Wednesday, June 11, 2014

यम यमी संवाद पर एक नजर

ऋग्वेद के दशवे मंडल के दशवे सूक्त १०|१० में यम
यमी शब्द आये हैं | जिसके मुर्ख मनुष्य अनर्गल
व्याख्या करते हैं | उसके अनुसार यम
तथा यमी विवस्वान् के पुत्र-पुत्री हैं
और वे एकांत में होते हैं, वहा यमी यम से
सहवास कि इच्छा प्रकट करती हैं |
यमी अनेक तर्क देती किन्तु यम उसके
प्रस्ताव को निषेध कर देता |
तो यमी कहती मेरे साथ तो तु ना कहे
रहा पर किसी अन्य तेरे साथ ऐसे
लिपटेगी जैसे वृक्ष से बेल, इत्यादि |
इस प्रकार के अर्थ दिखा के वेद निंदक नास्तिक वेद को व
आर्यो के प्रति दुष्प्रचार करते हैं | आर्यो का जीवन
सदैव मर्यादित रहा हैं, क्यों के वे वेद में वर्णित ईश्वर
कि आज्ञा का सदैव पालन करते रहे हैं | यहाँ तो यह
मिथ्या प्रचार किया जा रहा अल्पबुद्धि अनार्यों द्वारा के वेद पिता-
पुत्री, भाई-बहन के अवैध संबंधो कि शिक्षा देते
और वैदिक काल में इसका पालन होता रहा है |
वेदों के भाष्य के लिए वेदांगों का पालन करना होता हैं, निरुक्त ६
वेदांगों में से एक हैं | निघंटु के भाष्य निरुक्त में यस्कराचार्य
क्या कहते हैं यह देखना अति आवश्यक होता हैं व्याकरण
के नियमों के पालन के साथ-२ ही | व्याकरण
भी ६ वेदांगों में से एक हैं |* राथ यम-
यमी को भाई बहन मानते और
मनावजाती का आदि युगल किन्तु मोक्ष मुलर (प्रचलित
नाम मैक्स मुलर) तक ने इसका खंडन किया क्यों के उन्हें
भी वेद में इसका प्रमाण नहीं मिल पाया |
हिब्रू विचार में आदम और ईव मानव जाती में के
आदि माता-पिता माने जाते हैं | ये विचार ईसाईयों और मुसलमानों में
यथावत मान्य हैं | उनकी सर्वमान्य मान्यता के
अनुसार दुनिया भाई बहन के जोड़े से हि शुरू हुई | अल्लाह
(या जो भी वे नाम या चरित्र मानते हैं) उसने
दुनिया को प्रारंभ करने के लिए भाई को बहन पर चढ़ाया और
वो सही भी माना जाता और फिर उसने
आगे सगे भाई-बहनो का निषेध
किया वहा वो सही हैं | ये वे मतांध लोग हैं
जो अपने मत में प्रचलित हर मान्यता को सत्य मानते हैं और
दूसरे में अमान्य असत्य बात को सत्य सिद्ध करने पर लगे रहते
हैं | ये लोग वेदों के अनर्गल अर्थो का प्रचार करने में लगे
रहते हैं |
स्कन्द स्वामी निरुक्त भाष्य में यम
यमी कि २ प्रकार व्याख्या करते हैं |
१.नित्यपक्षे तु यम आदित्यो यम्यपि रात्रिः |५|२|
२.यदा नैरुक्तपक्षे
मध्यमस्थाना यमी तदा मध्यमस्थानों यमो वायुवैघुतो वा वर्षाकाले
व्यतीते तामाह | प्रागस्माद् वर्षकाले अष्टौ मासान्-
अन्यमुषू त्वमित्यादी | |११|५
आपने आदित्य को यम
तथा रात्री को यमी माना हैं
अथवा माध्यमिक
मेघवाणी यमी तथा माध्यमस्थानीय
वायु या वैधुताग्नी यम हैं | शतपथ ब्राहमण में
अग्नि तथा पृथ्वी को यम-यमी कहा हैं
|
सत्यव्रत राजेश अपनी पुस्तक “यम-
यमी सूक्त कि अध्यात्मिक व्याख्या” कि भूमिका में
स्पष्ट लिखते हैं के यम-यमी का परस्पर सम्बन्ध
पति-पत्नी हो सकता हैं भाई बहन
कदापि नहीं क्यों के यम पद “पुंयोगदाख्यायाम्” सूत्र
से स्त्रीवाचक डिष~ प्रत्यय पति-
पत्नी भाव में ही लगेगा | सिद्धांत
कौमुदी कि बाल्मानोरमा टिका में “पुंयोग” पद
कि व्याख्या करते हुए लिखा हैं –
“अकुर्वतीमपि भर्तकृतान्** वधबंधादीन्
यथा लभते एवं तच्छब्दमपि, इति भाष्यस्वारस्येन जायापत्यात्मकस्
यैव पुंयोगस्य विवाक्षित्वात् |”
यहा टिकाकर ने भी महाभाष्य के आधार पर
पति पत्नी भाव में डिष~ प्रत्यय माना हैं | और
स्वयं सायणाचार्य ने ताण्डय्-महाब्राहमण के भाष्य में
यमी यमस्य पत्नी, लिखा हैं ,
अतः जहा पत्नी भाव विवक्षित
नहीं होगा वहा – “अजाघतष्टाप्” से टाप् प्रत्यय
लगकर यमा पद बनेगा और अर्थ होगा यम कि बहन | जैसे गोप
कि पत्नी गोपी तथा बहन
गोपा कहलाएगी.,अतः यम-यमी पति-
पत्नी हो सकते हैं, भाई बहन
कदापि नहीं | सत्यव्रत राजेश जी ने
अपनी पुस्तक में यम को पुरुष-
जीवात्मा तथा यमी को प्रकृति मान कर
इस सूक्त कि व्याख्या कि हैं |
स्वामी ब्रह्मुनी तथा चंद्रमणि पालिरात्न
ने निरुक्तभाष्य ने यम-यमी को पति-
पत्नी ही माना हैं | सत्यार्थ प्रकाश में
महर्षि दयानंद कि भी यही मान्यता हैं
|
डा० रामनाथ वेदालंकार के अनुसार – आध्यात्मिक के यम-
यमी प्राण तथा तनु (काया) होने असंभव हैं |
जो तेजस् रूप विवस्वान् तथा पृथ्वी एवं आपः रूप
सरण्यु से उत्पन्न होते हैं | ये दोनों शरीरस्थ
आत्मा के सहायक एवं पोषक होते हैं | मनुष्य कि तनु
या पार्थिव चेतना ये चाहती हैं कि प्राण मुझ से
विवाह कर ले तथा मेरे ही पोषण में तत्पर रहे |
यदि ऐसा हो जाए तो मनुष्य कि सारी आतंरिक
प्रगति अवरुद्ध हो जाये तथा वह पशुता प्रधान
ही रह जाये | मनुष्य का लक्ष्य हैं पार्थिक
चेतना से ऊपर उठकर आत्मलोक तक पहुचना हैं |
श्री शिव शंकर काव्यतीर्थ ने यम-
यमी को सूर्य के पुत्र-पुत्री दिन रात
माना हैं तथा कहा हैं कि जैसे रात और दिन
इकठ्ठा नहीं हो सकते ऐसे ही भाई-
बहन का परस्पर विवाह भी निषिद्ध हैं |
पुरुष तथा प्रकृति का आलंकारिक वर्णन मानने पर,
प्रकृति जीव को हर प्रकार से
अपनी ओर अकार्षित करना चाहती हैं,
किन्तु जीव कि सार्थकता प्रकृति के प्रलोभन में न
फसकर पद्मपत्र कि भाति संयमित जीवन बिताने में हैं
|
इन तथ्यों के परिप्रेक्ष्य में वेद और लोक व्यहवार –विरुद्ध भाई
बहिन के सहवास सम्बन्धी अर्थ को करना युक्त
नहीं हैं | इसी सूक्त में
कहा हैं-“पापमाहुर्यः सवसारं निगच्छात्” बहिन भाई का अनुचित
सम्बन्ध पाप हैं | इसे पाप बताने वा वेद स्वयं इसके
विपरीत बात
कि शिक्षा कभी नहीं देता हैं |
सन्दर्भ ग्रन्थ – आर्य विद्वान वेद रत्न सत्यव्रत राजेश के
व्याख्यानों के संकलन “वेदों में इतिहास नहीं” नामक
पुस्तिका से व्याकरण प्रमाण सभारित |

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