कई मित्र यह कहते है की केवल हिंदी या संस्कृत ही बोलनी सीखनी चाहिए अन्य भाषा नही | उनका यह कथन उनकी अल्प मानसिकता ओर ऋषि सिद्धान्त से अनभिज्ञता दर्शाता है | चाणक्य ने तो व्यापार विद्या की प्राप्ति के लिए दूर देशो के भ्रमण को भी लिखा है | मह्रिषी पातंजली (महाभाष्यकार ) अपने महाभाष्य में लिखते है – “ अपशब्दज्ञानपूर्
(२) वैदिक सम्पति – रघुनन्दन प्रसाद शर्मा
(३) भाषा का इतिहास – भगवतदत्त जी
(४) भाषा का विज्ञान – रघुनन्दन प्रसाद शर्मा
(५) मत मतान्तर का मूल स्रोत वेद – लक्ष्मण जी आर्योपदेशक
इन पुस्तको में पढ़ सकते है ये सभी पुस्तक गोविंदारामहासान
इस तरह संस्कृत से विकृत रूप में अन्य भाषा के शब्द बने इसलिए भाष्यकार ने उन्हें अपशब्द (बिगड़े शब्द ) की संज्ञा दी ओर उनका अभ्यास करने को अर्थात सीखने को कहा | चुकी इससे भी संस्कृत भाषा में ही ज्ञान बढ़ता है क्यूंकि सही तरह से अन्य भाषा सीखने को अनुसन्धान करने से हम ये समझ जाते है की ये शब्द इस तरह संस्कृत से बना इसी लिए सूत्र में कहा है अपशब्द ज्ञान के द्वारा शब्द का ज्ञान करे |
हमारे इतिहास में भी राजाओ ,ओर विद्वानों का अन्य देशो में गमन लिखा है क्या वे बिना उस देश की भाषा सीखे वहा व्यवहार कर सकते थे ?: कदापि नही महाभारत आदिपर्व १४४ .२० में राजसूय ओर अश्वमेध यज्ञ में देशदेशान्त्र के राजा आये थे क्या बिना भाषा सीखे उन्हें आमंत्रित किया जा सकता है ? नही ! इससे स्पष्ट है की आज जोश में जेसा अन्य भाषाओं के सीखने का विरोध हो रहा है वो हमारी संस्कृत ओर ऋषियों के सिद्धांत के विरुद्ध ही है | क्यूंकि कोई भाषा सीखने में दोष नही होता बल्कि गुण ही होता है ओर नई जानकारिय भी प्राप्त होती है |
लेकिन मै इस बात समर्थन अवश्य करता हु की प्राथमिकता सभी को संस्कृत को देनी चाहिए | ओर तकनीकी शिक्षा .राजनेति आदि कार्यो में हिंदी या मातृभाषा में ही होने चाहिए | हमे किसी देश की संस्कृति की नकल या पश्चिम सभ्यता की नकल नही करनी चाहिए बल्कि अपनी ही संस्कृति ओर सभ्यता को अपनाना चाहिए | भाषा सीखना तो ज्ञान का विषय है लेकिन अन्धाधुन अनुसरण करना मात्र मुर्खता ओर नकलची बन्दर होने का गुण है | अत: भाषा जितनी हो सके सीखे लेकिन नकल या अन्धाधुन अनुसरण कर अपनी संस्कृति को आघात न करे |
(नोट – इस लेख के प्रमाण स्वामी दयानंद जी कृत सत्यार्थ प्रकाश के प्रथमं संस्करण से है जो आज के संस्करण में नही छपते है )
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