Wednesday, November 18, 2015

भुत प्रेत मात्र अंधविश्वास है |

Image result for bhoot
लगभग कई कालो से लोग तरह तरह की बाते या द्रष्टान रख भुत पिशाच के अस्तित्व को पुष्ट करने की कोशिश करते है | कई जगह तो होरर पेलेस के नाम से फेमस कर दी गयी है | कुछ लोकोक्त कहानिया सुन और उसे उस जगह से जोड़ कर भूतो के अस्तित्व को दर्शाते है | जेसे कि भानगढ़ का किला लेकिन कोई अधिकाँश व्यक्ति बिना जाच किये इन पर यकीन कर लेते है | कुछ धार्मिक अंधविश्वास के चलते और कुछ बचपन की सुनी बातो और कहानियों के कारण क्यूंकि बचपन में हुई बातें कहानिया उनके मन पर संस्कार रूप अंकित हो जाती है जिससे दूर जाना सम्भव नही | अधिकाँश लोग जो ऐसी जगहों पर जाने पर मरे या किसी विशेष बिमारी से ग्रस्त पाए जाते है उन्हें लोग भूत बाधा या पिशाच का प्रकोप बता कर अंधविश्वास फैलाते है लेकिन यदि हम ऐसी घटनाओं पर गौर करे तो पता लगता है कि अधिकाँश लोग इन जगहों पर हर्ट अटेक से मरे है | मतलब ये लोग किसी भ्रम के कारण उत्पन्न भय से मरे है | इसी तरह मेरे साथ १०-१२ तक पढने वाला एक मित्र जो जयपुर के गलोबल कॉलेज से इलेक्ट्रिकल में ग्रेजुएट हुआ है वो भानगढ़ एक रात्री रुका था लेकिन उसे केवल सुनसानपन और कुछ झींगुर आदि की आवाजो के आलावा कुछ नही मिला | इससे तो यही समझ आता है वहा कुछ भुत जेसा नही है | कुछ स्थल काफी पुराने समय से भुत या देवताओ की कहानियों और पराशक्तियों से ग्रसित बताये जाते है | लेकिन हम कौटिल्य अर्थशास्त्र के निम्न श्लोक पढ़ते है तो समझ आता है कि कई स्थल को देवीय शक्ति युक्त या भुत पिशाच युक्त बताने का कारण वहा के पर्यटन स्थल में वृद्धि कर राज्य के खजाने में वृद्धि करना होता था | ऐसा करने पर विद्वान से लेकर अन्धविश्वासी मुर्ख भी उस जगह को देखने जाएगा | विद्वान जिज्ञासा वश और अन्धविश्वासी मन्नत मांगने के उद्देश्य से | कौटिल्य लिखते है - 
" दैवत चैत्य सिद्धपूण्यस्थानमौपादक वा रात्रावुथाप्य यात्रा समाजाभ्यामाजीवेत "अर्थात रात्रि में उठकर कही देवमंदिर या सिद्ध स्थान या कोई अद्भुत घटना खड़ी करके वहा यात्रा या समाज लगवा कर धन कमावे |
इस तरह जिन प्राचीन मन्दिरों ,किलो पर भुत देव प्रकोप प्रचारित किया जाता है उसके पीछे इसी तरह का कारण हो सकता है |
चाणक्य ने यह केवल राज्य धन वृद्धि में परामर्श के लिए कहा है जो कि आपातकाल में धन की कमी को पूरा करने का उपाय है इसके आलावा चाणक्य ने वास्तव में भुत प्रेत ,जादू टोना करके अंधविश्वास फैलाने वाले को बंदी बनाने को कहा है - " कृत्याभिचाराभ्या यत्परमापादयेत तदापादयित्वय: " अर्थात भुत प्रेत,जादू टोना आदि भय उत्पादक क्रियाये करने वाले व्यक्ति को तुरंत बंदी बना लेना चाहिए | 
इसी तरह मैत्र्युपनिषद में भी जादू टोना करने वालो को ठग और चोर कहा है - 
" अथ ये चान्ये यक्षराक्षसभूतगणपिशाचोरगग्रहादीनामर्थ पुरुस्कृत्य ' शमयाम ' इत्येव ब्रूवाणा अथ ये चान्येह वृथा कषायकुण्डलिन: कापालिनोSथ ये चान्ये ह वृथा तर्कदृष्टान्तकुहकेंद्रजालेवैदिकेषु परिस्थातुमिच्छन्ति तै: न संवसेत प्रकाशभूता वे ते तस्करा अस्वगर्या इति || मैत्र्युपनिषद ७/८ 
अर्थात जो लोग यक्ष ,राक्षस ,भूतगण,पिशाच ,ग्र्हादिक की मन्त्र तन्त्र द्वारा शान्ति करते है ,ऐसा कहते है उनका संग नही करना चाहिए वे चोर है ठग है ,अस्वर्ग्य है |
लेकिन हम इसके विपरीत सुश्रुत ,वेद आदि कई ग्रंथो में राक्षस ,भुत पिशाच आदि का उलेख देखते है ,लेकिन वास्तव में यह सब राक्षस ,भुत ,पिशाच ,प्रेत जेसा बताया जाता है वेसा नही होता यह कीटाणु ,क्रीमी और मृत शरीर (लाश ) सूक्ष्म शरीर (जो एक शरीर से दुसरे शरीर में जा कर जन्म लेता है ) के वाचक है | 
सुश्रुत संहिता सूत्रस्थान पर आता है - " नागा: पिशाचा गन्धर्वा पितरो यक्षराक्षसा: || अभिद्रवन्ति ये ये त्वा ब्रह्माद्या घन्तु तान्सदा || सूत्रस्थान ५/२१ || पृथ्वीव्यामन्तरिक्षे च ये चरति निशाचरा || सूत्रस्थान ५/२२ ||
अर्थात नाग ,पिशाच ,गन्धर्व ,पितर ,यक्ष ,राक्षस जो जो तेरे पर आक्रमण करते है उनको देवता आदि दूर करे | ये निशाचर पृथ्वी पर ,जल में ,वायु आकाश सब दिशाओं में विचरते है | 
यहा इनका स्थान सब दिशाओं ,प्रथ्वी ,वायु ,जल आदि बताया है जो की जीवाणु ,क्रीमी ,विषाणु का होता है | 
इसी तरह निरुक्त में पिशाच के लिए आया है - पिशाच: - पिशितमश्नाति इति -अर्थात जो मॉस खाता है वो पिशाच कहाता है | इस तरह के कई कीट ,रोग जन्तु होते है जो शरीर को रोगी कर मॉस ,धातु रक्त को क्षीण कर देते है |
अर्थववेद के आठवे काण्ड का ६ वा सूक्त विशेष रूप से राक्षसों .पिशाचो आदि का वर्णन करता है | इस सूक्त के पहले ही मन्त्र में दुर्णामा शब्द आया है | शेष मन्त्रो में दुर्णामा को गन्धर्व ,राक्षस ,पिशाच ,यातुधान आदि कहा गया है | दुर्णामा के बारे में ऋषि यास्क निरुक्त में लिखते है - " दुर्णामा क्रिमिर्भवति " अर्थात दुर्णामा किर्मियो (सूक्ष्म रोग जन्तु ) को कहते है | चुकी वेद ने राक्षस ,पिशाच , गन्धर्व ,यातुधान को दुर्णामा कहा है और दुर्णामा क्रिमी होता है अत: सुश्रुत के पूर्व लिखे श्लोक और वेदों में कई जगह यह रोग जन्तु के वाचक हुए | 
ऋषि दयानन्द जी अपनी कालजयी कृति सत्यार्थ प्रकाश दुसरे समुल्लास में भुत पिशाच का बहुत तीव्र खंडन कर तांत्रिक ,मान्त्रिक जेसे ठगों को फटकार लगाते है और भूत क्या होता है इसे बताते हुए लिखते है - " गुरो: प्रेतस्य शिष्यस्तु पितृमेध समाचरन | प्रेतहारे: सम तत्र दशरात्रेण शुद्धधयति || मनु ||
अर्थात जब शरीर का दाह हो चूका तब उस का नाम भुत होता है | ऋषि ने यहा मनु के प्रमाण से भुत प्रेत मृत शरीर अर्थात जो जीवन खत्म कर गुजर चूका हो उसे कहा है | 
न्याय दर्शन में आया है - पुनरूत्पति: प्रेत्यभाव: (१/१/१९ ) अर्थात मर कर पुन: जन्म लेने को प्रेत्याभाव कहते है| 
अत: वेदादि शास्त्रों में आये राक्षस ,पिशाच ,भुत आदि शब्द लोक प्रचलित विशेष विज्ञान विरुद्ध शक्तियों से युक्त कोई विशेष नही |
भुत आदि पर दिए जाने वाले कुछ तर्को की समीक्षा - 
कुछ लोग भुत प्रेत को सूक्ष्म शरीर युक्त आत्मा बताते है जो कि अकाल मृत्यु या किसी बुरे कर्म के कारण न तो मोक्ष प्राप्त कर पाती है न ही दूसरा शरीर ग्रहण कर पाती है | और लोगो को परेशान करना भटकना इनका कार्य बताते है |
यह सिद्धांत प्रथमत: वेद के विरुद्ध है क्यूंकि वेद में प्राणियों की दो ही गति लिखी है - " द्वे सृती .... पितर मातर च ||" यजु. १९/४७ अर्थात मनुष्य आदि सबके दो ही मार्ग है ,एक या तो उनकी मुक्ति हो जाये या फिर एक शरीर छोड़ कर दूसरा शरीर धारण कर बार बार माता पिताओं से उत्पन्न होते रहे |
वेद ने प्रेत रूप भटकने का कोई विधान नही दिया केवल पुनर्जन्म और मोक्ष ही बातया है | 
यहा विचारणीय बात यह है की भुत होने पर व्यक्ति मनुष्य समान कार्य तो कर ही सकता है और उससे विशेष भी जेसा की भुत आदि की कहानिया सुन पता लगता है तो ईश्वर को सूक्ष्म शरीर के आलावा स्थूल शरीर बनाने की आवश्यकता क्यूँ हुई जबकि सूक्ष्म शरीर के द्वारा ही आत्मा सभी कार्य कर सकती है | इससे सिद्ध है की बिना स्थूल शरीर के आत्मा कार्य करने में सक्ष्म नही है | इसलिए यदि कोई आत्मा द्वारा किसी को नुक्सान होना बताते है वह उनकी कल्पना है | आत्मा के साथ सूक्ष्म शरीर होता है जिसमे इन्द्रिया आदि होती है जेसे दृश्य इन्द्रिय ,स्वाद इन्द्रिय आदि लेकिन जब तक यह स्थूल शरीर के गोलको में नही आएँगी तब तक यह कार्य नही कर पाती | दृश्य इन्द्रिय नेत्र गोलको में स्थापित होने पर कार्य कर पाती है | और इसी तरह श्रोत और स्वाद इन्द्रिय कान और जीह्वा में स्थापित होने पर बिना इसके नही | इस लिए बिना स्थूल शरीर के जीव कार्य करने में सक्षम नही है | इसलिए भुत प्रेत में दिया यह सिद्धांत बिलकुल दूषित है | 
वेद के अलावा उपनिषद भी पुनर्जन्म को पुष्ट करते है न की भुत बनने को - 
" तद्यथा तृणजलायुका तृणस्यान्त गत्वा Sन्यमाक्रममाक्रम्या - त्मानमुपसंहरत्येवमेवायमात्मेद शरीर निहत्याSविद्या गमयित्वाSन्यमा -क्रममाक्रम्यात्मानमुपसंहरति || बृह. ४/४/३ ||
जेसे जोंक आदि कीट एक तिनके के अंतिम छोर को छोड़ दुसरे तिनके के अग्र भाग पर पहुचती है वेसे ही आत्मा एक शरीर को छोड़ दूसरा शरीर ग्रहण करती है |
यहा आत्मा का एक शरीर से वियोग होने पर दूसरा शरीर ग्रहण करना ही लिखा है | 
एतरय उपनिषद २/१/४ में " स इत: प्रयन्नेव पुनर्जायते " के शंकरभाष्य में लिखा है - वयोगतो गतवया जीर्ण: संप्रेति म्रि यते | स इतोSस्मात्प्रयन्नेव शरीर परित्यजन्नेव तृणजलुकावद देहान्तरमुपाददान: कर्मचित पुनर्जायते | अर्थात वृद्ध होने पर प्रेत (सूक्ष्म शरीर युक्त आत्मा ) मृत्यु को प्राप्त हो जाता है | वह तिनके की जोक के समान शरीर त्याग कर्मफलानुसार दूसरा शरीर प्राप्त करता है | 
इस तरह महाभारत में भी पुनर्जन्म का ही उलेख मिलता है - 
" आयुषोsन्ते प्रहायेद क्षीणप्राय कलेवरम | सम्भवत्येव युगपद योनो नास्त्यन्तराभाव: ||- वनपर्व १८३/७७ 
अर्थात आयु के क्षीण होने पर जर्जर शरीर का त्याग कर आत्मा दूसरा शरीर ग्रहण करती है |
इस तरह अनेको प्रमाण से सिद्ध होता है या तो मोक्ष होता है या पुनर्जन्म इसके आलावा कोई भुत ,पिशाच बन भटकने का उलेख नही है |
इसके अलावा हम अनेक मन्दिरों में या स्थलों पर देखते है की लोग हसने गाने ,नाचने जेसी विचित्र क्रियाए करते है जिसे यह बताया जाता है की इनके शरीर में कोई भुत ,प्रेत प्रवेश कर गया है | जेसा हमने पहले बताया की आत्मा सूक्ष्म और स्थूल शरीर से अपने कर्म करती है | बिना इनके नही | और जेसा बताया जाता है की शरीर में आत्मा का प्रवेश तो यदि एक शरीर में पहले से ही आत्मा है तो दूसरी आत्मा उस में प्रवेश नही कर सकती न ही कोई कार्य कर सकती क्यूंकि पूर्व उपस्थित आत्मा के साथ वाले सूक्ष्म शरीर मन आदि पहले से ही स्थुल शरीर के साथ संयोजित हो चूका है | जेसे नेत्रों में पहले से ही दृश्य इन्द्रिया संयोजित हो चुकी है इसमें किसी दूसरी दृश्य इन्द्रियों के लिए जगह ही नही अत: शरीर में दूसरी आत्मा घुस कार्य करती है यह तथ्य सत्य पर खरा नही उतरता है |
हम जो इस तरह की घटनाए जेसे सर हिलाना ,हसना ,रोना ,विचित्र क्रियाए देखते है उन्हें आयुर्वेद ने रोग विशेष बताये है न की कोई भुत पिशाच का चक्कर -
माधव निधान में इनके बारे में लिखा है - 
" रक्षाल्पशीतान्नविरेकधातुक्षयोपवासेरनिलोsतिवृद्ध: |
चिन्तादि दुष्ट हृदय प्रदुष्य बुद्धि स्मृति चाप्युपहन्ति शीघ्रम ||७||
प्रस्थानहास्य स्मितनृत्यगीतवागविक्षेपणरोदनानि |
पारुष्यकाक्श्र्यारुणवर्णताश्च जीर्ण बल चानिलजस्य रूपम ||८ ||
अर्थात रुखा और ठंडा अन्न खाने से ,अल्पभोजन करने से ,विरेचन अथवा वमन के मिथ्या योग से धातुओ के क्षीण होने से ,उपवास से अत्यंत वृद्धि को प्राप्त वायु ,चिन्ता और शोक आदि से पीड़ित ह्रदय को दूषित करके बुद्धि को नष्ट कर देता है | 
वातज उन्मादी रोगी अकारण हसता ,मुस्कुराता ,रोता नाचता गाता तथा बिना कारण बोलता है | हाथ पैर चलाता है रोता है | उसका शरीर रुक्ष दुर्बल और कुछ लाल वर्ण का हो जाता है | आहार क्षीण होने पर रोग बढ़ता है | 
इसी के परिशिष्ट सूचि के अंतर्गत योषापस्मार जो की स्त्रियों में सर हिलाना रोना हसना आदि देखा जाता है पर लिखा है - 
" वैचित्य बूद्धिविभ्रान्तिर्हास्य क्रन्दनमेव च |
उच्चे: क्रोश: प्रलपन ज्योतिद्वेषस्तथा भ्रम: ||
औध्दत्य श्वासकृच्छ च कंठामाशयवेदना |
प्राबल्य स्पर्शशक्तेश्च क्वचिदगे सदा कथा ||
अलीकवर्तुलोत्थानमाकण्ठमुदरादपि |
अत्यल्पबुद्धिमुर्च्या च व्याधावस्मिन प्रजायते || ७/८/९ 
अर्थात चित की विकलता ,मतिविभ्रम ,हसना ,रोना ,उची आवाज से पुकारना .अंटसंट बकना ,उजाले से अरुचि ,भ्रम ,उधम मचाना ,श्वास में कष्ट ,कण्ठ अमाशय में वेदना ,स्पर्श शक्ति की प्रबलता किन्ही अवयवो में पीड़ा ,मूर्च्छा आदि योषापस्मार रोग के लक्षण है |
इस तरह ये सब रोग बताये गये है न की भुत पिशाच का लग जाना | ऋषि दयानन्द ने बिलकुल ही ठीक लिखा है - अज्ञानी लोग वेदक शास्त्र वा पदार्थ विद्या पढने .सुनने और विचार से रहित होकर सन्निपातज्वरादी शारीरिक और उन्माद आदि मानस रोगों का नाम भुत प्रेत धरते है | (द्वितीय समुल्लास ) 
हम सबको इन अन्धविश्वासों से मुक्त होना चाहिए और लोगो में भी जागरूकता लानी चाहिए ताकि वे तांत्रिक आदि ठगों से बच सके | अपना धन और शरीर इन पर बर्बाद न करे | 
संधर्भित ग्रन्थ एवम पुस्तके -
(१) सत्यार्थ प्रकाश -ऋषि दयानन्द 
(२) सत्यार्थ भास्कर - स्वामी विद्यानन्द सरस्वती 
(३) कौटिल्य अर्थशास्त्र - आचार्य चाणक्य 
(४) न्याय दर्शन - गौतम मुनि 
(५) एतरय उपनिषद - मह्रिषी ऐतरय (भाष्यकार - शंकाराचार्य )
(६) एकादशोपनिषद - नारायण स्वामी 
(७) सुश्रुत संहिता - मह्रिषी धन्वन्तरी (टीका कार - मुरलीधर शर्मा )/प्रकाशन- खेमराज श्रीकृष्णदास मुम्बई 
(८) मीरपूरी सर्वस्व - बुद्धदेव मीरपूरी

Monday, October 26, 2015

विदेशो में रामायण और राम


मित्रो श्री राम जी की महानता के कारण उनकी प्रसिद्धि देश विदेश में हुई है बुद्ध का बोद्धो ने जितना प्रचार करा है अगर उतना श्री राम का होता तो आज बुद्ध की जगह चीन जापान (हालाकि बुद्ध यहा ३० % से भी कम है ) में राम जी का सिक्का चल रहा होता | ग्रीक में तो रामायण की नकल से एक महाकाव्य होमर ने इलियाड लिखा था जो हुबहू कुछ कुछ रामयाण जेसा है |और मिश्र के तो राजा राम के नाम से रामशेष नाम रखते थे | इसी तरह अनेक जगह रामायण और महाभारत का प्रभाव देखा जा सकता है | आगे जो लेख लिख रहे है वो लेख आर्यमुनि द्वारा अनुवादित रामायण भाग १ की प्रकाशीय वक्तव्य जो कि स्वामी ओमानंद सरस्वती जी ने लिखा है से लिया गया है | स्वामी ओमानद जी आयुर्वेद के साथ साथ इतिहास में भी विशेष रूचि रखते थे इन्होने अपने गुरुकुल झज्जर के संग्राहलय में काफी पुराने सिक्के और रामयाण को दर्शाती गुप्तकालीन मुर्तिया और महाभारत कालीन अस्त्र शस्त्रों का संग्रह किया है | इन्होने देश विदेश की यात्रा कर इतिहास ,महाभारत ,रामायण सम्बंधित बहुत सी जानकारिय इकट्ठी की और लाखो रुपए तक खर्च किये |हम लेख इसलिए लिख रहे है की जिन पाठको को वो रामायण सुलभ नही है वो यहा पढ़ लेंवे | इन्होने रामायण के प्राकथ्य में लिखा है - 
" विश्व की अनेक प्रसिद्ध भाषाओ अंग्रेजी ,रसियन ,जर्मन आदि में रामायण का अनुवाद मिलता है | मै (स्वामी ओमानंद जी ) अमेरिका के बर्कले विश्वविद्यालय में गया,वहा संस्कृत के ५-६ प्रवक्ता वाल्मीकि रामायण का अनुवाद इंग्लिश में क्र रहे थे | बर्कले विश्विद्यालय के इतिहास विभाग के प्रवक्ता प्रो. डा. जोयना विलियम्स के घर पर जर्मनी भाषा में रामायण देखने को मिली | इंडोनेशिया में योग्याकार्ता के पर्वत पर पत्थर की सुंदर मूर्तियों से निर्मित मर्यादापुरुषोतम श्री रामचन्द्र जी का जीवन चरित्र देखने को मिला | थाईलेंड की राजधानी बेंकोक में भित्तिचित्रों के द्वारा रामायण बड़े सुंदर द्र्श्यो में दर्शाई गयी (यह गूगल पर भी है इसमें विशेष कर मेघनाथ द्वारा नकली सीता का शव बना कर राम के पास भेजने की कथा है ) | बेंकाक के संग्राहलय के सामने अष्टधातु से बनी धनुर्धर राम की बड़ी सुंदर प्रतिमा है | जब मै प्रथम बार थाईलैंड गया तो उस समय वहा नवा राम राज्य कर रहा था | वहा अयोध्या नगरी और मिथिला पूरी भी बसी हुई है |
लन्दन के ब्रिटिश म्यूजियम की लायब्रेरी में हस्त लिखित वाल्मिक रामायण देखने का सोभाग्य प्राप्त हुआ | वह रामायण ४ खंडो में थी | उस रामायण का प्रत्येक खंड २०-२० किलो से कम भारी नही था, इस प्रकार उस रामायण में कम से कम २ मन भार होगा | यह रामायण उदयपुर के महाराजा जगतसिंह जी ने सम्व्न्त १७०३ में जैन साधू सोमदेव सूरी के द्वारा तैयार कर लिखवाई थी | यह बहुत ही सुंदर संस्करण है | इसके एक पृष्ठ पर अर्थ सहित श्लोक लिखे है तथा उसी पृष्ठ के सामने उसी वर्ण्य विषयवस्तु को अत्यंत सुंदर रंगीन चित्र के द्वारा दिखाया गया है | ब्रिटिश संग्राहलय में भारतीय कक्ष के संरक्षक मेरे (स्वामी जी ) के मित्र डब्ल्यू ज्वाल्फ़ की कृपा से यह सुंदर रामायण मुझे देखने का सोभाग्य मिला | मेने कई घंटे लगातार इस ग्रन्थ का अवलोकन किया |
बालिदीप में छाया चित्रों द्वारा प्रतिदिन रामायण और महाभारत का इतिहास दिखाया जाता है | पहली बार जब मै बालीदीप में गया तो महाभारत का युद्ध छायाचित्रों के द्वारा देखा था | बाली में रामायण महाभारत की बड़ी सुंदर मुर्तिया लकड़ी ,पत्थर ,चमडा और कागज की बनाई जाती है | अरबो रुपए की सुंदर मूर्तियों का विक्रय वहा प्रति वर्ष होता है | अन्य देशो से आने वाले पर्यटक यात्री इन्हें खरीद कर लाया करते थे |यह वहा का बड़ा व्यापार है |दो मुर्तिया मै भी खरीद कर लाया एक काष्ठ की माता सीता की और उसमे वीर हनुमान जी सीता जी को अंगूठी भेट कर रहे है | दूसरी युधिष्टर की चमड़े की | बाली की शिल्पकला में मूर्ति कला सबसे बड़ी है | इसकी अधिकतर आय इसी में वय होती है | किन्तु आश्चर्य और हर्ष की बात है कि वहा जितने भी मन्दिर है उनमे किसी भी महापुरुष की कोई प्रतिमा स्थापित नही है | न ही किसी की पूजा होती है | सारे बालीदीप में २५ लाख से भी अधिक वैदिक धर्मी है ,वे किसी भी मूर्ति की पूजा नही करते है | बालीदीप की भाषा में भी रामायण छप चुकी है |उस दीप पर भारत की तरह प्रचलित जातिया नही है किन्तु ब्राहमण ,क्षत्रिय ,वैश्य और शुद्र आदि वर्ण है |
यह सब देखकर मुझ पर प्रभाव पड़ा कि इन दीपो में अगस्त्य आदि ऋषि गये होंगे ,उन्होंने ही यहा वैदिक धर्म का प्रचार किया होगा | इसीलिए यहा के लोग संध्याउपासना करते है तो प्रथम गायत्री का पाठ करते है |वहा अगस्त्य कुंड और मन्दिर भी बने है | वेद भगवान की आज्ञा से वे लोग मुर्दे को जलाते है | मिलने पर नमोनम : बोल अभिवादन करते है | इन बातो से सिद्ध है कि भारत वर्ष की अपेक्षा बाली और थाईलेंड में रामायण का प्रभाव अधिक है | जब कि इसका मूलस्रोत भारत रहा है | भारत में श्री राम और के गुप्तकाल से पूर्व मन्दिर एटा हरयाना के जींद और राजस्थान के भादरा में मिले है | इनमे रामायण के द्र्श्यो से अंकित ३० मुर्तिया हमारे गुरुकुल झज्जर में है | इसी प्रकार महाभारत कालीन अस्त्र शस्त्र भी हमारे यहा कई सौ विद्यमान है |

Monday, September 7, 2015

क्या राजा दशरथ शिकार के लिए गये थे ? क्या राजा दशरथ ने हिरण के धोखे में श्रवण कुमार को मार दिया था ?

Image result for श्रवण कुमार Image result for श्रवण कुमार (चित्र साभार गूगल इमेज )
कुछ मासाहारी ,मुस्लिम ,राजपूत समुदाय (केवल मासाहारी ),कामरेड वादी ,संस्कृति द्रोही लोग सनातन धर्म में मासाहार सिद्ध करने के लिए राजा दशरथ द्वारा शिकार पर जाना ओर हिरण के धोखे में श्रवण को मारने का उलेख करते है | लेकिन उनकी यह बात बाल्मिक रामायण के अनुरूप नही है वे लोग आधा सच दिखाते है ओर आधा छुपाते है | राज्य व्यवस्था व न्याय के निपुण आचार्य चाणक्य (ऋषि वात्साययन ) भी अपने सूत्रों में शिकार का निषेध बताते हुए लिखते है - " मृगयापरस्य धर्मार्थो विनश्यत " (चाणक्यसूत्राणि ७२ ) अर्थात आखेट करने वाले ओर व्यवसनी के धर्म अर्थ नष्ट हो जाते है | जब इस काल के आचार्य निषेध करते है तब दशरथ के समय जब एक से बढ़ एक ऋषि थे जेसे वशिष्ठ ,गौतम ,श्रृंगी ,वामदेव ,विश्वामित्र तब कैसे दशरथ शिकार कर सकते है | रामयाण के अनुसार दशरथ वन में शिकार के लिए नही बल्कि व्यायाम के लिए गये थे जेसा कि बाल्मिक रामायण के अयोध्याकाण्ड अष्टचत्वारिश: सर्ग: में आया है -
तस्मिन्निति सूखे काले धनुष्मानिषुमान रथी |
व्यायामकृतसंकल्प: सरयूमन्वगान्नदीम ||८||
अथान्धकारेत्वश्रौष जले कुम्भस्य पूर्यत: |
अचक्षुर्विषये घोष वारणस्येवनर्दत: ||
अर्थ - उस अति सुखदायी काल में व्यायाम के संकल्प से धनुषबाण ले रथ पर चढ़कर संध्या समय सरयू नदी के तट पर आया ,वहा अँधेरे में नेत्रों की पहुच से परे जल से भरे जाते हुए घट का शब्द मैंने इस प्रकार सूना जेसे हाथी गर्ज रहा हो ||
यहा पता चलता है कि वे व्यायाम हेतु गये थे ओर उन्हें जो शब्द सुनाई दिया वो हाथी की गर्जना समान सुनाई दिया न कि हिरण के समान ... 
राजा दशरथ इसे हाथी समझ बेठे और उन्होंने इसे वश में करना चाहा | ये हम सभी जानते है कि राजाओं की सेना में हाथी रखे जाते है उनहे प्रशीक्षण दिया जाता है ये हाथी जंगल से पकड़े जाते है और हाथी पकड़ने के लिए उसे या तो किसी जगह फसाया जाता है या फिर बेहोश कर लाया जाता है अत: हाथी को बेहोश कर वश में करने के लिए दशरथ ने तीर छोड़ा न कि जीव हत्या या शिकार के उद्देश्य से | 
हाथी को सेना में रखने का उद्देश्य चाणक्य अपने अर्थशास्त्र में बताते है - 
" हस्तिप्रधानो हि विजयो राज्ञाम | परानीकव्यूहदुर्गस्कन्धावारप्रमर्दना ह्मातिप्रमाणशरीरा: प्राणहरकर्माण हस्तिन इति ||६ || (अर्थशास्त्र भूमिच्छिद्रविधानम ) अर्थात हस्तिविज्ञान के पंडितो के निर्देशानुसार श्रेष्ठ लक्षणों वाले हाथियों को पकड़ते रहने का अभियान सतत चलाना चाहिए ,क्यूंकि श्रेष्ठ हाथी ही राजा की विजय के प्रधान और निश्चित साधन है | विशाल और स्थूलकाय हाथी शत्रु सेना को , शत्रुसेना की व्यूह रचना को दुर्ग शिविरों को कुचलने तथा शत्रुओ के प्राण लेने में समर्थ होते है और इससे राजा की विजय निश्चित होती है |
राजा दशरथ ने भी हाथी को प्राप्त करने के लिए बाण छोड़ा था न कि मारने के लिए इसकी पुष्टि भी रामयाण के अयोध्याकाण्ड अष्टचत्वारिश सर्ग से होती है - 
ततोअहम शरमुध्दत्य दीप्तमाशीविषोपमम |
शब्द प्रति गजप्रेप्सुरभिलक्ष्यमपातयम ||
तत्र वागुषसि व्यक्ता प्रादुरासीव्दनौकस: |
हां हेति पततस्तोये वाणाद्व्यथितमर्मण:||
राजा दशरथ कहते है कि तब मैंने हाथी को प्राप्त करने की इच्छा से तीक्ष्ण बाण निकालकर शब्द को लक्ष्य में रखकर फैंका ,और जहा बाण गिरा वहा से दुखित मर्म वाले ,पानी में गिरते हुए मनुष्य की हा ! हाय ! ऐसी वाणी निकली ||
तो पाठक गण स्वयम ही देखे राजा दशरथ हाथी को वश में प्राप्त करना चाहते थे लेकिन ज्ञान न होने से तीर श्रवण को लग गया | ओर सम्भवत तीर ऐसा होगा (या तीर में लगा कोई विष ) जिससे हाथी आदि मात्र बेहोश होता है लेकिन मनुष्य उसे सह नही पाता और प्राण त्याग देता है इसलिए श्रवण उस तीर के घात को सह नही सका और प्राण त्याग दिए |
अत: शिकार और मासाहार के प्रकरण में दशरथ का उदाहरण देना केवल एक धोखा मात्र है |

Friday, September 4, 2015

राधा एक काल्पनिक पात्र

Image result for कृष्ण
मित्रो राधा नाम कि युवती का वास्तव में श्री कृष्ण से कोई सम्बन्ध नही है | यह पुराणकार विशेष कर ब्रह्मवैवर्त की कल्पना थी अन्य पुराण भागवत में भी उलेख नही मिलता है | श्री कृष्ण को लांछित करने के लिए यह कल्पना पुराणकार द्वार की गयी |
पहले कृष्ण के साथ राधा की मूर्ति नही हुआ करती थी किस प्रकार कृष्ण के साथ राधा की मूर्ति बनी यह जान्ने के लिए नीचे पढ़े -
पंडित हजारी प्रसाद द्विवेदी ने " मध्य कालीन धर्म साधना " में बड़ी उदारता पूर्वक स्वीकार किया है कि 'प्रेम विलास ' और भक्ति रत्नाकर के अनुसार नित्यानंद प्रभु की छोटी जाह्नवी देवी जब वृन्दावन गयी ,तो उन्हें ये देख बड़ा दुःख हुआ कि श्री कृष्ण के साथ राधा नाम की मूर्ति की कही पूजा नही होती है | घर लौटकर उन्होंने नयन भास्कर नामक कलाकार से राधा की मूर्ति बनवाई और उन्हें वृन्दावन भिजवाया | जीव गोस्वामी की आज्ञा से ये मुर्तिया श्री कृष्ण के पार्श्व में रखी गयी और तब से श्रीकृष्ण के साथ राधिका की भी पूजा होने लगी |
सोचिये जो व्यक्ति विवाह बाद १२ वर्ष ब्रह्मचर्य पूर्वक तपस्या कर पुत्र उत्त्पन्न करे | वो केसे अपने ब्रह्मचर्य काल में राधा जेसी काल्पनिक नारी से प्रेम कर सकता है या कोई सम्बन्ध स्थापित कर सकता है ये सब योगिराज कृष्ण को कलंकित करने वाली पोरानिक कथाये है | स्वयम कृष्ण अपने शब्दों में अपने विवाह बाद ब्रह्मचर्य पूर्वक १२ वर्ष साधना में रहने के बाद हुए पुत्र प्रद्युमन का उलेख कर कहते है - " ब्रह्मचर्य महदघोर तीर्त्वा द्वादशवार्षिकम |
हिमवत्पार्श्वमास्थाय यो मया तपसार्जित: ||(सौप्तिकपर्व ,अध्याय १२ ,श्लोक ३०)
................................................................................................................
अत: राधा एक काल्पनिक पात्र है | हमे कृष्ण जी के साथ उसे जोड़ उन्हें अपमानित नही करना चाहिए और राधा नाम जोड़ने से हम माता रुक्मणि के साथ कितना अन्याय करते है यह भी देखना चाहिए |  
;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;

Thursday, September 3, 2015

वर्षा और अग्निहोत्र (अग्निहोत्र की वैज्ञानिकता )

Image result for बादल
इस लेख के शौधकर्ता स्व. मीरीलाल जी गोयल है इस लेख को हम रामनाथ वेदालंकार कि पुस्तक आर्ष ज्योति से उद्द्र्त कर रहे है )
" यह तो सभी जानते है कि बादल बनने के लिए निम्नलिखित शर्ते आवश्यक है - 
(क) हवा में नमी का होना |
(ख) हवा में रेणु कणों का होना |
(ग) यदि हवा में रेणु कण न हो तो अल्ट्रा वायोलेट रेज ,एक्सरेज या रेडियम इमेनेशन गुजार कर कृत्रिम रेणु कण स्वयम बना लिए जाए | जो रेणु कणों का काम करे |
(घ) हवा को इतना ठंडा कर दिया जाए कि उस में विद्यमान पानी स्वयम जम जाए | इस अवस्था में पानी गैस के ही मौलिक्युल्स पर जम जाता है |
इन शर्तो के अतिरिक्त बादल बनने की विधि में निम्न लिखित शर्तो का जानना अत्यधिक आवश्यक है - 
(ङ) हवा में नमी की राशि |
(च) वायु मंडल का ताप परिमाण 
(छ) वायु के फेलने की गुंजाइश 
(ज) नमी के लिए रेणु कणों के गुण ,आकार और संख्या |
यह सब बादल बनने और बरसने की विधि से स्पष्ट हो जाएगा |
बादल बनने की विधि -
पृथ्वी के वायुमंडल की दो मुख्य परते है | एक १० किलोमीटर (६ मील ) की उंचाई तक और दूसरी उपर २०० किलोमीटर (१२४ ) की उचाई तक | वर्षा के प्रकरण में हमारा सम्बन्ध १० किलोमीटर के वायुमंडल से ही है , क्यूंकि इससे उपरली परत में हवा नही जाती और इसलिए वहा बादल नही बनते | हां कभी कभी प्रबल उर्ध्वमुख वायु की धारा नमी को उपर धकेल देती है ,जिससे बादल बन जाते है वे यहा स्पष्ट हो जाएगी |
समुद्र ,नदी आदि से पानी सदा उड़ता रहता है ,परन्तु फिर भी हवा अतृप्त रहती है | इसका कारण यह है कि नमी वाली गर्म हवा उर्ध्व गति वाली हवा द्वारा ऊपर धकेल दी जाती है और वहा की शुष्क और ठंडी हवा उसके स्थान पर नीचे आती रहती है | नीचे आ कर फिर वह पानी चुसना शुरू करती है | इस प्रकार चक्कर चलता रहता है | हवा जितनी अधिक गर्म होती है उतनी अधिक नमी लेती है | १० शतांश वाली हवा ११ श. वाली होने पर पहले से दुगनी नमी ले सकती है | ०८ श. पर हवा ०.२ श. नमी से ही तृप्त हो जाती है ,परन्तु ४५ श. की हवा को ५ श. नमी की आवश्यकता होती है | हवा की फ़ालतू नमी ही ,जो उसमे उसके ताप परिमाण की दृष्टि से अधिक होती है ,ओस बिंदु की शीतलता पर रेणु कणों पर जम सकती है | रेणु कणों के प्रकरण में यह भी लिखा जाएगा कि ये जरे जितने अधिक होते है उतने ही वर्षा बिंदु छोटे होते है और जितने छोटे बनेंगे उतना ही अधिक देर तक वे बादल के रूप में उपर टिके रहेंगे | बरसेंगे नही |
गर्म और नमीदार हवा उर्ध्व गति द्वारा उपर जाकर फ़ैल जाती है , क्यूंकि उपर दबाब कम होता है | फैलने के कारण वह ठंडी हो जाती है और जम कर बादल बना देती है | बादल की शक्ल और वह ऊचाई जिसपर वह नमी से बादल बन जाता है ,हवा की गर्मी ,उस की नमी और उपर धकलने वाली हवा की तेजी पर निर्भर है | हवा का जीतना तापमान ज्यादा होगा , उसमे जितनी नमी कम होगी और वह जितनी तेजी से उपर जायगी ,उतनी ही उचाई पर बादल बनेगा | अतृप्त हवा जहा जहा १०० गज उपर चढने पर १ शतांश ठंडी होती है वहा तृप्त हवा ०.४ श. ही ठंडी होती है |
आद्र हवा उपर चढने पर जितनी उंचाई तक पहुचती है वहा के दबाव के अनुसार एक दम फैलती ,ठंडी और अतिसंपृक्त होती है और जम जाती है |वायु मंडल में ज्यो ज्यो उपर चढ़ते जाते है ,त्यों त्यों हवा की घनता कम होती जाती है | ५० किलोमीटर तक दबाब लगातार घटता जाता है और वह नमी को बादल बनाने में बहुत साहयक है | 
हम उपर कह आये है कि बादल जमाने में रेणु कणों की संख्या ,गुण तथा आकार का बहुत बड़ा हाथ है | 
प्रथ्वी की पहली परत में नेत्रजन ,ओषजन ,कार्वन द्विओषजिद के अतिरिक्त पानी के ठोस कण भी बहुत होते है | ये जरे भार आदि के अनुसार उपर नीचे होकर चारो तहों में विभक्त हो जाते है | हल्के उपर और भारी नीचे रहते है | चारो तहों में से पहली प्रथ्वी से १ किलोमीटर तक , दूसरी ४ किलोमीटर तक ,तीसरी १० किलोमीटर तथा चौथी १० किलोमीटर से उपर होती है | एक म्यु परिमाण से बड़े जर्रे भारी होने के कारण पृथ्वी पर गिर पड़ते है | इन जर्रो का कम अधिक होना स्थान विशेष पर धुए आदि की मात्रा के कम अधिक होने और हवा चलने पर निर्भर है | ख़ास ख़ास जगहों पर १ घन सेंटीमीटर वायु में १०० जर्रे मिलते है ,परन्तु लन्दन जैसे शहर की १ घन सेंटी वायु में वे १ लाख से १.५ लाख तक पाए जाते है | धुली कणों के अतिरिक्त आयोनाइजेशन होने के कारण उन से बनने वाले जर्रो की संख्या भी भिन्न भिन्न होती है | 
जर्रो की संख्या के साथ ,बादल बनाने के लिए जर्रो का गुण अत्यंत आवश्यक है | बादल बनाने में ,द्र्वावस्था या ठोसावस्था के वे ही जर्रे काम आते है जो आद्रता चूसने वाले हो दुसरे नही | साधारण हवा में भी नत्रजन ,ओषजन तथा पानी पर सूर्य के प्रकाश के प्रभाव से आयोनाइजेशन होने के साथ साथ अमोनिया,उद्रजन ,परौषजिद और नाओ आदि बन जाते है | कोयला आदि से उत्पन्न गओ २ से गओ३ बन जाता है ,जो आद्रता को चूसने वाला है | इसी प्रकार ऋणविद्युताविष्ट आयन्स धनविद्युताविष्ट आयन्स की अपेक्षा नमी को जल्दी खींचते है ,परन्तु ६ डिग्री सुपरसेच्युरेशन पर धनविद्युताविष्टआयन्स ही अधिक काम करते है | 
जर्रो के गुण के साथ उनका आकार भी ध्यान देने योग्य है | उन्नतपृष्ठ जर्रो कि अपेक्षा नतपृष्ठ जर्रो पर अधिक वाष्व जमते है | ०.६३ म्यु से छोटे जर्रे विद्युताविष्ट होने पर ही नमी को खीचते है | परन्तु ध्यान रखने योग्य बात यह है कि जर्रो पर एक बार आद्रता का परत बन जाने पर फिर नमी जमती ही जाती है ,क्यूंकि नमी नमी को खीचती चली जाती है | 
यदि स्थान विशेष के जर्रो की संख्या स्थिर हो तो जितनी नमी कम होगी बिंदु उतने ही छोटे बनेंगे और वह जितनी अधिक होंगे बिंदु उतने ही बड़े बनेंगे | इसी बात को इस रूप में भी कहा जा सकता कि अधिक नमी वाली हवा जल्दी ठंडी होकर नीचे ही बादल बना लेगी और अधिक शुष्क हवा को पर्याप्त ऊचाई पर जाना पड़ेगा |
बादल बरसने की विधि -
वर्षा के विषय में मौजूद वैज्ञानिक सिद्धानात यह है कि वह उस समय होती है जब वायु की उर्ध्वगति हो | इससे हवा के साथ बादल उपर उठाता है और बहुत उपर जाने के कारण हवा की फ़ालतू नमी के बड़े बड़े बिंदु बन जाते है ,जो व्ही पर ठहर जाते है ज्यादा उपर नही जा सकते है | छोटे ,हल्के किन्तु संख्या में कम बिंदु उर्ध्वगति वाली वायु के साथ और उपर उठते है | उपर हवा अत्यधिक सम्प्रक्त होती है ,अत: उन थोड़े बिन्दुओ पर ही नमी जमनी प्रारम्भ होती है और वे पहले से बने बिन्दुओ से भी बड़े बन जाते है | अब ये बिंदु भारी होने के कारण नीचे गिरना प्रारम्भ करते है और नीचे ठहरे बिन्दुओ हुए बिन्दुओ में से गुजरते समय भिन्न विद्युत से आविष्ट या भिन्न घनता वाले होने के कारण उनसे नमी लेकर ०.४ से १ मि.मी व्यास वाले हो जाते है और फिर नीचे आने पर बरसे बिना नही रहते है | इससे स्पष्ट है कि वर्षा करने के लिए बादल में न्यूकिल्क्स का कम होना और उससे अधिक बादल का उपर चढना आवश्यक है | अन्यथा उपर के भाग में न्युकिल्यस की संख्या अधिक होने के कारण वर्षा रुक सकती है ,क्यूंकि उस अवस्था में बहुत छोटे छोटे बिंदु बनने के कारण बादल उपर ही ठहरे रहते है | बादलो की उपस्थति में अधिक आग लगने पर वर्षा हो जाने का कारण आग से उत्पन्न वायु की उर्ध्वगति ही है |
हवन गैस से वर्षा -
हवन गैस से वर्षा होने में कारण ज़हा एक सीमा तक हवन से उत्पन्न वेजले कार्बन के जर्रे है ,वहा उनसे भी अधिक घी के आद्रता चुसक जर्रे है | घी की परत वाले छोटे छोटे जर्रे नमी खीच सकते है | और एक बार नमी जमने से उन पर नमी जमती ही चली जाती है | कोयले के कई जर्रे जो घी की परत से ढक जाते है ऋणबिद्युतविष्ट देखे गये है ,जो स्वभावतय पानी को खीचते है | इस तरह साधारणतय छोटे हवन बादल बनाने और ऋतू के अनुसार वर्षा में साहयक होते है | किसी विशेष समय वर्षा लाने के लिए हवन को बड़ी मात्रा पर और विशेष विशेष पदार्थो ( जिनसे आद्रता चूसने वाले गैस या जर्रे बने ) करना आवश्यक है | बहुत बड़े हवन ही उर्ध्व गति के वायु को पैदा करके वर्षा लाने का काम कर सकते है | हवन में तेल घी जैसे आद्रता चूसने वाले पदार्थ होने के कारण बादल न होने पर भी नमी को खीच कर ,बादल बना कर वर्षा कर सकते है | जिनसे वर्षा रुक सके या बादल हट सके | इनमे ऐसे पदार्थ डाले जा सकते है जिनसे वर्षा रुक सके या बादल हट सके | इनमे ऐसे पदार्थ डाले जा सकते है जिससे बहुत मात्रा में ठोस कण बने और आद्रता को खीचने के स्थान पर उससे वाष्प बनाने का काम करे |
आशा है श्री गोयल के उक्त वैज्ञानिक विवेचन से पाठको को यह समझने में कुछ साहयता मिलेगी कि यज्ञ से वर्षा होने में वैज्ञानिक दृष्टिकोण क्या है ?