Saturday, June 6, 2015

क्या वेदों में बहुदेववाद ओर जड उपासना है |


ओ३म् ||
क्या वेदों में बहुदेववाद अर्थात बहुत से देवताओं की उपासना का उपदेश है ? क्या वेदों में जड पदार्थो की उपासना का उपदेश है ?
ये प्रश्न काफी समय से विभिन्न मत वाले शंकाओं वाले कपटवाले जिज्ञासु व्यक्तियों द्वारा वेदों पर किया गया है | जिसका समय समय पर उत्तर वैदिक विद्वानों ,आचार्यो द्वरा दिया जाता रहा है | आज भी ये प्रश्न बहुदा लोग उठाते है | इसके विभिन्न कारण है -
(१) वेदार्थ प्रक्रिया के ज्ञान का आभाव 
(२) वेदों के निम्न स्तर के भाष्यकारो के भाष्य को पढना 
(३) विदेश ,वाममार्गी वेद विरोधी पाखण्डियो द्वारा कुप्रचार ..
इन्ही बातो में फस लोग स्वयम जांच न कर वेदों पर आक्षेप लगाते है | हम यहा स्पष्ट करेंगे कि वेदों में बहुदेववाद ,जड की उपासना जेसा कुछ नही है |
वेद के प्रथम मन्त्र में अग्निमीळे शब्द आया है इसका अर्थ होता है अग्नि की स्तुति करते है ...यहा कुछ लोग स्तुति शब्द देख शंका करते है कि यहा जड अग्नि की उपासना है जबकि उन्हें पहले स्तुति शब्द पर विचार करना चाहिए | स्तुति का अर्थ होता है गुणों को बताना | वेदों में पदार्थ विद्या है ओर उन्ही पदार्थ के गुणों को वेद बताता है इसे ही स्तुति कहते है ..स्तुति के सन्धर्भ में मह्रिषी दयानंद सरस्वती अपनी ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका में लिखते है - "देव शब्द से स्वार्थ में तल प्रत्यय करने से देवता शब्द सिद्ध होता है | जो जो गुण जिस जिस पदार्थ में ईश्वर ने रचे है उन उन लेख उपदेश श्रवण विज्ञान करना तथा मनुष्य सृष्टि का गुण दोषों का लेख आदि करना इसको स्तुति कहते है | क्यूंकि जितना जिसमे गुण होगा उतना उतना उसमे देवपन होगा | जेसे किसी ने कहा कि यह तलवार काट करने में बहुत अच्छी है ओर निर्मल है काट करने से भी नही टूटती है धनुष के समान नभाने से भी नही टूटती है | इत्यादि तलवार के गुण कथन स्तुति है |(ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका ,वेदविषयविचार पृष्ठ संख्या ५० ) "
उपरोक्त कथन में ऋषि ने स्तुति के अर्थ पर प्रकाश डाला ,इस विषय में ओर कोई शंका न रहे इसलिए मै मीमासा दर्शन जो जैमिनी ऋषि द्वरा उपदेशित है का भी प्रमाण देता हु - स्तुति पर जैमिनी कहते है - "गुणवादस्तु (मीमासा १/२/१० )"जो स्तुतिवाद है वो गुणों का वर्णन अर्थात गुणवाद है | किसी पदार्थ की स्तुति करने से उसका अर्थ यह नही की उस पदार्थ उपासना ,प्रार्थना ,याचना हो गयी | उसका अर्थ है कि उसके गुण दोषों को बताया है | 
वेदों में बहुदेववाद अर्थात बहुत से देवताओ की उपासना नही है इसके विपरीत वेद ईश्वर की ही उपासना का उपदेश देता है | वेद में ईश्वर के लक्ष्ण क्या है सबसे पहले ये देखना चाहिए - "स पर्यगा...........समाभ्य: (यजु ४०/८ )
अर्थात वह परमेश्वर सर्वव्यापक सर्वशक्तिमान ,शरीररहित दोषरहित परमपवित्र नस नाडी के बंधन से रहित सर्वथा शुद्ध पापो से अलिप्त सर्वज्ञ सबकी चितवृतियो का ज्ञाता ,दुष्टों को दंड देने वाला ओर धर्मात्माओ की वृद्धि करने वाला है |
त्वमिन्द्रा.............महा असि (ऋग्वेद ८/१८/२ )
ईश्वर सबमे व्यापक ,सूर्य आदि लोको को प्रकाशित करने वाला ,सबको बनाने वाला ,सबका देव .बड़ा महान है | 
इस तरह वेदों ने ईश्वर के लक्षण को प्रकट किया | ईश्वर केवल एक है इस विषय में वेद कहता है - "न द्वितीयो .......एकवृतो भवन्ति " (अर्थववेद का. १३ /अनु.४ /मन्त्र १३/१७/१८/२०.२१ ////ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका ब्रह्मविद्याविषय: पृष्ठ ७२ ) अर्थात न दो न तीन न चार न पांच न छह न सात न आठ न नौ न दस ईश्वर है किन्तु वह ईश्वर एक ही है | 
इससे स्पष्ट है कि वेद एक ही ईश्वर को बताता है | ओर उसी ईश्वर की उपासना को कहता है | एक ही ईश्वर की उपासना करनी चाहिए इसको निरुक्तकार यास्क ऋषि भी कहते है - महाभाग्याद्देवता एक आत्मा बहुधा स्तुतये ....देवस्य ||" (निरुक्त ७/४ ) अर्थात व्यवहार के देवताओ की उपासना नही करनी चाहिए जो सबका आत्मा है उस एक ईश्वर की ही करनी उचित है | 
इसमें वेद भी यही कहता है - " यो देवेष्वधि देव एक आसीत् कस्मै देवाय हविषा विधेम ||"(ऋग्वेद १०/१२१/८ ) अर्थात जो समस्त देवो में एक ही महान देव विद्यमान है उसी आनंद स्वरूप महान देव की उपासना प्राथना याचना आदि करनी चाहिए | 
वेद ओर वेदों के ज्ञाता ऋषि ने स्पष्ट ईश्वर उपासना के लिए कहा है इसके विपरीत कोई केसे वेद में बहुदेववाद सोच सकता है | 
वेद में ऐसी शंका का कारण है वेदार्थ प्रक्रिया से अनभिज्ञ होना ...
इसके लिए सबसे पहले हमे वेदों के शब्द ओर लौकिक शब्द में अंतर समझना पड़ेगा .. वैदिक शब्द ओर लौकिक शब्द में बहुत अंतर है ..जो इन लौकिक ओर वैदिक शब्दों के भेद को नही जानता वो वेदों को नही समझ सकता है - शब्दों के दो भेद महाभाष्यकार पतंजली लिखते है " लौकिकाना वैदिकाना च " अर्थात शब्दों के दो भेद है लौकिक ओर वैदिक ..|
वैदिक शब्दों की क्या विशेषता है इस पर पतंजली कहते है -" नाम च धातुजमाह निरुकते व्याकरण शकटस्य च तोकम | नैगमरुढि हि सुसाधु (महाभाष्य ३/३/१ ) अर्थात सब नाम धातुज है वेद के शब्द रूढ़ नही होते | इसका अर्थ है कि वेद का एक शब्द अनेक अर्थ देता है ओर अनेक अर्थो के लिए एक शब्द भी होता है .. जेसे अग्नि शब्द को लेते है लौकिक में यह केवल भौतिक अग्नि के लिए है लेकिन वैदिक में यह शब्द "ईश्वर ,सूर्य ,राजा आदि के लिए भी है |" 
इसी कारण वेदों के विभिन्न प्रकार के अर्थ होते है जिनमे तीन मुख्य है अध्यात्मिक,आधिदैविक ,आधिभौतिक .. इसी बात की पुष्टि निरुक्त से होती है .. अर्थ वाच: पुष्पफलमाह -याज्ञदैवत ,पुष्पफले देवताध्यात्मे वा (निरुक्त १-२०/१) दिव्य वाणी वेद की याज्ञिक,आधिदेविक आध्यात्मिक ये त्रिविध अर्थ है | 
इस बात को निरुक्त की टीका करते हुए यास्क कहते है - " अध्यात्माधिदेवताधियज्ञाभिधायिना मंत्राणामर्था: परिज्ञायन्ते "-नि.टी.१/१८/१ 
अध्यात्मिक ,आधिदेविक ,याज्ञिक तीन अर्थ वेदों के होते है | 
इससे स्पष्ट है कि वेदों के अर्थ की मुख्यत तीन प्रक्रिया है इनमे उपासना विषय अध्यात्म से स्म्भन्धित है ओर उसमे जब अर्थ किया जाता है तो सभी मन्त्रो का मुख्य देवता ईश्वर माना जाता है अर्थात सभी में केवल ईश्वर की ही उपासना होगी ,,जिस मन्त्र का जो देवता है अध्यात्म में वो ईश्वर का ही अर्थ देगा .. जेसा कि कात्यायन ऋषि ने भी कहा है - ओमकार: सर्वदेवत्य: पारमेष्ठयो वा ब्रहमो देव आध्यात्मिक: -ऋकसर्वानुकर्मणि 
अर्थात अध्यात्म में सब ऋचाओ का देवता ओमकार अर्थात ब्रह्म है | 
इससे स्पष्ट है कि वेद में आये इंद्र ,अग्नि आदि नाम ईश्वर के भी वाचक है जब उपासना विषय होतो इनसे ईश्वर का ही ग्रहण होता है न कि जड आदि पदार्थो का ..यह नाम ईश्वर के भी है इसमें मनु का प्रमाण है - "प्रशासितारं सर्वेषामणीयांसमणोरपि । रुक्भाम स्वपनधीगम्य विद्यात्तं पुरुषम् परम् ।। एतमग्नि वदन्त्येके मनुमन्ये प्रजापतिम् । इन्द्र्मेके परे प्राणमपरे ब्रहम शाश्वतम् ।।(मनु॰ १२/१२२,१२३ ) स्वप्रकाश होने से अग्नि ,विज्ञानं स्वरूप होने से मनु ,सब का पालन करने से प्रजापति,और परम ऐश्वर्यवान होने से इंद्र ,सब का जीवनमूल होने से प्राण और निरंतर व्यापक होने से परमात्मा का नाम ब्रह्मा है .. अत स्पष्ट है कि इंद्र,प्रजापति नामो से ईश्वर की उपासना की है ..
स्वयम वेद भी यही कहता है - इंद्र ,मित्र ...........मातरिश्र्वानमाहु:(ऋग्वेद १/१६४/४६ ) विद्वान परमात्मा के एक होने पर भी बहुत से नाम कहते है ,उसी को इंद्र ,मित्र ,वरुण ,अग्नि ,अलौकिक ,शक्तियुक्त गौरववाला ,न्यायकारी ओर वायु कहते है | 
इससे स्पष्ट है कि ये नाम ईश्वर के भी है | 
इसको उदाहरण सहित समझाने के लिए ऋग्वेद का प्रथम मन्त्र लेते है :-
अग्निमीळे पुरोहितं यज्ञस्य देवमृतविज्म |होतार रत्नधातमम || "
इस मन्त्र का विस्तृत प्रमाणिक भाष्य ऋषि दयानंद जी ने करा है उसे अवश्य ही देखे साथ ही मै यहा कुछ सांकेतिक अर्थ देता हु ...
(१) अध्यात्म में /परमेश्वर पक्ष में - 
अग्नि शब्द ईश्वर का वाचक है इसका वेद ओर मनु से प्रमाण उपर दिया है ,स्वामी दयानद सरस्वती जी ने सत्यार्थ प्रकाश प्रथमसमुल्लास में इस विषय में विस्तृत व्याख्या की है जिसे अवश्य पढ़े | इसके अलावा अन्य प्रमाण भी देते है - 
वेद के पौराणिक भाष्यकार सायण भी अग्नि का अर्थ परमेश्वर लेते है अपने अर्थव वेद भाष्य में सायण लिखते है "एष परमात्मा अग्नि: -अर्थव २/१/४ " अर्थात वह परमात्मा अग्नि है | ब्रह्म वा अग्नि - शतपत २/५/४/८ ओर कौष्तिक ९/१ अर्थात ब्रह्म अग्नि है | इससे स्पष्ट है कि अग्नि शब्द ब्रह्म के लिए भी है अब इस मन्त्र का इसी पक्ष में अर्थ है - " पहले से जगत को धारण करने वाले,यज्ञ के प्रकाशक,प्रत्येक ऋतु में पूजनीय,सुन्दर पदार्थो को देने हारे,रमणीय रत्नादिको के पोषण करने वाले,प्रकाशस्वरूप ज्ञानमय परमेश्वर की स्तुति करता हूँ!"
अब इसी मन्त्र का भौतिक पक्ष में अर्थ होगा - शिल्प आदि के कर्ता ,पहले से छेदन भेदन आदि गुणों को धारण करने वाले ,प्रकाश युक्त ,गतिदेने वाले साधनों को सुसंगत करने वाले ,रमण करने वाले रथ आदि यंत्रो के धारक अग्नि की हम स्तुति अर्थात गुण कहते है | 
यहा अग्नि के गुण छेदन भेदन ओर जोड़ तोड़ कर (वैल्डिंग आदि ) पर हित करने से पुरोहित कहा है | प्रकाश आदि दिव्य गुण होने से देव कहा है क्यूंकि देव का अर्थ है जिसमे दिव्य गुण हो | गति देने से ऋत्वजम कहा है | इस तरह अग्नि के गुणों का वर्णन यहा है | इसी के अन्य तरह से भी अर्थ हो सकते है लेकिन एक बार ऋषि दयानंद जी का अर्थ अवश्य देखना चाहिए वेसा अर्थ कही नही मिलेगा |
अब यहा स्पष्ट हो जाता है कि वेदों में बहुदेवाद जड़वाद नही है | इस लेख में ओर भी प्रमाण हो सकते है जिससे इस विषय में एक पुस्तक आसानी से लिखी जा सकती है लेकिन समझदार को इशारा ही काफी होता है इसलिए काफी छांट छांट के बहुत कम प्रमाण यहाँ प्रस्तुत किये है अन्यथा हठी ,दुराग्रही ,मुर्ख को तो ब्रह्मा भी नही समझा सकता है | 
इस लेख को लिखने में मैंने अनेक वैदिक विद्वानों की पुस्तको का सहारा लिया वो है - (१) ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका ओर सत्यार्थ प्रकाश -स्वामी दयानंद सरस्वती जी 
(२) मीमासा दर्शन (जैमिनी ) अनुवाद - आर्यमुनि जी 
(३) पुराणों की हलचल -चन्द्रप्रकाश आर्य 
(४) निरुक्त (यास्क मुनि )-अनुवाद भगवत्त दत्त जी 
(५) जिज्ञासु रचनामन्झरी - पंडित ब्रह्मदत्त जिज्ञासु 
(६)त्रिदेवनिर्णय -शिवशंकर शर्मा 
(७) वैदिक सिद्धांतरत्नावली (आर्योदेशस्यरत्नमाला का भाष्य )-प्रो सत्यपाल शास्त्री 
(९)वेदार्थ भूमिका -स्वामी विद्यानंद सरस्वती 
(१०) वेद रहस्य -महात्मा नारायण स्वामी

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