निर्मला देवी जी के इस सहज योग में प्रसिद्ध सात चक्रों का वर्णन किया गया था और इस एक-एक चक्र के सामने देवी-देवता के नाम लिखे गए हैं | .तीसरा-चक्र है नाभि-चक्र जिसमें देवी-देवता में ===> श्री हजरत अली और फातिमा <=== का नाम लिखा है | और इसी में भवसागर क्रम में श्री आदिगुरु दत्तात्रेय के १० अवतार गिनाये गए हैं जिसमें राजा जनक, ===>अब्राहम, मोजेस, जोरादृष्ट, कन्फ्यूशियस, लाओत्से, सोक्रेटिस, मोहम्मद पैगम्बर, गुरुनानक, श्री शिर्डी साईं बाबा <====के नाम गिनाये गए हैं | पतंजलि, नचिकेता, याज्ञवल्क्य आदि का नाम कहीं नहीं है |.छठे चक्र में आज्ञा चक्र में देवी-देवता में ===>श्री जीजस मेरी <=== को बताया गया है | सातवें चक्र में श्री कल्कि - श्री माताजी निर्मला देवी का नाम लिखा गया है | .निम्न चित्र में भी माता जी ने अपने हाँथ में क्रास बना रखा है, सनातन परम्परा में आने वाले देवी-देवताओं की तरह ओम नहीं बनाया है |.अब विचार कीजिये की ऐसे योगी क्या वैदिक धर्म की रक्षा करेंगे ??मौलवी और पादरी का काम सरल करने में ऐसे योगी कितने सहयोगी बन रहे हैं |.

Sunday, June 21, 2015

अवतारवाद से हानि

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पोराणिक कथाओं के अवतारवाद के सिद्धांत का लाभ उठा कर हिन्दुओ का हुआ था सबसे अधिक धर्मांतरण ...
दोस्तों हिन्दुओ का धर्मांतरण विधर्मियो ने अनेक तरीको से किया लेकिन उनमे उनका हथियार कोई बाहरी नही बल्कि हमारे अपने पुराण ही थे इनकी अवतार वाले सिद्धांत का फायदा उठा कर असुर म्लेच्छ देवता ओर अवतार बन हिन्दुओ के बीच पूजित होने लगे जेसे की कबीर ,साईं बाबा ,निजामुद्दीन ,मोईनुद्दीन आदि | आज भी दक्षिण भारत ओर आदिवासी इलाको में इसाई लोग उनके मसीह को विष्णु भगवान ,कृष्ण के रूप में दर्शा कर धर्मांतरण कर रहे है | ऐसे ही एक था पीर सदरदीन ये खलीफाओ के हुक्म से इस्लाम फैलाने के उद्देश से ७५० वर्ष पूर्व भारत आया ओर कश्मीर रुका फिर वहा से लाहोर ,लाहोर से सिंध के कोटडा गाँव में रुका | इसने कई हिन्दुओ को मुस्लिम बनाया .. इसके बारे में उलेख इसी के सम्प्रदाय के इसके ग्रन्थ में लिखा है - " पीर सदरदीन पंथज किया जाहर खाना मकान | 
ऐलो खानों आवी कर्यो कोटडा ग्राम निधान ||
पीर सदरदीन जाहर थया हिन्दू कर्यो मुसलमान |
लोवाणा फिर खोजा कर्यो तेने आप्यो सोचो ईमान ||
अर्थात पीर सदरदीन ने सबसे पहले कोटडा ग्राम में निवास किया | ओर हिन्दुओ को मुस्लिम किया ओर लोहाणों को खोजा बनाया | 
इस पीरसदर ने अपने तीन नाम भी रखे लोगो को गुमराह करने के लिए - सदरदीन सहदेव ,हरीचन्द्र |
इसी ने अपने ग्रन्थ अनंत ज्ञान में मुहम्मद आदि को अवतार बताया -
" जीरे भाई रे आज कलियुग मा ईश्वर आदम नाम भणाया |
गुरु ब्रह्मा ने रची मुहम्मद कहाव्या हो जीरे भाई ||
जीरे भाई पुरख उत्तम विष्णु जी अलीरूप नाम भणाया |
ते तो नाम रखो सरे धाया हो जीरे भाई ||
अर्थात कलियुग में परमेश्वर आदम हुआ | ब्रह्मा मुहम्मद ओर विष्णु जी अली |
अगली ही पंक्ति में पीर सदर ने खुद को दसवा अवतार कहा है -
" कलजुग मधे अंनत क्रोडी पीर सहनशाये वर आलिया |
अवतार दशमो दिलमा धरी घट कलशरुपे सही थापिया ||
अर्थात कलियुग में १० वा अवतार पीर सदरदीन ही है जो घट कलश आदि रखवाते है |
आगे दस अवतारों का वर्णन करते हुए पीरसदर ने खुद को १० वा अवतार बताया देखे -
मछ कोरम वाराह मणा पाई |
नरसिंह रुपे स्वामीजी विष्णु भनो ||
वामन परसराम सोई अवतरयो |
श्रीरामे लंकागढ़ नहियो ||
कानजी बुद्ध दखण अवतर्यो |
अढार खुणी शानर देर्यो ||
पाछ में पात्र निक्लंक नारायण |
धेल्म देश में शाजो स्थान रच्यो ||
कोडी पंज सत नव चारो अनत ही नारीधो |
श्री इस्लामशा जो नाम भणाया ||
अर्थात विष्णु ने मच्छ ,कुर्म ,वाराह ,नरसिंह ,वामन ,परशुराम आदिअव्तार धारण किये राम बन लंका ढहाई | श्री कृष्ण ओर बुद्ध हुए | इसके बाद धेलम देश में निश्कलनकी विष्णु ने वही इस्लाम शाह पीर सदर दीन है |
आगे यह सबको इस्लाम मत में लाने को लिखता है ,,यही से इसका असली चेहरा खुलता है -
" चीला छोडो न दीन का धाचा मत खाव 
सुनो बताऊ बावरे मत भूल न जाव 
सांचा दीन रसूल का सो तमे सही करिजाणो 
जो कोई आवे दीन में उनको दीन में आणो ||
अर्थात है मुसाफिर !सुन भूलना नही ,धोखा मत खाना ओर दीन की डोर मत छोड़ना क्यूंकि रसूल का दीन ही सच्चा दीन है | इसलिए तु उसे सच्चा समझ ओर जो लोग आवे उन्हें इस दीन में ला |
यहा स्पष्टतय उसने अपना उद्देश्य प्रस्तुत कर दिया |
आगे ये अपने मतावलम्बियो से कहता है कि उपर से हिन्दू बन कर ओर अंदर से मुसलमान रह कर प्रचार करो - 
" " चरित्र हिन्दू अंदर मुसलमान कोई न तेने जाणे "
(- सभी दोहे पीरसदरदीनकृत अनंत ज्ञान से है )
इसी तरह अवतार वाद नामक पाखंड का फायदा विदेशियों ने उठाया ओर लाखो हिन्दुओ को गुमराह कर मुस्लिम बनाया आज भी रामपाल ,नाइक आदि इसी पाखंड का फायदा उठा रहे है |

Monday, June 8, 2015

क्या वेदों में लौकिक नारी अदिति का वर्णन है ?

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ओ३म्||
क्या वेदों में लौकिक अदिति ओर उसके पुत्रो का वर्णन है |
इससे पहले मै एक प्राचीन किस्सा लिखना चाहता हु जो इस तरह है -"एक कौत्स जो जिज्ञासु थे लेकिन वेद से अनभिज्ञ थे अपने पहले के कर्मकांड,ओर वेद का याज्ञिक क्रिया में प्रयोजन मात्र देख यास्क से कहते है (हालाकि कौत्स का वेदों पर विशवास था ) वैदिक अर्थसम्बन्धित विज्ञान वृथा है ,क्यूंकि वैदिक सूक्त एवम ऋचाऐ अर्थहीन ,गूढ़ ओर एक दुसरे के प्रतिकूल है | यास्क इसका उत्तर देते है कि "यदि अंधे को सूर्य न दिखाई दे तो इसमें भास्कर का कोई दोष नही है |"
यही हाल आज के तथाकथित बुद्धिमान लोगो को है जो वेद को निरर्थक कहते है | अब यहाँ से अपनी बात आगे रखता हु |
अदिति शब्द के अर्थ पर विचार करने से पहले यह बात अवश्य ध्यान रखनी चाहिए कि वैदिक संस्कृत ओर लौकिक संस्कृत दोनों में अंतर है वैदिक संस्कृत में धातुज शब्द है रूढ़ शब्द नही अर्थात शब्द किसी एक अर्थ में बंधा नही है उसकी पाणिनि व्याकरण या निरुक्ति से भेद खोला जाता है महाभाष्यकार पतंजली लिखते है " लौकिकाना वैदिकाना च " अर्थात शब्दों के दो भेद है लौकिक ओर वैदिक ..|
वैदिक शब्दों की क्या विशेषता है इस पर पतंजली कहते है -" नाम च धातुजमाह निरुकते व्याकरण शकटस्य च तोकम | नैगमरुढि हि सुसाधु (महाभाष्य ३/३/१ ) अर्थात सब नाम धातुज है वेद के शब्द रूढ़ नही होते | इसका अर्थ है कि वेद का एक शब्द अनेक अर्थ देता है ओर अनेक अर्थो के लिए एक शब्द भी होता है .. जेसे अग्नि शब्द को लेते है लौकिक में यह केवल भौतिक अग्नि के लिए है लेकिन वैदिक में यह शब्द "ईश्वर ,सूर्य ,राजा आदि के लिए भी है |" 
इस बात को ध्यान में रखते हुए ही वेद का अध्ययन ,भाष्य आदि करना चाहिए | 
अब अदिति के अर्थ पर विचार करते है - 
मह्रिषी दयानद सरस्वती अपने ऋग्वेद भाष्य में १/१६२/२२ में अदिति का अर्थ अखंडित किया है | जो इस तरह होगा "अदीना अक्षीणा अखंडिता वा परमेश्वर शक्ति (ओदनम ) उन्दें लोपश्च (उ.२/७६ ) यहा अदिति परमेश्वर की शक्ति ओर अखंडिता के अर्थ में है | क्यूंकि प्रक्रति (परमाणु ) अखंडित होते है इसलिए परमाणु को भी अदिति कहते है | इन्ही परमाणु से सूर्य ,चन्द्र ,अग्नि ,वायु आदि पदार्थ का निर्माण होता है इसलिए इस प्रक्रति (अदिति ) को देवो की माता कहते है जेसा निरुक्त में कहा हैं - अदीना देवमाता -निरुक्त ४/२२ ...ऋग्वेद के निम्न मन्त्र में अदिति के कई अर्थ प्रकट किये है - अदिति..........र्जिनित्वम (ऋग्वेद १/८३/१० ) 
मन्त्र कहता है - अदिति ‌‍ द्यौ है | अदिति अन्तरिक्ष है | अदिति माता है |अदिति पिता है | अदिति पुत्र है | सारे देव .दिशाए से सम्बन्धित देव अदिति है | जो वस्तु उत्पन्न होगी वो अदिति है | यह प्रक्रति का ऐश्वर्य है | इतने नामो को देख क्या लगता है कि वेदों में अदिति कोई स्त्री विशेष का नाम है | ये कई पदार्थ के नाम है जो कि रूढ़ शब्द नही अपितु अलौकिक धातुज है | यास्क निरुक्त में लिखते है - " एनान्यदीनानीति वा | (४/२२) दयो आदि सारी वस्तु अदिति है | इसी को अलंकार में देवो की माता कहा है | अलंकार से वाक्य में रोचकता ओर सुन्दरता आती है व्ही अलंकार मूर्खो के लिए सर दर्द होता है | 
अदिति के अन्य अर्थ - अदिति : पृथ्वी (नि . १/१ ) वाक् - (नि.१/११) गौ (नि. २/११ ) ये इतने शब्द अदिति के अर्थ में है इन्ही का प्रयोग कर किया गया भाष्य ही सही होगा जबकि पौराणिक गाथा वाली अदिति नामक स्त्री के अर्थ वाला भाष्य तो सर्वथा त्याज्य है | अब जिस मन्त्र में अदिति के पुत्र आये है उसे देखते है - 
अष्टो पुत्रासो ......मास्यत (ऋग्वेद १०/७२/८ ) अर्थ अदिति (देवो की माता प्रक्रति ) से ८ पुत्र हुए उनमे ७ पूर्व युग में ओर आठवा मह्दंड अगले युग में हुआ | 
क्या कोई स्त्री के बालक होने में युग का अंतर होता है | यह प्रक्रति द्वारा ८ पदार्थो के निर्माण का वर्णन है |
अब हम इसकी ऐतिहासिक अदिति से तुलना करते है - (१) अदिति नाम आने से यह किसी भी तरह निश्चित नही होता कि यह अदिति लौकिक स्त्री है |
(२) पौराणिक कथाओ में कई तरह की बातें है अदिति कश्यप की पत्नी है कश्यप की अन्य अनेक पत्नी है जिनसे क्रमश देव ,दानव ,नाग ओर न जाने क्या क्या पैदा हुए जबकि मन्त्र में न कश्यप है न दिति ,न नाग न ओर कुछ |
(३) लौकिक अदिति के १२ पुत्र आदित्य थे लेकिन यहा ८ पुत्र है इससे स्पष्ट है कि प्रक्रति का अलंकारित वर्णन है |
आगे इस बात को लिख कर यह लेख समाप्त करता हु - रमात्मा ने सृष्टी के आरंभ में वेदों के शब्दों से ही सब वस्तुयों और प्राणियों के नाम और कर्म तथा लौकिक व्यवस्थायों की रचना की हैं. (मनु १.२१)
स्वयंभू परमात्मा ने सृष्टी के आरंभ में वेद रूप नित्य दिव्य वाणी का प्रकाश किया जिससे मनुष्यों के सब व्यवहार सिद्ध होते हैं (वेद व्यास,महाभारत शांति पर्व २३२/२४)..
महाभारत ओर मनु से यह बात स्पष्ट है कि वस्तुओ या लोगो को देख वेद में नाम नही दिए गये बल्कि वेदों से वस्तुओ ,मनुष्यों ने अपने नाम रखे इसी तरह ऋषियों ओर उनकी पत्नियों ने वेदों से अपने नाम रखे न कि वेदों में उन्हें देख नाम लिखे गये |
इसकी पुष्टि यह कथन करता है - मीमासा दर्शन में जैमिनी मुनि से कोई यही प्रश्न करता है - " अनित्यदर्शनाच्च ||१/१/२७ ||" अनित्य पुरुषो का नाम आने से वेद पौरुष है | 
उत्तर में जैमिनी कहते है -" परन्तु श्रुतिसामान्यमात्रम (१/१/३१ )" वेद में जो नाम है वो समान्य नाम है किसी मनुष्य आदि के नही | 
इन सभी प्रमाणों से वेदों में इतिहास ओर अदिति आदि के वर्णन की बात का खंडन हो जाता है | इसके बाद भी कोई न माने तो इसे उसका दुराग्रह ओर हठ धर्म समझे |
साहयक पुस्तक - ऋग्वेदभाष्य - स्वामी दयानद 
-ऋग्वेदभाष्य - हरिशरण जी सिद्धांतलंकार 
-निरुक्त -पंडित भगवतदत्त जी 
-निघंटु -स्वामी दयानद जी 
-वैदिक सिद्धांत मीमासा - युधिष्टर मीमासक जी 
-जिज्ञासु रचनामन्झरी -ब्रह्मदत्त जिज्ञासु जी ....

Saturday, June 6, 2015

क्या वेदों में बहुदेववाद ओर जड उपासना है |


ओ३म् ||
क्या वेदों में बहुदेववाद अर्थात बहुत से देवताओं की उपासना का उपदेश है ? क्या वेदों में जड पदार्थो की उपासना का उपदेश है ?
ये प्रश्न काफी समय से विभिन्न मत वाले शंकाओं वाले कपटवाले जिज्ञासु व्यक्तियों द्वारा वेदों पर किया गया है | जिसका समय समय पर उत्तर वैदिक विद्वानों ,आचार्यो द्वरा दिया जाता रहा है | आज भी ये प्रश्न बहुदा लोग उठाते है | इसके विभिन्न कारण है -
(१) वेदार्थ प्रक्रिया के ज्ञान का आभाव 
(२) वेदों के निम्न स्तर के भाष्यकारो के भाष्य को पढना 
(३) विदेश ,वाममार्गी वेद विरोधी पाखण्डियो द्वारा कुप्रचार ..
इन्ही बातो में फस लोग स्वयम जांच न कर वेदों पर आक्षेप लगाते है | हम यहा स्पष्ट करेंगे कि वेदों में बहुदेववाद ,जड की उपासना जेसा कुछ नही है |
वेद के प्रथम मन्त्र में अग्निमीळे शब्द आया है इसका अर्थ होता है अग्नि की स्तुति करते है ...यहा कुछ लोग स्तुति शब्द देख शंका करते है कि यहा जड अग्नि की उपासना है जबकि उन्हें पहले स्तुति शब्द पर विचार करना चाहिए | स्तुति का अर्थ होता है गुणों को बताना | वेदों में पदार्थ विद्या है ओर उन्ही पदार्थ के गुणों को वेद बताता है इसे ही स्तुति कहते है ..स्तुति के सन्धर्भ में मह्रिषी दयानंद सरस्वती अपनी ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका में लिखते है - "देव शब्द से स्वार्थ में तल प्रत्यय करने से देवता शब्द सिद्ध होता है | जो जो गुण जिस जिस पदार्थ में ईश्वर ने रचे है उन उन लेख उपदेश श्रवण विज्ञान करना तथा मनुष्य सृष्टि का गुण दोषों का लेख आदि करना इसको स्तुति कहते है | क्यूंकि जितना जिसमे गुण होगा उतना उतना उसमे देवपन होगा | जेसे किसी ने कहा कि यह तलवार काट करने में बहुत अच्छी है ओर निर्मल है काट करने से भी नही टूटती है धनुष के समान नभाने से भी नही टूटती है | इत्यादि तलवार के गुण कथन स्तुति है |(ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका ,वेदविषयविचार पृष्ठ संख्या ५० ) "
उपरोक्त कथन में ऋषि ने स्तुति के अर्थ पर प्रकाश डाला ,इस विषय में ओर कोई शंका न रहे इसलिए मै मीमासा दर्शन जो जैमिनी ऋषि द्वरा उपदेशित है का भी प्रमाण देता हु - स्तुति पर जैमिनी कहते है - "गुणवादस्तु (मीमासा १/२/१० )"जो स्तुतिवाद है वो गुणों का वर्णन अर्थात गुणवाद है | किसी पदार्थ की स्तुति करने से उसका अर्थ यह नही की उस पदार्थ उपासना ,प्रार्थना ,याचना हो गयी | उसका अर्थ है कि उसके गुण दोषों को बताया है | 
वेदों में बहुदेववाद अर्थात बहुत से देवताओ की उपासना नही है इसके विपरीत वेद ईश्वर की ही उपासना का उपदेश देता है | वेद में ईश्वर के लक्ष्ण क्या है सबसे पहले ये देखना चाहिए - "स पर्यगा...........समाभ्य: (यजु ४०/८ )
अर्थात वह परमेश्वर सर्वव्यापक सर्वशक्तिमान ,शरीररहित दोषरहित परमपवित्र नस नाडी के बंधन से रहित सर्वथा शुद्ध पापो से अलिप्त सर्वज्ञ सबकी चितवृतियो का ज्ञाता ,दुष्टों को दंड देने वाला ओर धर्मात्माओ की वृद्धि करने वाला है |
त्वमिन्द्रा.............महा असि (ऋग्वेद ८/१८/२ )
ईश्वर सबमे व्यापक ,सूर्य आदि लोको को प्रकाशित करने वाला ,सबको बनाने वाला ,सबका देव .बड़ा महान है | 
इस तरह वेदों ने ईश्वर के लक्षण को प्रकट किया | ईश्वर केवल एक है इस विषय में वेद कहता है - "न द्वितीयो .......एकवृतो भवन्ति " (अर्थववेद का. १३ /अनु.४ /मन्त्र १३/१७/१८/२०.२१ ////ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका ब्रह्मविद्याविषय: पृष्ठ ७२ ) अर्थात न दो न तीन न चार न पांच न छह न सात न आठ न नौ न दस ईश्वर है किन्तु वह ईश्वर एक ही है | 
इससे स्पष्ट है कि वेद एक ही ईश्वर को बताता है | ओर उसी ईश्वर की उपासना को कहता है | एक ही ईश्वर की उपासना करनी चाहिए इसको निरुक्तकार यास्क ऋषि भी कहते है - महाभाग्याद्देवता एक आत्मा बहुधा स्तुतये ....देवस्य ||" (निरुक्त ७/४ ) अर्थात व्यवहार के देवताओ की उपासना नही करनी चाहिए जो सबका आत्मा है उस एक ईश्वर की ही करनी उचित है | 
इसमें वेद भी यही कहता है - " यो देवेष्वधि देव एक आसीत् कस्मै देवाय हविषा विधेम ||"(ऋग्वेद १०/१२१/८ ) अर्थात जो समस्त देवो में एक ही महान देव विद्यमान है उसी आनंद स्वरूप महान देव की उपासना प्राथना याचना आदि करनी चाहिए | 
वेद ओर वेदों के ज्ञाता ऋषि ने स्पष्ट ईश्वर उपासना के लिए कहा है इसके विपरीत कोई केसे वेद में बहुदेववाद सोच सकता है | 
वेद में ऐसी शंका का कारण है वेदार्थ प्रक्रिया से अनभिज्ञ होना ...
इसके लिए सबसे पहले हमे वेदों के शब्द ओर लौकिक शब्द में अंतर समझना पड़ेगा .. वैदिक शब्द ओर लौकिक शब्द में बहुत अंतर है ..जो इन लौकिक ओर वैदिक शब्दों के भेद को नही जानता वो वेदों को नही समझ सकता है - शब्दों के दो भेद महाभाष्यकार पतंजली लिखते है " लौकिकाना वैदिकाना च " अर्थात शब्दों के दो भेद है लौकिक ओर वैदिक ..|
वैदिक शब्दों की क्या विशेषता है इस पर पतंजली कहते है -" नाम च धातुजमाह निरुकते व्याकरण शकटस्य च तोकम | नैगमरुढि हि सुसाधु (महाभाष्य ३/३/१ ) अर्थात सब नाम धातुज है वेद के शब्द रूढ़ नही होते | इसका अर्थ है कि वेद का एक शब्द अनेक अर्थ देता है ओर अनेक अर्थो के लिए एक शब्द भी होता है .. जेसे अग्नि शब्द को लेते है लौकिक में यह केवल भौतिक अग्नि के लिए है लेकिन वैदिक में यह शब्द "ईश्वर ,सूर्य ,राजा आदि के लिए भी है |" 
इसी कारण वेदों के विभिन्न प्रकार के अर्थ होते है जिनमे तीन मुख्य है अध्यात्मिक,आधिदैविक ,आधिभौतिक .. इसी बात की पुष्टि निरुक्त से होती है .. अर्थ वाच: पुष्पफलमाह -याज्ञदैवत ,पुष्पफले देवताध्यात्मे वा (निरुक्त १-२०/१) दिव्य वाणी वेद की याज्ञिक,आधिदेविक आध्यात्मिक ये त्रिविध अर्थ है | 
इस बात को निरुक्त की टीका करते हुए यास्क कहते है - " अध्यात्माधिदेवताधियज्ञाभिधायिना मंत्राणामर्था: परिज्ञायन्ते "-नि.टी.१/१८/१ 
अध्यात्मिक ,आधिदेविक ,याज्ञिक तीन अर्थ वेदों के होते है | 
इससे स्पष्ट है कि वेदों के अर्थ की मुख्यत तीन प्रक्रिया है इनमे उपासना विषय अध्यात्म से स्म्भन्धित है ओर उसमे जब अर्थ किया जाता है तो सभी मन्त्रो का मुख्य देवता ईश्वर माना जाता है अर्थात सभी में केवल ईश्वर की ही उपासना होगी ,,जिस मन्त्र का जो देवता है अध्यात्म में वो ईश्वर का ही अर्थ देगा .. जेसा कि कात्यायन ऋषि ने भी कहा है - ओमकार: सर्वदेवत्य: पारमेष्ठयो वा ब्रहमो देव आध्यात्मिक: -ऋकसर्वानुकर्मणि 
अर्थात अध्यात्म में सब ऋचाओ का देवता ओमकार अर्थात ब्रह्म है | 
इससे स्पष्ट है कि वेद में आये इंद्र ,अग्नि आदि नाम ईश्वर के भी वाचक है जब उपासना विषय होतो इनसे ईश्वर का ही ग्रहण होता है न कि जड आदि पदार्थो का ..यह नाम ईश्वर के भी है इसमें मनु का प्रमाण है - "प्रशासितारं सर्वेषामणीयांसमणोरपि । रुक्भाम स्वपनधीगम्य विद्यात्तं पुरुषम् परम् ।। एतमग्नि वदन्त्येके मनुमन्ये प्रजापतिम् । इन्द्र्मेके परे प्राणमपरे ब्रहम शाश्वतम् ।।(मनु॰ १२/१२२,१२३ ) स्वप्रकाश होने से अग्नि ,विज्ञानं स्वरूप होने से मनु ,सब का पालन करने से प्रजापति,और परम ऐश्वर्यवान होने से इंद्र ,सब का जीवनमूल होने से प्राण और निरंतर व्यापक होने से परमात्मा का नाम ब्रह्मा है .. अत स्पष्ट है कि इंद्र,प्रजापति नामो से ईश्वर की उपासना की है ..
स्वयम वेद भी यही कहता है - इंद्र ,मित्र ...........मातरिश्र्वानमाहु:(ऋग्वेद १/१६४/४६ ) विद्वान परमात्मा के एक होने पर भी बहुत से नाम कहते है ,उसी को इंद्र ,मित्र ,वरुण ,अग्नि ,अलौकिक ,शक्तियुक्त गौरववाला ,न्यायकारी ओर वायु कहते है | 
इससे स्पष्ट है कि ये नाम ईश्वर के भी है | 
इसको उदाहरण सहित समझाने के लिए ऋग्वेद का प्रथम मन्त्र लेते है :-
अग्निमीळे पुरोहितं यज्ञस्य देवमृतविज्म |होतार रत्नधातमम || "
इस मन्त्र का विस्तृत प्रमाणिक भाष्य ऋषि दयानंद जी ने करा है उसे अवश्य ही देखे साथ ही मै यहा कुछ सांकेतिक अर्थ देता हु ...
(१) अध्यात्म में /परमेश्वर पक्ष में - 
अग्नि शब्द ईश्वर का वाचक है इसका वेद ओर मनु से प्रमाण उपर दिया है ,स्वामी दयानद सरस्वती जी ने सत्यार्थ प्रकाश प्रथमसमुल्लास में इस विषय में विस्तृत व्याख्या की है जिसे अवश्य पढ़े | इसके अलावा अन्य प्रमाण भी देते है - 
वेद के पौराणिक भाष्यकार सायण भी अग्नि का अर्थ परमेश्वर लेते है अपने अर्थव वेद भाष्य में सायण लिखते है "एष परमात्मा अग्नि: -अर्थव २/१/४ " अर्थात वह परमात्मा अग्नि है | ब्रह्म वा अग्नि - शतपत २/५/४/८ ओर कौष्तिक ९/१ अर्थात ब्रह्म अग्नि है | इससे स्पष्ट है कि अग्नि शब्द ब्रह्म के लिए भी है अब इस मन्त्र का इसी पक्ष में अर्थ है - " पहले से जगत को धारण करने वाले,यज्ञ के प्रकाशक,प्रत्येक ऋतु में पूजनीय,सुन्दर पदार्थो को देने हारे,रमणीय रत्नादिको के पोषण करने वाले,प्रकाशस्वरूप ज्ञानमय परमेश्वर की स्तुति करता हूँ!"
अब इसी मन्त्र का भौतिक पक्ष में अर्थ होगा - शिल्प आदि के कर्ता ,पहले से छेदन भेदन आदि गुणों को धारण करने वाले ,प्रकाश युक्त ,गतिदेने वाले साधनों को सुसंगत करने वाले ,रमण करने वाले रथ आदि यंत्रो के धारक अग्नि की हम स्तुति अर्थात गुण कहते है | 
यहा अग्नि के गुण छेदन भेदन ओर जोड़ तोड़ कर (वैल्डिंग आदि ) पर हित करने से पुरोहित कहा है | प्रकाश आदि दिव्य गुण होने से देव कहा है क्यूंकि देव का अर्थ है जिसमे दिव्य गुण हो | गति देने से ऋत्वजम कहा है | इस तरह अग्नि के गुणों का वर्णन यहा है | इसी के अन्य तरह से भी अर्थ हो सकते है लेकिन एक बार ऋषि दयानंद जी का अर्थ अवश्य देखना चाहिए वेसा अर्थ कही नही मिलेगा |
अब यहा स्पष्ट हो जाता है कि वेदों में बहुदेवाद जड़वाद नही है | इस लेख में ओर भी प्रमाण हो सकते है जिससे इस विषय में एक पुस्तक आसानी से लिखी जा सकती है लेकिन समझदार को इशारा ही काफी होता है इसलिए काफी छांट छांट के बहुत कम प्रमाण यहाँ प्रस्तुत किये है अन्यथा हठी ,दुराग्रही ,मुर्ख को तो ब्रह्मा भी नही समझा सकता है | 
इस लेख को लिखने में मैंने अनेक वैदिक विद्वानों की पुस्तको का सहारा लिया वो है - (१) ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका ओर सत्यार्थ प्रकाश -स्वामी दयानंद सरस्वती जी 
(२) मीमासा दर्शन (जैमिनी ) अनुवाद - आर्यमुनि जी 
(३) पुराणों की हलचल -चन्द्रप्रकाश आर्य 
(४) निरुक्त (यास्क मुनि )-अनुवाद भगवत्त दत्त जी 
(५) जिज्ञासु रचनामन्झरी - पंडित ब्रह्मदत्त जिज्ञासु 
(६)त्रिदेवनिर्णय -शिवशंकर शर्मा 
(७) वैदिक सिद्धांतरत्नावली (आर्योदेशस्यरत्नमाला का भाष्य )-प्रो सत्यपाल शास्त्री 
(९)वेदार्थ भूमिका -स्वामी विद्यानंद सरस्वती 
(१०) वेद रहस्य -महात्मा नारायण स्वामी

Thursday, June 4, 2015

देशवासियों की अतिथि विषयक भ्रान्ति -


||ओ३म|| 
शास्त्रों में जीवन का रहस्य है उसमे विनम्रता के ओर संस्कार के भी उपदेश है लेकिन जब व्यक्ति शास्त्रों का अधुरा ज्ञान रखता है अथवा एक कड़ी ही देखता है तो कई बार अर्थ का अनर्थ करता है तो कई बार बहुत हानि उठाता है | ऐसे कई शास्त्रीय वचन है जिनका आधा अधुरा ज्ञान या समझ से इस भारत वर्ष ने काफी हानि उठाई है | 
जेसे अंहिसा परमो धर्म : ये अधुरा वाक्य का प्रचार बोद्ध ओर जैनों द्वारा हुआ जिसका परिणाम यह हुआ की नालंदा जल कर भस्म हो गया ओर असम का बोद्ध राजा डर कर भाग गया .. अफगानिस्थान बोद्ध राज्य से मुस्लिम देश बन गया ..
यदि धर्म हिसा तथेव च भी ध्यान रखा जाता तो ये नोबत न आती ...
इसी तरह हमने अतिथि देवो भव:याद रखा लेकिन इसका परिणाम यह हुआ की मुस्लिम अंग्रेजो को हम अतिथि की तरह शरण देते रहे ओर वो हमारी ही पीट में छुरा घोपते रहे आज भी बहुराष्ट्रीय विदेशी कम्पनियों ओर विदेशियों को अतिथि देवो भव: कह कर सम्मान दिया जा रहा है लेकिन हमने कभी ऐतरेयारण्य के १/१/९ की ओर ध्यान देना चाहिए .. " यो वै भवति य: श्रेष्ठतामश्नुते स वा अतिथिर्भवति,इति " अर्थात जो व्यक्ति सन्मार्गी होता है जो सन्मार्ग में प्रशंसा प्राप्त करता है ,वाही अतिथि होता है | 
यहा अतिथि किसे माने किसे देव माने उसका निर्देश किया है इसके विपरीत मुगल ,अंग्रेज ओर बहुराष्ट्रीयकंपनियों को अतिथि मान हमने काफी हानिया उठाई है ....
आगे इसी ऐतरय आरण्य में कहा है - : न वा असन्तमातिथ्यायाssद्रियन्ते ,इति (१/१/१० ) अर्थात सन्मार्ग रहित अतिथि का आदर नही करना चाहिए | 
यहाँ ऋषियों ने स्पष्ट कर दिया कि कौन अतिथि कहलाने योग्य है ओर किस तरह का अतिथि सम्मान पाने योग्य है ..जबकि इस पूरी बात को ध्यान न दे कर हमारा बुरा सोचने वाले ईसाई ,मुस्लिम को हमने अपने देश में सम्मान ओर प्रेम दिया ओर वो आज तक हमे नुक्सान पंहुचा रहे है ... 
इन सबसे यही निष्कर्ष निकलता है कि शास्त्रों के किसी मन्तव्य को जीवन में धारण करने से पूर्व उसके विषय में पूरा ज्ञान प्राप्त कर लेना चाहिए .. ऐतरय का यह श्लोक ऋग्वेद ७.७४ जो अथिति शब्द वाले सूक्त है उनमे आये अतिथि शब्द की व्याख्या को ले कर है .. ओर वेद किस प्रकार के अथिति को सम्मान की बात करता है उसके विषय में प्रकाश करता है क्यूंकि स्वामी दयानंद जी के अनुसार ब्राह्मण आदि शाखाए संहिताओ की व्याख्या है ....