इस लेख के शौधकर्ता स्व. मीरीलाल जी गोयल है इस लेख को हम रामनाथ वेदालंकार कि पुस्तक आर्ष ज्योति से उद्द्र्त कर रहे है )
" यह तो सभी जानते है कि बादल बनने के लिए निम्नलिखित शर्ते आवश्यक है -
(क) हवा में नमी का होना |
(ख) हवा में रेणु कणों का होना |
(ग) यदि हवा में रेणु कण न हो तो अल्ट्रा वायोलेट रेज ,एक्सरेज या रेडियम इमेनेशन गुजार कर कृत्रिम रेणु कण स्वयम बना लिए जाए | जो रेणु कणों का काम करे |
(घ) हवा को इतना ठंडा कर दिया जाए कि उस में विद्यमान पानी स्वयम जम जाए | इस अवस्था में पानी गैस के ही मौलिक्युल्स पर जम जाता है |
इन शर्तो के अतिरिक्त बादल बनने की विधि में निम्न लिखित शर्तो का जानना अत्यधिक आवश्यक है -
(ङ) हवा में नमी की राशि |
(च) वायु मंडल का ताप परिमाण
(छ) वायु के फेलने की गुंजाइश
(ज) नमी के लिए रेणु कणों के गुण ,आकार और संख्या |
यह सब बादल बनने और बरसने की विधि से स्पष्ट हो जाएगा |
बादल बनने की विधि -
पृथ्वी के वायुमंडल की दो मुख्य परते है | एक १० किलोमीटर (६ मील ) की उंचाई तक और दूसरी उपर २०० किलोमीटर (१२४ ) की उचाई तक | वर्षा के प्रकरण में हमारा सम्बन्ध १० किलोमीटर के वायुमंडल से ही है , क्यूंकि इससे उपरली परत में हवा नही जाती और इसलिए वहा बादल नही बनते | हां कभी कभी प्रबल उर्ध्वमुख वायु की धारा नमी को उपर धकेल देती है ,जिससे बादल बन जाते है वे यहा स्पष्ट हो जाएगी |
समुद्र ,नदी आदि से पानी सदा उड़ता रहता है ,परन्तु फिर भी हवा अतृप्त रहती है | इसका कारण यह है कि नमी वाली गर्म हवा उर्ध्व गति वाली हवा द्वारा ऊपर धकेल दी जाती है और वहा की शुष्क और ठंडी हवा उसके स्थान पर नीचे आती रहती है | नीचे आ कर फिर वह पानी चुसना शुरू करती है | इस प्रकार चक्कर चलता रहता है | हवा जितनी अधिक गर्म होती है उतनी अधिक नमी लेती है | १० शतांश वाली हवा ११ श. वाली होने पर पहले से दुगनी नमी ले सकती है | ०८ श. पर हवा ०.२ श. नमी से ही तृप्त हो जाती है ,परन्तु ४५ श. की हवा को ५ श. नमी की आवश्यकता होती है | हवा की फ़ालतू नमी ही ,जो उसमे उसके ताप परिमाण की दृष्टि से अधिक होती है ,ओस बिंदु की शीतलता पर रेणु कणों पर जम सकती है | रेणु कणों के प्रकरण में यह भी लिखा जाएगा कि ये जरे जितने अधिक होते है उतने ही वर्षा बिंदु छोटे होते है और जितने छोटे बनेंगे उतना ही अधिक देर तक वे बादल के रूप में उपर टिके रहेंगे | बरसेंगे नही |
गर्म और नमीदार हवा उर्ध्व गति द्वारा उपर जाकर फ़ैल जाती है , क्यूंकि उपर दबाब कम होता है | फैलने के कारण वह ठंडी हो जाती है और जम कर बादल बना देती है | बादल की शक्ल और वह ऊचाई जिसपर वह नमी से बादल बन जाता है ,हवा की गर्मी ,उस की नमी और उपर धकलने वाली हवा की तेजी पर निर्भर है | हवा का जीतना तापमान ज्यादा होगा , उसमे जितनी नमी कम होगी और वह जितनी तेजी से उपर जायगी ,उतनी ही उचाई पर बादल बनेगा | अतृप्त हवा जहा जहा १०० गज उपर चढने पर १ शतांश ठंडी होती है वहा तृप्त हवा ०.४ श. ही ठंडी होती है |
आद्र हवा उपर चढने पर जितनी उंचाई तक पहुचती है वहा के दबाव के अनुसार एक दम फैलती ,ठंडी और अतिसंपृक्त होती है और जम जाती है |वायु मंडल में ज्यो ज्यो उपर चढ़ते जाते है ,त्यों त्यों हवा की घनता कम होती जाती है | ५० किलोमीटर तक दबाब लगातार घटता जाता है और वह नमी को बादल बनाने में बहुत साहयक है |
हम उपर कह आये है कि बादल जमाने में रेणु कणों की संख्या ,गुण तथा आकार का बहुत बड़ा हाथ है |
प्रथ्वी की पहली परत में नेत्रजन ,ओषजन ,कार्वन द्विओषजिद के अतिरिक्त पानी के ठोस कण भी बहुत होते है | ये जरे भार आदि के अनुसार उपर नीचे होकर चारो तहों में विभक्त हो जाते है | हल्के उपर और भारी नीचे रहते है | चारो तहों में से पहली प्रथ्वी से १ किलोमीटर तक , दूसरी ४ किलोमीटर तक ,तीसरी १० किलोमीटर तथा चौथी १० किलोमीटर से उपर होती है | एक म्यु परिमाण से बड़े जर्रे भारी होने के कारण पृथ्वी पर गिर पड़ते है | इन जर्रो का कम अधिक होना स्थान विशेष पर धुए आदि की मात्रा के कम अधिक होने और हवा चलने पर निर्भर है | ख़ास ख़ास जगहों पर १ घन सेंटीमीटर वायु में १०० जर्रे मिलते है ,परन्तु लन्दन जैसे शहर की १ घन सेंटी वायु में वे १ लाख से १.५ लाख तक पाए जाते है | धुली कणों के अतिरिक्त आयोनाइजेशन होने के कारण उन से बनने वाले जर्रो की संख्या भी भिन्न भिन्न होती है |
जर्रो की संख्या के साथ ,बादल बनाने के लिए जर्रो का गुण अत्यंत आवश्यक है | बादल बनाने में ,द्र्वावस्था या ठोसावस्था के वे ही जर्रे काम आते है जो आद्रता चूसने वाले हो दुसरे नही | साधारण हवा में भी नत्रजन ,ओषजन तथा पानी पर सूर्य के प्रकाश के प्रभाव से आयोनाइजेशन होने के साथ साथ अमोनिया,उद्रजन ,परौषजिद और नाओ आदि बन जाते है | कोयला आदि से उत्पन्न गओ २ से गओ३ बन जाता है ,जो आद्रता को चूसने वाला है | इसी प्रकार ऋणविद्युताविष्ट
जर्रो के गुण के साथ उनका आकार भी ध्यान देने योग्य है | उन्नतपृष्ठ जर्रो कि अपेक्षा नतपृष्ठ जर्रो पर अधिक वाष्व जमते है | ०.६३ म्यु से छोटे जर्रे विद्युताविष्ट होने पर ही नमी को खीचते है | परन्तु ध्यान रखने योग्य बात यह है कि जर्रो पर एक बार आद्रता का परत बन जाने पर फिर नमी जमती ही जाती है ,क्यूंकि नमी नमी को खीचती चली जाती है |
यदि स्थान विशेष के जर्रो की संख्या स्थिर हो तो जितनी नमी कम होगी बिंदु उतने ही छोटे बनेंगे और वह जितनी अधिक होंगे बिंदु उतने ही बड़े बनेंगे | इसी बात को इस रूप में भी कहा जा सकता कि अधिक नमी वाली हवा जल्दी ठंडी होकर नीचे ही बादल बना लेगी और अधिक शुष्क हवा को पर्याप्त ऊचाई पर जाना पड़ेगा |
बादल बरसने की विधि -
वर्षा के विषय में मौजूद वैज्ञानिक सिद्धानात यह है कि वह उस समय होती है जब वायु की उर्ध्वगति हो | इससे हवा के साथ बादल उपर उठाता है और बहुत उपर जाने के कारण हवा की फ़ालतू नमी के बड़े बड़े बिंदु बन जाते है ,जो व्ही पर ठहर जाते है ज्यादा उपर नही जा सकते है | छोटे ,हल्के किन्तु संख्या में कम बिंदु उर्ध्वगति वाली वायु के साथ और उपर उठते है | उपर हवा अत्यधिक सम्प्रक्त होती है ,अत: उन थोड़े बिन्दुओ पर ही नमी जमनी प्रारम्भ होती है और वे पहले से बने बिन्दुओ से भी बड़े बन जाते है | अब ये बिंदु भारी होने के कारण नीचे गिरना प्रारम्भ करते है और नीचे ठहरे बिन्दुओ हुए बिन्दुओ में से गुजरते समय भिन्न विद्युत से आविष्ट या भिन्न घनता वाले होने के कारण उनसे नमी लेकर ०.४ से १ मि.मी व्यास वाले हो जाते है और फिर नीचे आने पर बरसे बिना नही रहते है | इससे स्पष्ट है कि वर्षा करने के लिए बादल में न्यूकिल्क्स का कम होना और उससे अधिक बादल का उपर चढना आवश्यक है | अन्यथा उपर के भाग में न्युकिल्यस की संख्या अधिक होने के कारण वर्षा रुक सकती है ,क्यूंकि उस अवस्था में बहुत छोटे छोटे बिंदु बनने के कारण बादल उपर ही ठहरे रहते है | बादलो की उपस्थति में अधिक आग लगने पर वर्षा हो जाने का कारण आग से उत्पन्न वायु की उर्ध्वगति ही है |
हवन गैस से वर्षा -
हवन गैस से वर्षा होने में कारण ज़हा एक सीमा तक हवन से उत्पन्न वेजले कार्बन के जर्रे है ,वहा उनसे भी अधिक घी के आद्रता चुसक जर्रे है | घी की परत वाले छोटे छोटे जर्रे नमी खीच सकते है | और एक बार नमी जमने से उन पर नमी जमती ही चली जाती है | कोयले के कई जर्रे जो घी की परत से ढक जाते है ऋणबिद्युतविष्ट देखे गये है ,जो स्वभावतय पानी को खीचते है | इस तरह साधारणतय छोटे हवन बादल बनाने और ऋतू के अनुसार वर्षा में साहयक होते है | किसी विशेष समय वर्षा लाने के लिए हवन को बड़ी मात्रा पर और विशेष विशेष पदार्थो ( जिनसे आद्रता चूसने वाले गैस या जर्रे बने ) करना आवश्यक है | बहुत बड़े हवन ही उर्ध्व गति के वायु को पैदा करके वर्षा लाने का काम कर सकते है | हवन में तेल घी जैसे आद्रता चूसने वाले पदार्थ होने के कारण बादल न होने पर भी नमी को खीच कर ,बादल बना कर वर्षा कर सकते है | जिनसे वर्षा रुक सके या बादल हट सके | इनमे ऐसे पदार्थ डाले जा सकते है जिनसे वर्षा रुक सके या बादल हट सके | इनमे ऐसे पदार्थ डाले जा सकते है जिससे बहुत मात्रा में ठोस कण बने और आद्रता को खीचने के स्थान पर उससे वाष्प बनाने का काम करे |
आशा है श्री गोयल के उक्त वैज्ञानिक विवेचन से पाठको को यह समझने में कुछ साहयता मिलेगी कि यज्ञ से वर्षा होने में वैज्ञानिक दृष्टिकोण क्या है ?
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