लगभग कई कालो से लोग तरह तरह की बाते या द्रष्टान रख भुत पिशाच के अस्तित्व को पुष्ट करने की कोशिश करते है | कई जगह तो होरर पेलेस के नाम से फेमस कर दी गयी है | कुछ लोकोक्त कहानिया सुन और उसे उस जगह से जोड़ कर भूतो के अस्तित्व को दर्शाते है | जेसे कि भानगढ़ का किला लेकिन कोई अधिकाँश व्यक्ति बिना जाच किये इन पर यकीन कर लेते है | कुछ धार्मिक अंधविश्वास के चलते और कुछ बचपन की सुनी बातो और कहानियों के कारण क्यूंकि बचपन में हुई बातें कहानिया उनके मन पर संस्कार रूप अंकित हो जाती है जिससे दूर जाना सम्भव नही | अधिकाँश लोग जो ऐसी जगहों पर जाने पर मरे या किसी विशेष बिमारी से ग्रस्त पाए जाते है उन्हें लोग भूत बाधा या पिशाच का प्रकोप बता कर अंधविश्वास फैलाते है लेकिन यदि हम ऐसी घटनाओं पर गौर करे तो पता लगता है कि अधिकाँश लोग इन जगहों पर हर्ट अटेक से मरे है | मतलब ये लोग किसी भ्रम के कारण उत्पन्न भय से मरे है | इसी तरह मेरे साथ १०-१२ तक पढने वाला एक मित्र जो जयपुर के गलोबल कॉलेज से इलेक्ट्रिकल में ग्रेजुएट हुआ है वो भानगढ़ एक रात्री रुका था लेकिन उसे केवल सुनसानपन और कुछ झींगुर आदि की आवाजो के आलावा कुछ नही मिला | इससे तो यही समझ आता है वहा कुछ भुत जेसा नही है | कुछ स्थल काफी पुराने समय से भुत या देवताओ की कहानियों और पराशक्तियों से ग्रसित बताये जाते है | लेकिन हम कौटिल्य अर्थशास्त्र के निम्न श्लोक पढ़ते है तो समझ आता है कि कई स्थल को देवीय शक्ति युक्त या भुत पिशाच युक्त बताने का कारण वहा के पर्यटन स्थल में वृद्धि कर राज्य के खजाने में वृद्धि करना होता था | ऐसा करने पर विद्वान से लेकर अन्धविश्वासी मुर्ख भी उस जगह को देखने जाएगा | विद्वान जिज्ञासा वश और अन्धविश्वासी मन्नत मांगने के उद्देश्य से | कौटिल्य लिखते है -
" दैवत चैत्य सिद्धपूण्यस्थान
इस तरह जिन प्राचीन मन्दिरों ,किलो पर भुत देव प्रकोप प्रचारित किया जाता है उसके पीछे इसी तरह का कारण हो सकता है |
चाणक्य ने यह केवल राज्य धन वृद्धि में परामर्श के लिए कहा है जो कि आपातकाल में धन की कमी को पूरा करने का उपाय है इसके आलावा चाणक्य ने वास्तव में भुत प्रेत ,जादू टोना करके अंधविश्वास फैलाने वाले को बंदी बनाने को कहा है - " कृत्याभिचाराभ्य
इसी तरह मैत्र्युपनिषद में भी जादू टोना करने वालो को ठग और चोर कहा है -
" अथ ये चान्ये यक्षराक्षसभूतगण
अर्थात जो लोग यक्ष ,राक्षस ,भूतगण,पिशाच ,ग्र्हादिक की मन्त्र तन्त्र द्वारा शान्ति करते है ,ऐसा कहते है उनका संग नही करना चाहिए वे चोर है ठग है ,अस्वर्ग्य है |
लेकिन हम इसके विपरीत सुश्रुत ,वेद आदि कई ग्रंथो में राक्षस ,भुत पिशाच आदि का उलेख देखते है ,लेकिन वास्तव में यह सब राक्षस ,भुत ,पिशाच ,प्रेत जेसा बताया जाता है वेसा नही होता यह कीटाणु ,क्रीमी और मृत शरीर (लाश ) सूक्ष्म शरीर (जो एक शरीर से दुसरे शरीर में जा कर जन्म लेता है ) के वाचक है |
सुश्रुत संहिता सूत्रस्थान पर आता है - " नागा: पिशाचा गन्धर्वा पितरो यक्षराक्षसा: || अभिद्रवन्ति ये ये त्वा ब्रह्माद्या घन्तु तान्सदा || सूत्रस्थान ५/
अर्थात नाग ,पिशाच ,गन्धर्व ,पितर ,यक्ष ,राक्षस जो जो तेरे पर आक्रमण करते है उनको देवता आदि दूर करे | ये निशाचर पृथ्वी पर ,जल में ,वायु आकाश सब दिशाओं में विचरते है |
यहा इनका स्थान सब दिशाओं ,प्रथ्वी ,वायु ,जल आदि बताया है जो की जीवाणु ,क्रीमी ,विषाणु का होता है |
इसी तरह निरुक्त में पिशाच के लिए आया है - पिशाच: - पिशितमश्नाति इति -अर्थात जो मॉस खाता है वो पिशाच कहाता है | इस तरह के कई कीट ,रोग जन्तु होते है जो शरीर को रोगी कर मॉस ,धातु रक्त को क्षीण कर देते है |
अर्थववेद के आठवे काण्ड का ६ वा सूक्त विशेष रूप से राक्षसों .पिशाचो आदि का वर्णन करता है | इस सूक्त के पहले ही मन्त्र में दुर्णामा शब्द आया है | शेष मन्त्रो में दुर्णामा को गन्धर्व ,राक्षस ,पिशाच ,यातुधान आदि कहा गया है | दुर्णामा के बारे में ऋषि यास्क निरुक्त में लिखते है - " दुर्णामा क्रिमिर्भवति " अर्थात दुर्णामा किर्मियो (सूक्ष्म रोग जन्तु ) को कहते है | चुकी वेद ने राक्षस ,पिशाच , गन्धर्व ,यातुधान को दुर्णामा कहा है और दुर्णामा क्रिमी होता है अत: सुश्रुत के पूर्व लिखे श्लोक और वेदों में कई जगह यह रोग जन्तु के वाचक हुए |
ऋषि दयानन्द जी अपनी कालजयी कृति सत्यार्थ प्रकाश दुसरे समुल्लास में भुत पिशाच का बहुत तीव्र खंडन कर तांत्रिक ,मान्त्रिक जेसे ठगों को फटकार लगाते है और भूत क्या होता है इसे बताते हुए लिखते है - " गुरो: प्रेतस्य शिष्यस्तु पितृमेध समाचरन | प्रेतहारे: सम तत्र दशरात्रेण शुद्धधयति || मनु ||
अर्थात जब शरीर का दाह हो चूका तब उस का नाम भुत होता है | ऋषि ने यहा मनु के प्रमाण से भुत प्रेत मृत शरीर अर्थात जो जीवन खत्म कर गुजर चूका हो उसे कहा है |
न्याय दर्शन में आया है - पुनरूत्पति: प्रेत्यभाव: (१/१/१९ ) अर्थात मर कर पुन: जन्म लेने को प्रेत्याभाव कहते है|
अत: वेदादि शास्त्रों में आये राक्षस ,पिशाच ,भुत आदि शब्द लोक प्रचलित विशेष विज्ञान विरुद्ध शक्तियों से युक्त कोई विशेष नही |
भुत आदि पर दिए जाने वाले कुछ तर्को की समीक्षा -
कुछ लोग भुत प्रेत को सूक्ष्म शरीर युक्त आत्मा बताते है जो कि अकाल मृत्यु या किसी बुरे कर्म के कारण न तो मोक्ष प्राप्त कर पाती है न ही दूसरा शरीर ग्रहण कर पाती है | और लोगो को परेशान करना भटकना इनका कार्य बताते है |
यह सिद्धांत प्रथमत: वेद के विरुद्ध है क्यूंकि वेद में प्राणियों की दो ही गति लिखी है - " द्वे सृती .... पितर मातर च ||" यजु. १९/४७ अर्थात मनुष्य आदि सबके दो ही मार्ग है ,एक या तो उनकी मुक्ति हो जाये या फिर एक शरीर छोड़ कर दूसरा शरीर धारण कर बार बार माता पिताओं से उत्पन्न होते रहे |
वेद ने प्रेत रूप भटकने का कोई विधान नही दिया केवल पुनर्जन्म और मोक्ष ही बातया है |
यहा विचारणीय बात यह है की भुत होने पर व्यक्ति मनुष्य समान कार्य तो कर ही सकता है और उससे विशेष भी जेसा की भुत आदि की कहानिया सुन पता लगता है तो ईश्वर को सूक्ष्म शरीर के आलावा स्थूल शरीर बनाने की आवश्यकता क्यूँ हुई जबकि सूक्ष्म शरीर के द्वारा ही आत्मा सभी कार्य कर सकती है | इससे सिद्ध है की बिना स्थूल शरीर के आत्मा कार्य करने में सक्ष्म नही है | इसलिए यदि कोई आत्मा द्वारा किसी को नुक्सान होना बताते है वह उनकी कल्पना है | आत्मा के साथ सूक्ष्म शरीर होता है जिसमे इन्द्रिया आदि होती है जेसे दृश्य इन्द्रिय ,स्वाद इन्द्रिय आदि लेकिन जब तक यह स्थूल शरीर के गोलको में नही आएँगी तब तक यह कार्य नही कर पाती | दृश्य इन्द्रिय नेत्र गोलको में स्थापित होने पर कार्य कर पाती है | और इसी तरह श्रोत और स्वाद इन्द्रिय कान और जीह्वा में स्थापित होने पर बिना इसके नही | इस लिए बिना स्थूल शरीर के जीव कार्य करने में सक्षम नही है | इसलिए भुत प्रेत में दिया यह सिद्धांत बिलकुल दूषित है |
वेद के अलावा उपनिषद भी पुनर्जन्म को पुष्ट करते है न की भुत बनने को -
" तद्यथा तृणजलायुका तृणस्यान्त गत्वा Sन्यमाक्रममाक्र
जेसे जोंक आदि कीट एक तिनके के अंतिम छोर को छोड़ दुसरे तिनके के अग्र भाग पर पहुचती है वेसे ही आत्मा एक शरीर को छोड़ दूसरा शरीर ग्रहण करती है |
यहा आत्मा का एक शरीर से वियोग होने पर दूसरा शरीर ग्रहण करना ही लिखा है |
एतरय उपनिषद २/१/
इस तरह महाभारत में भी पुनर्जन्म का ही उलेख मिलता है -
" आयुषोsन्ते प्रहायेद क्षीणप्राय कलेवरम | सम्भवत्येव युगपद योनो नास्त्यन्तराभाव
अर्थात आयु के क्षीण होने पर जर्जर शरीर का त्याग कर आत्मा दूसरा शरीर ग्रहण करती है |
इस तरह अनेको प्रमाण से सिद्ध होता है या तो मोक्ष होता है या पुनर्जन्म इसके आलावा कोई भुत ,पिशाच बन भटकने का उलेख नही है |
इसके अलावा हम अनेक मन्दिरों में या स्थलों पर देखते है की लोग हसने गाने ,नाचने जेसी विचित्र क्रियाए करते है जिसे यह बताया जाता है की इनके शरीर में कोई भुत ,प्रेत प्रवेश कर गया है | जेसा हमने पहले बताया की आत्मा सूक्ष्म और स्थूल शरीर से अपने कर्म करती है | बिना इनके नही | और जेसा बताया जाता है की शरीर में आत्मा का प्रवेश तो यदि एक शरीर में पहले से ही आत्मा है तो दूसरी आत्मा उस में प्रवेश नही कर सकती न ही कोई कार्य कर सकती क्यूंकि पूर्व उपस्थित आत्मा के साथ वाले सूक्ष्म शरीर मन आदि पहले से ही स्थुल शरीर के साथ संयोजित हो चूका है | जेसे नेत्रों में पहले से ही दृश्य इन्द्रिया संयोजित हो चुकी है इसमें किसी दूसरी दृश्य इन्द्रियों के लिए जगह ही नही अत: शरीर में दूसरी आत्मा घुस कार्य करती है यह तथ्य सत्य पर खरा नही उतरता है |
हम जो इस तरह की घटनाए जेसे सर हिलाना ,हसना ,रोना ,विचित्र क्रियाए देखते है उन्हें आयुर्वेद ने रोग विशेष बताये है न की कोई भुत पिशाच का चक्कर -
माधव निधान में इनके बारे में लिखा है -
" रक्षाल्पशीतान्न
चिन्तादि दुष्ट हृदय प्रदुष्य बुद्धि स्मृति चाप्युपहन्ति शीघ्रम ||७||
प्रस्थानहास्य स्मितनृत्यगीतवा
पारुष्यकाक्श्र्
अर्थात रुखा और ठंडा अन्न खाने से ,अल्पभोजन करने से ,विरेचन अथवा वमन के मिथ्या योग से धातुओ के क्षीण होने से ,उपवास से अत्यंत वृद्धि को प्राप्त वायु ,चिन्ता और शोक आदि से पीड़ित ह्रदय को दूषित करके बुद्धि को नष्ट कर देता है |
वातज उन्मादी रोगी अकारण हसता ,मुस्कुराता ,रोता नाचता गाता तथा बिना कारण बोलता है | हाथ पैर चलाता है रोता है | उसका शरीर रुक्ष दुर्बल और कुछ लाल वर्ण का हो जाता है | आहार क्षीण होने पर रोग बढ़ता है |
इसी के परिशिष्ट सूचि के अंतर्गत योषापस्मार जो की स्त्रियों में सर हिलाना रोना हसना आदि देखा जाता है पर लिखा है -
" वैचित्य बूद्धिविभ्रान्त
उच्चे: क्रोश: प्रलपन ज्योतिद्वेषस्तथ
औध्दत्य श्वासकृच्छ च कंठामाशयवेदना |
प्राबल्य स्पर्शशक्तेश्च क्वचिदगे सदा कथा ||
अलीकवर्तुलोत्था
अत्यल्पबुद्धिमु
अर्थात चित की विकलता ,मतिविभ्रम ,हसना ,रोना ,उची आवाज से पुकारना .अंटसंट बकना ,उजाले से अरुचि ,भ्रम ,उधम मचाना ,श्वास में कष्ट ,कण्ठ अमाशय में वेदना ,स्पर्श शक्ति की प्रबलता किन्ही अवयवो में पीड़ा ,मूर्च्छा आदि योषापस्मार रोग के लक्षण है |
इस तरह ये सब रोग बताये गये है न की भुत पिशाच का लग जाना | ऋषि दयानन्द ने बिलकुल ही ठीक लिखा है - अज्ञानी लोग वेदक शास्त्र वा पदार्थ विद्या पढने .सुनने और विचार से रहित होकर सन्निपातज्वरादी
हम सबको इन अन्धविश्वासों से मुक्त होना चाहिए और लोगो में भी जागरूकता लानी चाहिए ताकि वे तांत्रिक आदि ठगों से बच सके | अपना धन और शरीर इन पर बर्बाद न करे |
संधर्भित ग्रन्थ एवम पुस्तके -
(१) सत्यार्थ प्रकाश -ऋषि दयानन्द
(२) सत्यार्थ भास्कर - स्वामी विद्यानन्द सरस्वती
(३) कौटिल्य अर्थशास्त्र - आचार्य चाणक्य
(४) न्याय दर्शन - गौतम मुनि
(५) एतरय उपनिषद - मह्रिषी ऐतरय (भाष्यकार - शंकाराचार्य )
(६) एकादशोपनिषद - नारायण स्वामी
(७) सुश्रुत संहिता - मह्रिषी धन्वन्तरी (टीका कार - मुरलीधर शर्मा )/प्रकाशन- खेमराज श्रीकृष्णदास मुम्बई
(८) मीरपूरी सर्वस्व - बुद्धदेव मीरपूरी
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