Wednesday, February 26, 2020

खारवेल का समय!





वाङ्मय और पुरातत्व के संतुलित अध्ययन से ही इतिहास के उचित निष्कर्ष तक पहुंचा जा सकता है। इनमें से किसी एक की भी पूरी तरह अवहेलना करने पर जो गुड गोबर होता है, उसकी एक झलक इस लेख में दिखलाते हैं। और वे लोग जो साहित्य को किनारे करके केवल पुरातत्व और शिलालेख से ही इतिहास निर्णय करते हैं वे किस प्रकार सही निष्कर्ष तक नहीं पहुंच पाते इसका एक उदाहरण देखिये - 
खारवेल नरेश ने अपने शिलालेख में मगध के जिस राजा को अपने पैरों में गिरवाया था वो राजा बृहस्पति मित्र वास्तव में कौन था? 
खारवेल के शिलालेख की 13 वीं पंक्ति में बृहस्पति मित्र का मगध राजा के रुप में उल्लेख आता है - 
मगधानं च विषुलं
भयं जनेते हथी सुगंगीय [] ल
पाययति [।] मागधं च राजानं
वहसतिमितं पादे वंदापयति
[] नंदराज-नीतं च कारलिंग-
जिनं संनिवेसं..........गह-रतनान
पडिहारेहि अंगमागध-वसु च
नेयाति [1]
- शिलालेख पंक्ति 13 
इस मगध राजा को इतिहासकार अपनी तुक्क बंदी में अग्निमित्र, पुष्यमित्र या अन्य शुंग वंश से जोडते हैं किंतु ये बात कल्पना मात्र है। मित्र नाम देखकर केवल पुष्यमित्र से जोडना हास्यास्पद ही है। अब देखें ये तुक्का किस प्रकार गलत है और बृहस्पति मित्र कौन है? इस पर हम विचार रखते हैं - 
खारवेल अपने ही शिलालेख की 8 वीं पंक्ति में एक यवनराजा दिमित्र का उल्लेख करता है जिसे उसने मथुरा से मारकर भगाया था। 
घातापयिता राजगहं
उप-
पीडापयति [।] एतिनं च कंमाप-
दान-संनादेन संवित-सेन-बाहनो
विपमुंचितु मधुरं अपयाते यवन-
राज डिमित....
[ मो ? ] यछति [वि]........ 
पंक्ति 8
इस शिलालेख की 8 वीं पंक्ति में यवनराजा का नाम दिमित्र है जिसे युनानी में Demetrious कहा गया है। अतः खारवेल और बृहस्पतिमित्र के समय यवन आक्रमणकारी यवनराजा दिमित्र था। जबकि पुष्यमित्र और अग्निमित्र के समय मिलिंद्र था। इसलिए किसी भी तरह से बृहस्पतिमित्र का अर्थ शुंग राजा या पुष्यमित्र लगाना उचित नहीं है। 
अब हम जानते हैं कि दिमित्र का आक्रमण किस मगध शासक के काल में हुआ था। इससे हम बृहस्पतिमित्र कौन था? ये भी जान जायेगें। 
इसके लिए हमें वाङ्मयों की ही तरफ आना पडेगा क्योंकि कितना ही शिलालेखों पर सर फोड लो, बृहस्पतिमित्र का निष्कर्ष प्राप्त नहीं होता है। 
दिमित्र को ही संस्कृत साहित्य में धर्ममीत लिखा है। इसने साकेत, मथुरा सहित अनेक क्षेत्रों पर आक्रमण किया था। युग पुराण में इस यवन राजा का नाम और इसके आक्रमण का उल्लेख है। 
युग पुराण में आया है - 
धर्ममीतमता वृद्धा जन भोक्षंति निर्भंया! / ५५
ततः साकेतमाक्रम्य पंचाला माथुरास्तथा ।
यवना युद्धविक्रांताः प्राप्स्यंति कुसुमध्वजं ॥ ४७ ॥
इसके आक्रमण के समय मगध पर जो राजा था उसका नाम भी युग पुराण में दिया है। वो राजा शालिशुक मौर्य था। 
युग पुराण में उसे भीरु, राष्ट्र और धर्मद्रोही बताया है। 
तस्विन्युषपुरे रम्ये जनराजाशताकुले ।
कततः कर्मसुतः शालिशूको भविष्यति ॥ ४४ ॥
स्वराष्ट्रमरदनो घोरे धर्मवादी अधा्मिकः ॥ ४५ ॥
अतः दिमित्र (धर्ममीत) और खारवेल के समय मगध पर शालिशुक मौर्य नामक राजा था। यदि हम शिलालेख, युग पुराण की आपस में तुलना करें तो बृहस्पतिमित्र कोई और नहीं बल्कि शालिशुक मौर्य ही सिद्ध होता है। क्योंकि दिमित्र का मथुरा पर कब्जा और उसे खारवेल द्वारा मथुरा से भगाना उसी समय मगध पर बृहस्पतिमित्र का होना जिसका खारवेल के पैरों में गिरना और युग पुराण में दिमित्र के समय शालिशुक मौर्य का होना आदि। समानाधिकरण से शालिशुक को ही बृहस्पतिमित्र सिद्ध करते हैं। 
इसमें एक सबसे बडा प्रमाण भगवद् दत्त जी की वृहद भारत का इतिहास के भाग दो से मिलता है, इस ग्रंथ में पुराण और दिव्यवदान की तुलना से मौर्य राजाओं की एक वंशावली बनाई है। जिसे चित्र में देख सकते हैं। पुराण में संप्रति का पुत्र शालिशुक मोर्य लिखा है वहीं दिव्यवदान में संप्रति का पुत्र बृहस्पतिमित्र लिखा है। यहां यदि समानता देखी जाये तो शालिशुक का ही अपरनाम बृहस्पतिमित्र सिद्ध होता है। 
राजा खारवेल ने जैन अरिहंतों के साथ साथ ब्राह्मणों को भी दान दिये थे। जिसमें सोना, रथ, घर और अग्नि होत्र गृह थे। अपने शिलालेख में लिखा है - 
कपरुखे
हय-गज -रध-सह- यंते
सवघरावास-परिवसने स-अगिण-
ठिया [I] सव-गहनं च कारयितु
बम्हणानं जाति परिहार ददाति
10 पंक्ति
अतः पालि का बामण और ब्राह्मण एक ही है और मौर्यकाल में भी अग्निहोत्री ब्राह्मण थे। ये इससे सिद्ध होता है। 
अतः पुरातत्व, वाङ्मय के संतुलित निर्णय से ही इतिहास के सही निष्कर्ष तक पहुंचा जा सकता है। 
मथुरा से प्राप्त संस्कृत का यवनराज नाम से उल्लेखित शिलालेख यवनराजा दिमित्र के 116 वें वर्ष का है जिसे चित्र में देख सकते हैं। 
संदर्भित ग्रंथ एवं पुस्तकें - 
1) युग पुराण
2) भारतवर्ष का वृहद इतिहास
3) खारवेल का अभिलेख
4) यवनराज शिलालेख मथुरा संग्राहलय

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